Monday, December 27, 2010

और एक स्कूल का अंत हो गया


मैंने इसे विजय कुमार ठाकुर के निधन (२७.१२.२००६) पर प्रेमकुमार मणि की पत्रिका 'जन विकल्प ' के लिए लिखा था. आज ठाकुर जी की याद में श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत कर रहा हूँ -

विजय कुमार ठाकुर के असामयिक निधन से बिहार के इतिहास-जगत् को जो क्षति पहुंची है उसकी भरपाई दूर-दूर तक असंभव प्रतीत होती है। खासकर पटना विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग तो उनके बगैर वर्षों तक बेजान ही रहेगा। ऐसा लगता है मानों इतिहास विभाग से इतिहास निकल गया और विभाग शेष रह गया। वे एक प्रतिबद्ध शिक्षक, प्रतिबद्ध इतिहासकार और छात्रों के सच्चे मार्गदर्शक थे। इन सब के ऊपर वे एक बेहतर मनुष्य थे। उनके जाने से एक साथ इतने सारे पदों की रिक्ति हो गई। भविष्य का कोई अकेला आदमी इन तमाम रिक्तियों को भर सकेगा, संदेह है।

ठाकुर जी को इतिहास विरासत में प्राप्त हुआ था। सन् 52 में इनका जन्म उपेन्द्रनाथ ठाकुर के घर हुआ जो स्वयं प्राचीन इतिहास, संस्कृत और पालि के विद्वान थे। रामकृष्ण मिशन, देवघर से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सायंस कॉलेज, पटना में उन्होंने दाखिला लिया। इतिहास को शायद यह मंजूर न था, फलतः बी.ए. में वे बी.एन. कॉलेज आ गये, जहां इतिहास को उन्होंने अपना विषय बनाया। इतिहास विभाग से उन्होंने 72-74 सत्र में एम. ए. किया और मार्च 1975 में उसी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए। इसी दौरान राधाकृष्ण चौधरी के निर्देशन में भागलपुर विश्वविद्यालय से ‘अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया’ विषय पर अपना शोधकार्य पूरा किया। इनके शोध-निर्देशक बिहार में मार्क्सवादी इतिहास लेखन की पहली पीढ़ी के इतिहासकार थे।

प्रो. ठाकुर के लेखन/प्रकाशन की शुरुआत सन् 81 में उनकी पुस्तक अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया के प्रकाशन से मानी जा सकती है। इस पुस्तक के बाद उन्होंने भारतीय इतिहास लेखन के सबसे विवादास्पद विषय, अर्थात् सामंतवाद को चुना और उससे जुड़ी विभिन्न धाराओं की पड़ताल प्रस्तुत करते हुए सन् 89 में ‘हिस्ट्रीयॉग्राफी ऑफ इंडियन फ्यूडलिज्म’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। सन् 93 में ‘सोशल डायमेंशन्स ऑफ टेक्नॉलॉजी: आयरन इन अर्ली इंडिया’ प्रकाश में आई। 2003 में ‘पीपुल्स हिस्ट्री शृंखला’ के तहत इरफान हबीब के साथ ‘दि वेदिक एज ’ पुस्तक लिखी जो वेदकालीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को समझने के लिए एक जरूरी किताब साबित हुई। विगत वर्ष यानी सन् 2006 में ‘सोशल बैकग्राउंड ऑफ बुद्धिज्म ’ छपकर आई जिसमें बौद्ध-धर्म से संबंधित अद्यतन जानकारियों एवं अवधारणाओं को उद्घाटित करने की कोशिश थी। आपने कुछ महत्त्वपूर्ण किताबों का संपादन भी किया है जिनमें ‘टाउंस इन प्री मॉडर्न इंडिया’, ‘पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री’-खंड 1, ‘सायंस, टेक्नॉलॉजी एंड मेडिसीन इन इंडियन हिस्ट्री’ आदि प्रमुख है। ‘पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री’ का दूसरा एवं तीसरा खंड प्रेस में है। इनके अलावे सैकड़ों शोध-आलेख विभिन्न पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित हैं।

विजय कुमार ठाकुर महज पुस्तकों की दुनिया तक अपने को सीमित छोड़ देनेवाले लेखक न थे वरन् विभिन्न मोर्चों एवं संगठनों के माध्यम से सक्रिय भागीदारी भी निभाते थे। सन् 91 में जब मैं पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का छात्र था, उन्होंने अपने संरक्षण में विभाग के अन्य छात्रों को संगठित कर ‘इतिहास विचार मंच’ की स्थापना की थी। इस मंच की स्थापना में मेरे सहपाठी श्री अशोक कुमार का भी अपूर्व योगदान था। इस मंच से ‘प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था’ एवं ‘सबाल्टर्न स्टडीज’ जैसे अकादमिक महत्त्व के विषयों पर व्याख्यान आयोजित हुए थे।

देश में इतिहास की सबसे बड़ी संस्था ‘इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस’ में बिहार की भागीदारी को निर्णायक बनाने में ठाकुर जी का योगदान प्रशंसनीय रहा। यह उनके निजी प्रयास व नेतृत्त्व-कौशल का नतीजा था कि बिहार से सैकड़ों इतिहासकार (विशेषकर युवा) हिस्ट्री कांगेस में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाते थे। ठाकुर जी 1975 से इसके सक्रिय सदस्य थे। वे कार्यकारिणी सदस्य भी थे। सन् 92-95 के बीच वे संयुक्त सचिव रहे। सन् 1997 में, अर्थात् बंगलौर अधिवेशन (58 वें) में प्रभागाध्यक्ष (सेक्शनल प्रेसीडेंट, प्राचीन भारतीय इतिहास) रह चुके थे। सन् 2004 में वे आगामी तीन वर्षों के लिए जेनरल सेक्रेटरी चुने गये किंतु खराब स्वास्थ्य के कारण नवम्बर, 2005 में उन्होंने इस्तीफा दे डाला। इसके अतिरिक्त वे आंध्र इतिहास परिषद् तथा बंग इतिहास परिषद् के भी प्रभागाध्यक्ष रह चुके थे। ओरिएंटल कांफ्रेंस, 2006 (श्रीनगर) में भी वे प्राचीन भारत के प्रभागाध्यक्ष हुए। इधर वे प्राध्यापक से प्रति-कुलपति हो गये थे।

छात्रों के बीच ठाकुर जी काफी लोकप्रिय थे। वे बोलते इतना बढ़िया थे कि एम. ए. के दौरान अशोक जी ने उनके सारे लेक्चर टेप कर लिए थे जिसका ‘इतिहास-समग्र’ पुस्तक लिखते हुए भरपूर इस्तेमाल भी किया। ठाकुर जी हिंदी-अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में घंटों बोलने की सामर्थ्य रखते थे। उनकी हिन्दी भी शायद ही अशुद्ध होती थी। कक्षा में छात्र उनके अद्यतन ज्ञान एवं भाषा का आतंक महसूस करते। आवाज भी बहुत ‘लाउड’ थी। बदमाश से बदमाश छात्र उनको अपने समक्ष पाकर पिद्दी बन जाते, मानों अंगुलिमाल डाकू को अचानक बुद्ध का सामना करना पड़ गया हो। ‘इस्ट एंड वेस्ट’ कोचिंग संस्थान के आरंभिक दिनों में, ‘मार्क्स’ की उपाधि से मशहूर हो गये थे। वे एक चलता-फिरता स्कूल थे। उनके निधन से उस स्कूल में ताले लटक गये।

विभाग से छूटते तो ‘जानकी प्रकाशन’ में आकर जम जाते। यहां विश्वविद्यालय के विद्वान शिक्षकों एवं शोध-छात्रों का मेला लग जाता। घंटा-दो-घंटा यहां नियमित बैठते। हमारी पीढ़ी ने कॉफी हाउस की सिर्फ कहानियां सुनी थीं, हकीकत में जानकी प्रकाशन का ‘कुभ’ ही देखा था। यहां इतिहासवालों की बैठक होती और ‘राजकमल प्रकाशन’ में साहित्यकारों की गोष्ठी जमती। जानकी प्रकाशन में आकर्षण का केन्द्र थे ठाकुर जी। यहीं शोधार्थी अपने आलेख व थीसिस दुरुस्त करवाते। हिस्ट्री कांग्रेस के समय यहां भीड़ अचानक बढ़ जाती। सैकड़ों लोग आते, अपना पर्चा सुनाते-दिखाते और उचित मार्गदर्शन पाते। कभी-कभी वे इतना काटते-छांटते कि लेखक का ‘मूल’ ‘निर्मूल’ हो जाता। वे नये लोगों को बहुत प्रोत्साहित करते और मान देते थे। अन्य जगहों पर लोग इसका अभाव महसूस करते। जानकी से निवृत हो घर पहुंचते तो वहां भी शाम होते-होते लोग आ घेरते। चाय-नाश्ते का दौर चलता। चाय हमेशा मैडम (पत्नी) ही बनातीं। उनके घर नौकर न पाकर मेरे मार्क्सवादी मन को बड़ा संतोष होता और अपने गुरु के बड़प्पन का अहसास करता।(नारी -मुक्ति के विमर्शकारों के लिए यहाँ थोड़ा स्पेस दे रहा हूँ ).

बहुत कम लोग जानते हैं कि विजय कुमार ठाकुर का एक कवि रूप भी था। वे समय-समय पर कविताएं भी रचा करते थे। जब कभी वे हमलोगों के बीच ‘खुलते’ तो अपनी कविताएं दिखाते और उनके प्रकाशन की योजना के बारे में सूचना देते। कविताओं के चयन का दायित्त्व उन्होंने मुझे और अशोक जी को दे रखा था। पहली बार उनकी दो कविताएं ‘लोक दायरा’ में प्रकाशित हुई थीं। इन्हीं कविताओं को दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से निकलनेवाले अखबार ‘कैंपस संधान’ में मृणाल वल्लरी ने पुनर्प्रकाशित किया था। बहुत संभव है कि साहित्य के जो अपने निकष हैं उनके आधार पर उनकी कविताओं को सिरे से खारिज कर दिया जाये लेकिन इनसे इनके मानसिक द्वन्द्व एवं अंतर्मन को समझा जा सकता है। उनके काव्य-संग्रह ‘अंतर्वेदना’ में एक संघर्षशील आदमी की बेचैनी और जिद को पकड़ा जा सकता है। बेहतर से और बेहतर बनने की कोशिश या फिर न बन पाने की टीस उनकी कविताओं से खाद-पानी पाता था। उन्होंने मिजाज कवि का पाया था। कवि विश्वरंजन उनके गहरे मित्र थे और अपने सर्वप्रिय कवि में आलोक धन्वा का नाम लेते थे।

निधन के कुछ दिनों पहले से ही वे चीजों को समेटना शुरु कर चुके थे, मानो कोई पूर्वाभास हो। रात-दिन किताबों से चिपके रहते और लाल-पीले स्केच से रंगते जाते। कुछ छूट जाने का भय सताने लगा था। अंतिम दिनों में दिल्ली से खरीदकर लाई गई रणधीर सिंह की पुस्तक ‘ दि क्राइसिस ऑफ सोशलिज्म ’ का अंतिम पाठ पढ़ रहे थे। महान लेखक ग्रीन की तरह पुस्तकें पढ़ते हुए मरना शायद सपना रहा हो। वे गये, लेकिन ‘किताबों का क्या करें’ की चिंता परिवारवालों के लिए छोड़ गए।

Monday, December 6, 2010

और नालिश क्यों नहीं की ?

और इसी तीसरी कक्षा में विद्यालय के प्रधानाध्यापक जगदीश माट्सा से भेंट हुई. वे मेरे ही ग्रामीण थे. गहरे सांवले रंग के गंवई. किसान का चेहरा लिए हुए. कुरता-धोती उनका स्थायी पहनावा था. बिल्कुल छोटे कटे बाल रखते-लगभग न के बराबर. सिर पर बाल कम होने की एक वजह तो खुद उनकी वृद्धावस्था थी. उसी साल वे अपने कार्यभार से मुक्त भी हुए थे इसलिए उम्र हो चुकी थी. दूसरी कि उन दिनों बढ़े बाल तनिक पसंद न किये जाते थे. रहन–सहन से सादगी झलकती. ऐसी कि उन्हें देखकर शायद ही किसी को विश्वास होता कि वे शिक्षक हैं. लेकिन मुँह खोलने के बाद किसी को फिर परिचय की दरकार भी नहीं रह जाती होगी. गांव के विद्यालय में और एक ग्रामीण होने के बावजूद उनकी भाषा शुद्ध और समृद्ध होती. विद्यालय परिसर में मैंने उन्हें कभी क्षेत्रीय भाषा में या बेजरूरत बात करते नहीं सुना. वे उर्दू-बहुल/मिश्रित हिंदी का प्रयोग करते. शायद इसी वजह से उनकी भाषा मुझे खींचती और वे मुझे अच्छे लगते. कुल मिलाकर उनके व्यक्तित्व की जो तस्वीर बनती वह मेरे बालमन पर अपना असर छोडना आरंभ कर चुकी थी. आज भी उनके द्वारा शायद सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द ‘नालिस’ याद है. याद है कि जब छात्र आपस में झगड़ा करते और उनमें से कोई अगर उनके पास पहुंचकर शिकायत कर देता तो बादवाले को मार खानी ही पड़ जाती. अगर उस बच्चे की गलती न भी होती और वह अपने पक्ष में सफाई पेश करने में सफल भी हो जाता तो भी वे अपना पहला और अंतिम सवाल करते कि फिर नालिस क्यों नहीं की? शायद वे यह मानकर चलते थे कि नालिश न करना अपने आप में एक जुर्म है और इसीलिए उसकी सजा तो अवश्य ही मुक़र्रर होनी चाहिए.

वे स्वभाव से काफी सख्त, अनुशासनप्रिय व एक संयत इंसान थे. हम छात्रों के साथ कभी अवांछित नहीं बोलते. उनके बैठने की जगह के पास एक दराज वाला टेबल होता और बगैर हाथ की एक कुर्सी होती. उसी टेबल पर शिक्षकोपस्थिति व छात्रोपस्थिति पंजी रखी होती. उनके ठीक दाहिनी ओर दरवाजा होता जिसकी ओट में वे बार–बार खैनी की पीक दांतों के बीच से पिच आवाज के साथ फेंकते. थोड़े दिनों तक मैंने भी इस आदत का आज्ञा की तरह पालन किया था.

वे विद्यालय आते तो अपने साथ कपड़े का सिला एक झोला अवश्य लाते. आने में कभी विलम्ब कर देते या कोई शिक्षक ही उनसे पहले पहुँच चुके होते तो हम छात्रों में से कोई उनके घर जाता और ऑफिस की चाबी ले आता और उस कमरे को खोल बैठने आदि के लिए लकड़ी का तख्ता निकल लेते. पूरे विद्यालय परिसर में झाड़ू आदि लगाने का काम भी हमी छात्रों के जिम्मे था. प्रायः प्रत्येक शनिवार को छात्र बगल के घर से गोबर चुरा /उठा लाते और छात्राओं के जिम्मे फर्श लीपना होता. इन कार्यों की देखरेख का जिम्मा मुझ जैसे मोनिटरों को लेना होता.

सबसे नायाब था उनका पढने का तरीका. वे हमें हिंदी पढ़ाते. पाठ्य-पुस्तक की रीडिंग पर एकमात्र जोर होता. यानि हमलोग रोजाना ही उनकी घंटी में हिंदी की किताब निकालते और क्रमशः खड़े होकर बोलकर पढ़ते. बीच-बीच में वे शब्द के हिज्जे भी पूछते चलते. किताब पढ़ रहे छात्र से अगर किसी शब्द का सही-सही उच्चारण नहीं हो पाता था तो बगल (आगे-पीछे) के छात्र से पूछा जाता. अगल-बगल के छात्र भी जब सही उच्चारण कर पाने में असमर्थ साबित होते तो उनका फरमान जारी होता कि जिसे मालूम है वह उच्चारण करे. जो छात्र बता देता वह सबकी पीठ पर एक-एक मुक्का लगाता. मेरी भाषा अन्य छात्रों की तुलना में बेहतर थी इसलिए मुक्का लगाने का सुख ज्यादातर मुझे ही हासिल होता. याद नहीं कि उच्चारण-दोष की वजह से मुझे मार लगी हो. अलबत्ता मथुरा रजक से सम्बंधित एक घटना की याद अवश्य ही अबतक बनी हुई है. कहना न होगा कि उसकी हिंदी बहुत ही गड़बड थी. एक अनुच्छेद पढने में उसने बीसेक गलतियाँ की थीं और मैंने कुछ इतने ही मुक्के लगाये थे. जहाँतक याद है, वह बीमार हो गया था और कई दिनों तक विद्यालय नहीं आ सका था.

Monday, November 22, 2010

बुद्ध और बहनजी

इन्हीं दिनों राजेन्द्र प्रसाद नाम के एक शिक्षक आए जो हमें इतिहास पढ़ाते. जैसाकि उन दिनों हमलोगों को बताया गया, उनका घर पावापुरी था. इस बात की भी हल्की स्मृति अबतक बनी है कि उन्होंने इसका सम्बन्ध गौतम बुद्ध के जीवन से जोड़ा था. वे हमें बुद्ध से सम्बंधित कथा–कहानियाँ सुनाते. बाद के दिनों में वे हमारे ही गांव के एक व्यक्ति के यहाँ रहने भी लगे. बाहर से आनेवाले शिक्षक अक्सर गांव के किसी आदमी के यहाँ ही रहते. उनदिनों तो इस बात का कभी ख्याल नहीं आया लेकिन अब जाकर ध्यान देता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे शिक्षक अपनी ही जाति के ग्रामीण के यहाँ रहना पसंद करते थे. ऐसा संभव नहीं होने पर ही वे दूसरे विकल्प की तलाश करते या उसे स्वीकार करते होते. एक और शिक्षक थे जो बगल के गांव (मसौढी-पटना सड़क पर स्थित धनरुआ) से आते. वे सायकिल से आते इसलिए हमलोग उन्हें सायकिल वाला माट्सा कहते. शायद इसलिए भी कि सायकिल होना भी उन दिनों महत्व की बात रही होगी. जहां तक मुझे याद है, मैं चौथी–पांचवीं में पढ़ता होऊंगा कि मेरे फूफा के भाई सायकिल से आए थे और गांव के ही एक व्यक्ति के दरवाजे पर छोड़ आए थे. उसे लाने के लिए हम दो भाइयों को जब कहा गया तो तनिक प्रसन्न न हुए थे. ये और बात है कि उसे घर तक लाने में जो परेशानी और फजीहत का सामना करना पड़ा था उससे खुशी थोड़ी कम हो चली थी. उसी दिन जाकर यह ज्ञान हुआ कि अगर आप सायकिल चलाना नहीं जानते हैं तो उसे केवल साथ लिए चलना भी आसान काम नहीं होता. अब मैं तीसरी कक्षा में था जब स्कूली जीवन में थोड़ी हलचल महसूस की. स्कूल के वातावरण में यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल–फैला दी गई कि शीघ्र ही एक मास्टरनी साहब (साहिबा कहना तब शायद हमारे शिक्षक भी नहीं जानते होंगे. हालाँकि इसे बहुत भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता) हमलोगों को पढ़ाने हेतु आ रही हैं. बस अब क्या था बच्चों–शिक्षकों को चर्चा का स्थायी विषय हाथ लग गया. सच पूछिए तो मैं थोड़ा डरा–सा महसूस करने लगा था. औरतें भी शिक्षक हो सकती हैं यह मेरी कल्पना में अबतक बिल्कुल भी नहीं था. उनसे कैसे पढ़ा जाया जायेगा. कैसे बात की जायेगी–ऐसे तब के महत्वपूर्ण सवाल मेरे दिमाग में उठने लगे और कहूँ कि उस बदले माहौल के लिए साहस बटोरने का काम भी शुरू कर दिया था. मेरी इस समस्या को हमारे शिक्षकों ने आसान बनाया. उन्होंने कुछ आवश्यक ट्रेनिंग और हिदायतें हमें दीं. पहली हिदायत तो यही थी कि हमलोग उन्हें मास्टरनी साहब नहीं बल्कि बहनजी कहेंगे. हम सभी इसकी आवश्यक तैयारी में लग गये. लेकिन शिक्षक को बहनजी कहने की मनःस्थिति में होना हमारे लिए इतना आसान नहीं था. पितृसत्तात्मक समाज के मूल्यों से संचालित हमारा मन-मस्तिष्क बीच–बीच में अड़ जाता और मुँह से बहनजी की बजाय मास्टर साहब ही निकल आता. बहनजी कहते मैं झेंप भी महसूस करता. लेकिन धीरे–धीरे स्थिति सामान्य होती गई. हमलोगों ने इसे जितना हौवा बना लिया था या जितना मैं डरा हुआ था वैसी कोई बात नहीं हुई. इसमें शायद इस बात का भी योग हो कि वे मेरे ही ग्रामीण थीं और उनके परिवार का एक छात्र मेरा सहपाठी था. उनके आए कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन अचानक हमलोग पांच–छह बच्चों को उनके घर जाने हेतु चुना गया. हालाँकि चुनाव में शरीर और उसके वजन का खासा ख्याल रखा गया था फिर भी बात समझ में न आ सकी थी, घर जाकर ही हमलोगों को पाता चला कि ढेंकी चलाकर चूड़ा कूटना है. इसके लिए निश्चय ही अपेक्षाकृत भारी शरीरवाले बच्चों की जरूरत थी. हमलोगों ने मजे में इस काम को अंजाम दिया और वहीँ से सीधे घर चले आए. आज शायद शिक्षक बच्चों से अपना काम करना उतना आसान नहीं समझ सकते.

Saturday, November 20, 2010

पटनावाला माट्सा

दूसरी कक्षा में गया तो एक और शिक्षक से नाता जुड़ा. दरअसल वे नए–नए विद्यालय में आए थे. वैसे उनका नाम सूर्यदेव पासवान था लेकिन हम बच्चे उन्हें नयका माट्सा (मास्टर साहब का संक्षिप्त रूप) या पटनावाला माट्सा कहते. वे गहरे काले रंग के थे. लेकिन थे सफाई पसंद. उनके वस्त्र झक झक सफ़ेद होते. प्रायः प्रत्येक शनिवार को वे प्रार्थना से पहले पी.टी. की घंटी में प्रत्येक छात्र का बारीकी से अध्ययन करते. कौन स्नान करके आया है या नहीं इसकी पूरी खबर ली जाती. एक-एक बच्चे के नाख़ून देखे जाते कि वे कायदे से काटे गए हैं अथवा नहीं. जो पकड़ में जाते उनकी पिटाई तय थी. वे खुद भी अपनी सफाई का ध्यान रखते. उनके बाल कायदे से कटे हुए होते. कानों के आसपास के पके बाल अच्छे लगते. कभी कभी विद्यालय गमकउआ जरदा का पान खाये आते. उनके वास्ते हमलोग कभी मटर की फलियां तोड़कर लाते तो कभी चना-खेसारी का साग काटते. कभीकभी सत्तू की भी मांग भी रखते. पटना जैसे शहर में तब इन चीजों को और भी मूल्यवान समझा जाता रहा होगा. कोर्स की किताबों के साथसाथ वे हमें कहानियाँ भी सुनाते. अधिकतर कहानियां रामायणमहाभारत से होतीं. इन कहानियों को सुन मेरा मन रोमांचित हो उठता. त्याग और वीरता की कहानियाँ सुनते हुए ऐसे भाव सहज ही पैदा होने लगते. मेरे व्यक्तित्व को गढ़ने में निश्चय ही उनका और उनकी कहानियों का योगदान है. पटने में वे एक बार दूर से दिखे तो पहचान में नहीं रहे थे. बुढ़ापे की वजह से चेहरा बदल गया था और कपड़ों की वह चमक भी जाती रही थी. हाँ जब उनको याद करता हूँ तो एक और रूप ध्यान में आता है. वे कुछ दिनों तक विद्यालय धोती की जगह लुंगी में आया करते थे. उन दिनों तो इस विशिष्टता के बारे में सोंच नहीं पाया था लेकिन अब उसका अर्थ समझ में आता है. दरअसल उन्होंने परिवार नियोजन कराया था. इंदिरा गाँधी के शासन का यह अंधा दौर था जब बड़ी संख्या में लोगों का उनकी इच्छा के विरुद्ध बंध्याकरण कर दिया जाता था. थोड़ दिनों तक हम बच्चे भी अकेले निकलने में डर महसूस करते. इस अभियान की यह बुरी याद अबतक बनी हुई है.

Saturday, October 30, 2010

मेरे गुरुजन-याद बाकी है जिनकी

स्कूल में मेरा दाखिला कब और किन हालात में हुआ, मुझे कुछ भी याद नहीं। हां, इतना अवश्य याद है कि मेरे विद्यालय में कुल दो कमरे थे। एक कमरे में कार्यालय होता और तीसरी कक्षा के छात्र होते। तीसरी कक्षा हमारे तब के प्राथमिक विद्यालय की सबसे ऊंची कक्षा थी, शायद इसी वजह से इसके छात्रों को इसमें बैठने का अधिकारी समझा जाता रहा होगा। दूसरे कमरे में दूसरी जमात के विद्यार्थी बैठते। और बाकी के हम सब-यानी पहली जमात के बच्चे बरामदे पर होते। तब तो नहीं, लेकिन अब समझ में आता है कि ऐसी व्यवस्था छात्रों की हायरार्की को ध्यान में रखकर ही लागू की गई होगी। इसके अलावा दो अर्धनिर्मित कमरे और भी थे जिनका इस्तेमाल छात्राओं के पेशाबघर के रूप में होता। हम छोटे बच्चे इसे ‘ऑफ साइड’ (अपने मूल में शायद यह ‘आउटसाइड’ रहा होगा) कहते। किसी को भी अगर पेशाब करने जाने की अनुमति लेनी होती तो पूछता ‘क्या मैं ऑफ साइड जाऊं श्रीमान ?’

विद्यालय की दिनचर्या प्रार्थना की घंटी से होती। यह घंटी लगातार बजती जिसे हमलोग ‘टुनटुनिया’ कहते। पहली टुनटुनिया का मतलब होता कि हमलोगों को प्रार्थना के लिए तैयार हो जाना चाहिए। हम सब प्रार्थना करते लेकिन ध्यान कहीं और ही होता। प्रार्थना जैसे ही खत्म होती कि हम सारे ही बच्चे ऑफिस की तरफ दौड़ पड़ते और पटरा लूटने में लग जाते। हम बच्चे इसी पर बैठते। जिसके पास यह होता वह गौरवान्वित महसूस करता और जो इससे वंचित रह जाता वह उदास मन से अपना बोरा बिछाकर या वह भी नहीं रहने पर खालिस जमीन पर बैठता। तब कहीं जाकर पहली घंटी लगती और वर्ग में शिक्षक आते। कभी-कभी शिक्षकों के आने में देर हो जाती तो पूरी व्यवस्था क्लास के मॉनिटरों को देखनी पड़ती। ये मॉनिटर शिक्षक की अनुपस्थिति में पूरे के पूरे शिक्षक हो जाते। बच्चों के बीच उनका एक शिक्षक की ही तरह मान भी होता। कभी कोई अगर मॉनिटर की हुक्मउदूली की कोशिश करता तो काफी सख्त मार लगती।

जबतक मैं पहली कक्षा में रहा, एक ही शिक्षक से वास्ता रहा- और वे थे शिवन पाठक। वे मेरी बगल के गांव (मटौढ़ा) से आते थे। वे गोरे रंग के दुबले-पतले आदमी थे। उम्रदराज भी थे। उनके नकली दांतों की चमक आज भी मुझे हतप्रभ कर जाती है। वे विद्यालय भी पीतल की मूठवाली लाठी लेकर आते। उसी लाठी से हम सबके सिर पर ठक-ठक हमला करते। हम बच्चों ने इसीलिए उनका नाम ठुकरहवा मास्टर साहब या पंडिजी रख छोड़ा था। वे जाति से पंडित अर्थात् ब्राह्मण थे। वे लगभग पूरे ही दिन बरामदे पर घूम रहे होते और देखते जाते कि कोई चुप तो नहीं लगा रखी है। हमलोगों के जिम्मे एक से लेकर चालीस तक का पहाड़ा होता। इसे लगातार ऊंचे स्वर में बोलना पड़ता। आवाज में तनिक भी उतार-चढ़ाव वे बर्दाश्त न करते। आवाज मद्धिम पड़ी नहीं कि उनकी लाठी बगैर किसी पूर्व-सूचना के हमारे सिर से स्नेह दिखा रही होती। नतीजतन, चालीस तक का पहाड़ा हमलोगों की जुबान पर होता। टिफिन के बाद वाले समय में हमलोग आरोही-अवरोही क्रम में गिनती दुहराते। पहली बार में सीधा एक से सौ तक और फिर सौ से चलकर एक तक पहुंचते। ठीक जैसे लौटकर ‘बुद्धू घर को आये।’ लेकिन इसे बुद्धू नहीं, बल्कि बुद्धिमान बनने का एक आवश्यक उपक्रम की तरह समझा जाता। आज मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया नीरस और उबाउ भले थी, लेकिन थी बड़े ही काम की।

Saturday, September 25, 2010

यह ‘प्रतीक पारिश्रमिक’ का दौर है

साहित्य में एक नया दौर शुरू हुआ है। यह दौर पारिश्रमिक का नहीं, ‘प्रतीक पारिश्रमिक’ का है। हंस ने अक्तूबर 2003 के अंक में मेरा एक लेख प्रकाशित किया। लगा कुछ पैसे मिलेंगे। लेकिन पैसे की जगह एक पत्र आया। उसका मजमून कुछ इस तरह था-
 
भाई राजूरंजन जी,
नमस्कार,
‘हंस’ अक्तू. ‘03 अंक में प्रकाशित आपकी रचना का प्रतीक पारिश्रमिकहंस’ की वार्षिक सदस्यता में समायोजित किया जा रहा है। नवंबर ‘03 से अक्तू. ‘04 के लिए आपकी सदस्यता दर्ज की जा रही है। नवंबर 03 अंक 5. 11. 03 को भेजा जाना है-प्रतीक्षा करें।
सादर
वीना उनियाल

पत्र को पढ़कर अपने पड़ोस के उस दूकानदार   की याद आई जो अठन्नी न होने पर एक लेमनचूस पकड़ा देना चाहता और मैं उसे डांटता कि ‘साहब यह तो मेरी क्रयशक्ति नष्ट करने की बाजार की अंतर्राष्ट्रीय साजिश है।’ लेकिन हंस के मामले में क्या ऐसा ही सोचना उचित होता जबकि इसके साथ प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव के नाम जुड़े हों। लेकिन सवाल है कि मेरी रजामंदी के बगैर पारिश्रमिक को प्रतीक पारिश्रमिक में तब्दील कर देना क्या हंस के संपादक का जनतांत्रिक हक था ? क्या वे खुद हंस की कीमत ग्राहकों से प्रतीक रूप में स्वीकारेंगे ?  
       

Wednesday, September 15, 2010

लेकिन इसका पारिश्रमिक क्या होगा ?

सन् 2004 की बात है। मेरे मित्र डा. अशोक कुमार ने फोन पर सूचना दी कि आज शाम में दैनिक जागरण के प्रमोद कुमार सिंह से मिलने चलना है। प्रमोद जी हम दोनों ही के पुराने परिचित/मित्र हैं। हालांकि मुझे मिलने का प्रयोजन नहीं मालूम था फिर भी गया। प्रमोद जी ने हमलोगों को शशिकांत जी (प्रमोद जी के शशि भैया) से मिलवाया। उन्होंने अपनी योजना के बारे में हमें विस्तार से बताया। दरअसल बिहार के ऐतिहासिक स्थलों को लेकर वे एक स्तंभ प्रारंभ करना चाहते थे। बात बुरी नहीं थी। लेकिन बात करने की उनकी ‘उद्धारक शैली’ व अंदाज से चिढ़ हो आई। उनके कहने का भाव था कि वे एक ‘प्लेटफार्म’ प्रदान कर रहे हैं जिसके माध्यम से हम अपना ‘बाजार मूल्य’ सृजित कर सकते हैं। वे यह कहना भी न भूले कि ‘पहले जुड़िए, फिर देखिए हम आपके लिए क्या करते हैं!’ वे मुझे ‘आदमी’ बना देने का लोभ दिखा रहे थे। वैसे पैसों को लेकर एक उदासीन भाव ही रहा है मुझमें लेकिन शशि भैया की बातों ने मेरे अंदर ‘पारिश्रमिक’ की बात पैदा कर दी। अतएव मैंने पूछ ही लिया-‘लेकिन इसका पारिश्रमिक क्या होगा?’  यह कहना था कि ‘गगनविहारी’ (दरअसल पूरी बातचीत उन्होंने एक खास ऊंचाई से की।) शशि जी धड़ाम से धरती पर गिर पड़े। फिर भी पहलेवाली मुद्रा नहीं छोड़ी। उन्हीं बातों को दोहरा दिया। मैं भी कहां माननेवाला था। पारिश्रमिक की ‘टेक’ का फिर मैंने सहारा लिया। इस बार वे आग-बबूला थे। समझते देर न लगी कि लाख कोशिश करो यह इंसान ‘आदमी’ बनने से रहा। वे बोले, ‘आपको हजार-पांच सौ तो नहीं ही दे सकते न!’ मुझे ऐसी ही उम्मीद थी। मेरा भी जवाब तैयार था। मैंने कहा, ‘तो फिर सौ-पचास के लिए मैं ‘‘सिंदूर-टिकुली’’ पर नहीं लिख सकता ।’ दरअसल वे मुझे ‘नौसिखुआ’ की तरह ले रहे थे जबकि मैं इस ‘बोध’ से भरा था कि ‘अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में जितना लिख गया हूं उतना तो इस आदमी ने अब तक पढ़ा भी न होगा।’  एक बार फिर मैं ‘व्यावहारिक’  सवाल उठाकर ‘अव्यावहारिक’ हो गया।

चार वर्ष पुरानी बात अब जाकर रंग ला रही थी। संभवतः 2007 में श्रीकांत जी ने मुझसे किसी प्रोजेक्ट की चर्चा की। सन् 1857 से संबंधित कुछ विषयों पर लिखना था। इसके लिए पांच हजार रुपये मिलनेवाले थे। एक माह के अंदर मैंने बारी-बारी से सारी सामग्री श्रीकांत जी को दे दी। अंतिम किस्त दे चुकने के बाद श्रीकांत जी ने बताया कि सामग्री शशिकांत को शायद पसंद न आई। नतीजतन इस बार भी ‘पारिश्रमिक’  मुझे न दिया जा सका। अलबत्ता कुछ पूंजी भी घर से चली गई। दरअसल लिखने के क्रम में मैंने कुछ आवश्यक किताबों की खरीद कर ली थी। चार-पांच दिनों की स्कूल से छुट्टी भी ले रखी थी। कुल-मिलाकर ‘प्रोजेक्ट’ मुझ पर भारी पड़ गया। बुद्ध की तरह मुझे भी ‘ज्ञान’ मिला कि लेखक बनना अगर है तो पारिश्रमिक का सवाल नहीं उठाना है । वे लेखक भाग्यशाली लोग थे जो ‘मसिजीवी’  थे। वह दौर हिंदी साहित्य से कब का उठ गया!

Wednesday, September 8, 2010

और वक्ता ने अध्यक्ष को मंच पर चढ़ने न दिया

अलबत्ता आलोक धन्वा ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ ‘ऐतिहासिक’ तरीके से दी। वे इतिहास ‘लिखने’ की बजाय इतिहास ‘बनाने’ में यकीन रखते हैं। हुआ यह कि दिसंबर 2008 के पुस्तक मेले में मैं गया हुआ था। वहीं अरुण नारायण ने सूचना दी कि कल आलोक धन्वा का व्याख्यान रखा गया है। इसलिए अपने प्रिय कवि (कह दूं कि उनका गद्य भी मुझे ‘कविता की कोख’ से निकला मालूम पड़ता है।) को सुनने हाजिर हो गया। मैं इधर-उधर घूम ही रहा था कि अरुण नारायण से भेंट हो गई। उन्होंने कहा कि धन्वा जी वाली गोष्ठी की अध्यक्षता मुझे ही करनी है। मैंने इसे मजाक ही समझा। इसलिए मजाक ही में टाल भी दिया। मुझे मालूम था कि ‘साहित्य के जनतंत्र’ में यह असंभव है। व्यवस्थापक को शायद इसकी गंभीरता मालूम न थी। अतएव उद्घोषणा-कक्ष से इस बात की लगे हाथों घोषणा भी कर दी गई। इस पर मैने अरुण नारायण को मजाक ही सही लेकिन कहा था कि ऐसी कोई घोषणा न की जाये वरना सुन लेने पर आलोक जी अंदर आने की बजाय उल्टे पांव घर को हो लेंगे। अब मैं डरते-डरते ही सही, मानसिक रूप से अपने को तैयार करने लगा। यहां तक कि अध्यक्षीय भाषण के मजमून पर भी विचार करने लगा। अध्यक्ष के द्वारा काफी प्रतीक्षा कर चुकने के बाद अंततः आलोक जी आए। मुद्दत बाद उनको देख रहा था। लगा जिस बीमारी की अब तक बात करते रहे थे वह उनके चेहरे से अब वह झांकने लगी है। पहले वाला तेज नहीं रह गया था। उन्हें मंच पर बिठाया गया। अध्यक्षता के लिए मुझे भी मंच पर आमंत्रित किया गया किंतु मैं सहज ही अपनी जगह बैठा रह गया। हालांकि मुकुल जी ने, जो मेरी ही बगल में बैठे थे, मंच पर जाने के लिए प्रेरित भी किया। किंतु मैं इसे इतना सरल मामला नहीं समझ रहा था। मैं दरअसल आलोक जी की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहा था। मेरा नाम सुनना था कि वे असहज हो गये। उन्होंने कहा, ‘किसी ‘‘अतिरिक्त’’ तामझाम की जरूरत नहीं हैं। बगैर किसी औपचारिकता के मैं अपनी बात कहूंगा।’ कुछ तो आलोक धन्वा की बात सुनकर और कुछ उनके अप्रत्याशित नाटक से मंच-संचालक नर्वस हो गये और काफी कुछ आलोक धन्वा की तारीफ में कह गये। आलोक जी को यह ‘औपचारिकता’ रास आई। ‘मंगलाचरण’ के बाद आलोक जी ‘जनतांत्रिक मूल्य’ एवं ‘फासीवाद’ पर दो किस्तों में बोले। वे जब भी किसी तानाशाह का जिक्र करते तो मैं दो मिनट पहले का ‘हादसा’ याद करता और मुस्कुरा देता। मैं मन ही मन सोच रहा था कि आलोक जी ने अपने साथ मेरा भी इतिहास ‘रच’ डाला। इतिहास की शायद पहली ही घटना हो जब अध्यक्ष को वक्ता ने मंच पर चढ़ने ही न दिया हो।    

Monday, September 6, 2010

केवल जलती मशाल

इस सबके बीच मेरे दिमाग में कुछ ऐसी बातें भी थीं जो न तो कविता बन पा रही थीं और न कोई दूसरी ही शक्ल  अख्तियार कर रही थीं। उधेड़बुन के इन्हीं विकट क्षणों में मुझे संस्मरण का सहारा सूझा। इन संस्मरणों को मैंने डायरी की शक्ल  में टुकड़ों में लिखना शुरू  किया। वामपंथ की समस्याओं से टकराने के क्रम में मैं आलोक धन्वा तक जा पहुंचा। आलोक जी के साथ हुई पुरानी बातचीत मेरे सामने नाचने लगती थी। सच है कि मेरे दिमाग में यह संस्मरण बहुत पहले लिखा जा चुका था। इस बात की चर्चा अक्सर मैं अपने मित्रों से करता। कागज पर लिखने के बाद मैंने कुमार मुकुल को पढ़ाया और इसकी एक छायाप्रति ‘समकालीन कविता’ के संपादक विनय कुमार को दी। लेख पढ़कर विनय कुमार ने कहा कि ‘आलोक धन्वा को मैं एक ‘‘डाक्टर की नजर’’ से देखता हूं।’ एक डाक्टर (मनोचिकित्सक) के लिए ऐसा कहना सहज और स्वाभाविक था। लेकिन इस बात में अंतर्निहित खतरों ने मेरे कान खड़े कर दिए। मैंने कहा, ‘तब तो कविता-क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों को भी आप इसी डाक्टरी नजर से देखेंगे?’ मेरा आशय स्पष्ट था और डाक्टर साहब  (शायद इस विभूषण पर हिंदी जगत में नामवर जी का ही एकाधिकार काबिज है।)भी शायद इसी स्पष्टता के साथ मेरी बात समझ चुके थे। अब मैं ‘जन विकल्प’ के संपादक प्रेमकुमार मणि के पास गया। संयोग से वहां प्रमोद रंजन भी थे। इसलिए प्रथमतः उन्हें ही लेख दिखाया। वैसे उन्हें मालूम था कि आलोक धन्वा से संबंधित संस्मरण लिखनेवाला हूँ । अब वह प्रस्तुत था। प्रमोद रंजन ने छापने हेतु मणि जी से पैरवी (लेख की तारीफ में बोले) भी की। लेकिन मणि जी ने कहा कि ‘जन विकल्प’ चूंकि सामाजिक परिवर्तन की पत्रिका है, इसलिए उसमें संस्मरण छापना उचित न होगा। कुछ दिनों बाद अरुण नारायण उसकी एक कापी ले गये। लेख शायद श्रीकांत जी ने देख-पढ़ लिया और अरुण नारायण को हर हाल में न छापने की ‘सख्त हिदायत’ दे डाली। श्रीकांत जी का ख्याल है कि ‘संस्मरण जैसी चीजें बुढ़ापे में छपवानी चाहिए।’ ऐसी नेक सलाह वे मुझे अक्सर देते रहते हैं। लेकिन मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरी आखों के संबंध में डाक्टरों ने निराशा प्रदर्शित की है; इसलिए चाहकर भी ‘बुढ़ापे तक इंतजार’ की ‘राजनीति’ नहीं कर सकता। फिर ऐसे किसी ‘मूक समझौते’ की मैंने कोई ‘कीमत’ भी तो नहीं वसूली है।                            

आलोक धन्वा के बारे में जब क्रांति भट्ट का लेख छप चुका तो प्रमोद जी ने कहा कि ‘भट्ट की बातों को समझने में आपका लेख मददगार साबित होगा।’  और इस कारण से लेख छाप दिया गया। लेख के छपते ही भूचाल आ गया। दिल्ली के मित्रों ने खबर दी कि साहित्यकार लोग एक-दूसरे को जेरॉक्स कॉपी बांट रहे हैं। इतना ही नहीं, देश के कोने-कोने से फोन आने लगे। दिल्ली से कुछ ‘दुर्दांत’ साहित्यकारों व अपरिचित लोगों के फोन आये और आध-आध घंटे तक बातें करते रहे। मुझे खुशी भी होती और दुख भी होता। दुख था कि लोग मेरे लेखन को ‘व्यक्तिगत या व्यक्तित्त्व पर हमला’ की तरह ले रहे हैं। संस्मरण के बहाने मैंने ‘मूल्यों के क्षरण ’की बात कही थी। उसकी चिंता और बेचैनी कहीं नहीं दिखी। मदन कश्यप ने तो इसके लिखे जाने के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया जबकि कर्मेन्दु शिशिर ने धारावाहिक जारी रखने की सलाह दी। इस दौरान हिंदी लेखकों की जिस मानसिकता के दर्शन हुए उससे हिंदी पट्टी को ‘गोबर-पट्टी’  कहे जाने का मर्म समझ में आया। इस पूरे प्रसंग में रामसुजान अमर ‘केवल जलती मशाल’ लगे।

Thursday, September 2, 2010

लोक दायरा और लेखक

तभी अपने मित्रों के सहयोग से मैंने ‘लोक दायरा’ नाम से एक पत्रिका शुरू की। पत्रिका को नाम कुमार मुकुल ने दिया था। हमलोग साहित्यकार मित्रों को पत्रिका बांटते और जिनसे संभव होता सहयोग राशि भी लेते। प्रेमकुमार मणि अक्सर पत्रिका (कई प्रतियों में) खरीदते। साथ ही रचनात्मक सहयोग भी देते। अरुण कमल ने भी, जहां तक याद है, पत्रिका कीमत देकर ली थी। नवल जी ने ‘लोक दायरा’ के बदले में ‘जनपद’ पत्रिका एवं स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक ‘अंधेरे में ध्वनियों के बुलबुले’(स्मरण के आधार पर) भेंट की थी। अलबत्ता मदन कश्यप ने पत्रिका लेने से यह कहकर इनकार कर दिया कि ‘उनके यहां तो पहले से ही पड़ी पुरानी पत्रिकाओं तक के लिए जगह नहीं है।’ लोक दायरा जैसी ‘नयी’ (और शायद अमहत्त्वपूर्ण भी) पत्रिका के लिए बेचारे कहां से जगह निकाल पाते! हां, कुछ दिनों बाद मुकुल जी को कहा कि ‘पांच सौ रुपये प्रति अंक व्यय करने को अगर तैयार हों  तो पत्रिका संपादित कर दे सकता हूं।’ कहना होगा कि पांच अंकों तक पत्रिका अवैतनिक संपादक के भरोसे ही रही। अफसोस कि मदन कश्यप को ‘लोक दायरा’ पत्रिका ‘संपादक’ की ‘नौकरी’ न दे सकी।

Tuesday, August 31, 2010

आलोचक का भूत

मदन कश्यप
‘समन्वय’(पटना की युवा संस्था जो अब मृतप्राय है ) के निर्माण के दिनों में ही ‘उस देश  की कथा’ के कवि पंकज कुमार चौधरी से कुमार मुकुल की शिरकत से परिचय हुआ था। पंकज जी ने अपनी ताजा प्रकाशित रचना पढ़ने हेतु मुझे भेंट भी की थी। मित्र की किताब मैंने चाव से पढ़ी और अपनी आदत के विपरीत, एक तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में लगभग सात पृष्ठों की समीक्षा भी लिख डाली। हालांकि प्रतिक्रिया कुछ तीखी हो चली थी। ‘समन्वय’ में एक छोटी-सी गोष्ठी आयोजित हुई जिसमें मैंने इसका कवि की मौजूदगी में पाठ भी किया। यहां यह कहना आवश्यक-सा लग रहा है कि इस लेख का वाचन सुनते हुए पंकज जी कभी असहज नहीं हुए। (बाद में भी कभी इसका ‘कुप्रभाव’ न दिखा। उनके इस व्यवहार से मैं काफी प्रभावित हूं।)  इसके काफी दिनों बाद जब डा. विनय कुमारसमकालीन कविता’ का पहला अंक निकाल चुके तो इस लेख की फोटो कापी मैंने उन्हें पढ़ाई। लेख ‘आक्रामक’ होने के बावजूद उन्हें पसंद आया। कुछ दिनों बाद जब उनसे संपर्क साधा तो वे बोले, ‘लेकिन मैं इसे प्रकाशित नहीं कर सकता।’ मेरे ‘क्यों ?’ के जवाब में उन्होंने कहा कि ‘अव्वल तो इसमें खगेन्द्र ठाकुर की आलोचना है, और फिर मदन कश्यप को यह पसंद नहीं है कि एक ‘नये कवि’ को सात-सात पृष्ठों में छापा जाये।मदन जी को शायद कवि से ज्यादा ‘आलोचक का भूत’ सता रहा था। रही बात खगेन्द्र जी की, तो जहां तक मैंने समझा है, अपनी आलोचना को वे अतिरिक्त महत्त्व नहीं देते।

Monday, August 30, 2010

और वह सड़क समझौता बन गयी

अनिल विभाकर
उन्हीं दिनों नवल जी की पुस्तक ‘कविता की मुक्ति’ हाथ लगी। उससे पहले ‘हिन्दी आलोचना का विकास’ पढ़ चुका था। ‘कविता की मुक्ति’ पढ़ते-पढ़ते धूमिल पर लिखने की मेरी इच्छा हुई। मैंने एक लेख लिखा भी। हाल ही में  परिचित बने युवा आलोचक भृगुनन्दन त्रिपाठी ने उसे माँगकर देखा। कहना होगा कि भृगुनन्दन त्रिपाठी नये लड़कों को तरजीह देते थे अथवा यों कहें कि उनके लिए वे सुलभ बने रहने की भरसक कोशिश करते थे। पटने की साहित्यिक संस्कृति में तब नवल जी का ‘विरोधी’ होना भी ध्यानाकर्षण का कारण होता था। खैर, त्रिपाठी जी ने मेरा लेख पढ़कर कहा, ‘राजू जी, आपका लेख पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है मानो नेमिचन्द्र जैन को पढ़ रहा हूँ।’ मेरे पल्ले बात कुछ पड़ी नहीं क्योंकि एक तो नेमिचन्द्र को मैंने पढ़ा नहीं था और दूसरे मेरे दिमाग में उनकी छवि नाटक की दुनिया के एक आदमी की बन चुकी थी। फिर भी मैं अपनी तुलना नेमिचन्द्र जैन से होते देखकर फूले न समा रहा था। त्रिपाठी जी एवं कर्मेन्दु शिशिर (तब दोनों में काफी आत्मीयता थी। रहते भी आस-पास ही थे।) दोनों ही ने मेरे इस लेख को ‘साक्षात्कार’  में छपवाने की बात कही। इसी बीच ‘साक्षात्कार’ के संपादक हरि भटनागर किसी सिलसिले में पटना आये और उनका कहानी-पाठ भी आयोजित हुआ। शायद भीड़-भाड़ या किसी और सम्भव कारण से मेरा यह लेख भटनागर जी को देना सम्भव न हो सका। कई दिनों के बाद जब मैंने फिर चर्चा की तो त्रिपाठी जी ने कहा, ‘राजू जी, दरअसल उस लेख में इतिहास प्रधान हो गया है और साहित्य गवाक्ष होकर रह गया है ।’ मुझ जैसे इतिहास के विद्यार्थी पर साहित्य का ‘गवाक्ष’ भारी पड़ गया और उसके बाद से मैं अपने ही राजमार्ग पर निर्भय हो चलने लगा।

धूमिल वाले लेख को लेकर मैं दैनिक हिन्दुस्तान के दफ्तर पहुंचा । हिन्दुस्तान  में साहित्य का एक पेज निकलता था जिसका संपादन अनिल विभाकर करते थे। वे मेरा लेख देखकर थोड़ा मुस्कराए और बोले ‘इन लोगों को जहां जाना था वहां पहुंच चुके। अब लिखने से क्या होगा।’ मुझे यह बात समझ में न आई। कई बार उन्हें अपने लेख की याद दिलाई लकिन अपने इरादे से हिल न रहे थे। इनकी कही बात का गूढ़ार्थ अब जाकर कुछ-कुछ खुलने लगा था। मुझे एक तरकीब सूझी। उसका इस्तेमाल करने में कोई दोश न दिखा। दरअसल मेरे पास रेडियो से समीक्षा हेतु प्रदत्त पुस्तक ‘शहर से गुजरते हुए’ पड़ी थी। उस संग्रह में उनकी भी एक कविता थी। एक दिन मैंने चर्चा के दौरान कहा कि बहरहाल ‘शहर से गुजरते हुए’ की समीक्षा रेडियो के लिए लिख रहा हूं। उसमें आपकी भी एक कविता है। बडी ही निर्दोष कविता है, अच्छी है। फिर क्या था। उनका दिल कविता की उष्मा से हिमनद की तरह पिघलने लगा। अपने खास अंदाज में बिहंसते हुए बोले, ‘आपका लेख ब्रोमाइड करके काफी दिनों से रखा हुआ है। इस हफ्ते निकल जायेगा।’ वाकई अब लेख प्रकाशित था। शीर्षक था ‘और वह सड़क समझौता बन गयी’ (प्रकाशन तिथिः 8 नवंबर’ 93)।


Saturday, August 28, 2010

अखबार में यह सब चलता है

जनशक्ति के बाद हिन्दुस्तान का दौर आरंभ होता है। दरअसल उन दिनों मैं सुलभ जी के नियमित संपर्क में बना रहता था। एक दिन उन्होंने हिन्दुस्तान के नागेन्द्र जी से मिलाया। वे स्वभाव से उदार और मिलनसार थे। नागेन्द्र मुझसे सांस्कृतिक घटनाओं की रिपोर्टिंग कराने लगे। मुझे भी अच्छा लगने लगा। गोष्ठियों में तो जाया ही करता था अब उसकी रिपोर्टिंग कर देने से कुछ पैसे भी मिलने लगे थे। एक छात्र को इससे ज्यादा भला और क्या चाहिए था ! मैं काफी खुश था। इन्हीं दिनों प्रगतिशील लेखक संघ, पटना ने एक गोष्ठी आयोजित की जिसका विषय था ‘मार्क्सवादी इतिहास लेखन के अतिरेक।’ इसके मुख्य वक्ता रामशरण शर्मा थे। अपूर्वानंद के आग्रह पर मेरे बड़े भाई अखिलेश कुमार ने भी अपने विचार रखे। और फिर मुझे भी कुछ कुछ बोलने का मौका मिला था। कुल मिलाकर इस गोष्ठी में तीन ही वक्ता थे। मैंने जो रिपोर्टिंग की थी या जो छपी उसमें उक्त तीनों नाम थे। इस रपट से नवल जी खासे नाराज हुए थे। उन्होंने मुझ पर भाई-भतीजावाद करने का आरोप भी लगाया था। सफाई में मैंने नवल जी को इतना ही कहा था कि ‘मैंने तथ्य की रिपोर्टिंग की है। तीन वक्ता थे और तीनों के नाम दर्ज हैं, इसलिए कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है।’ वे मुझसे असंतुष्ट थे ही इसलिए हिन्दुस्तान के संपादक को मेरी भर्त्सना (लगभग गाली) करते हुए पत्र लिख डाला। उक्त पत्र को दिखाते हुए नागेन्द्र ने कहा था -‘देखो, बिहार में कैसे-कैसे लोग (हालाँकि उन्होंने अपशब्द का प्रयोग किया था) होते हैं।’ मैं बेहद शर्मिंदा था।

सम्भवतः इसी साल अर्थात् सन् 91 में आकाशवाणी, पटना की तरफ से एक काव्य-संध्या आयोजित की गई थी जिसमें केदारनाथ सिंह समेत देश के कोने-कोने से हिन्दी के कवि पधारे थे। चूँकि साहित्य, और विशेषकर कविता से मेरा खास अनुराग (कभी-कभी डा. विजय कुमार ठाकुर मेरे साहित्य-प्रेम को देखते हुए हिन्दी, एम. ए. मे दाखिला ले लेने तक की बात तक कह डालते थे। वे अक्सर कहते कि तुम बेकार इतिहास में आ गये हो, तुम्हें तो हिन्दी विभाग में होना चाहिए था।) था, इसलिए इसकी रिपोर्टिंग के लिए मैंने विशेष तैयारी कर रखी थी। साथ ही यह भी अनुमान लगा रहा था कि यह ‘पीस’ कई कॉलमों में छपेगा और इसके अच्छे पैसे बनेंगे। मैंने अपनी तरफ से कोई कमी न छोड़ी थी। किन्तु जब छपने की बारी आयी तो नागेन्द्र जी ने बताया कि सम्पादक का उन पर दबाव है कि उक्त काव्य-गोष्ठी की रिपोर्टिंग वे खुद करें। इसलिए सम्भवतः नौकरी के दबाव में रिपोर्टिंग उन्हें अपने नाम करनी पड़ी। हालाँकि उन्होंने कह रखा था कि ‘राजू , बुरा मत मानना, अखबार में यह सब चलता है।’ अलबत्ता, मुझे मेरे नाम से न छपने के साथ-साथ पैसे न मिलने का भी दुःख था। यह सच है कि हिन्दुस्तान में रिपोर्टिंग मैंने पैसे को ध्यान में रखकर ही शुरू की थी। पत्रकारिता के ‘ग्लैमर’ को लेकर मैंने जो कुछ सोचना शुरू किया था उसको एक झटका लगा। इस घटना के बाद मुझे लगने लगा कि लिखने-पढ़नेवाले लोगों के लिए कम से कम अखबार की नौकरी से परहेज करना चाहिए।

Tuesday, August 24, 2010

और नवल जी ने लिखना बंद कर दिया

रामशरण शर्मा
इस घटना के कुछ दिनों बाद मैं अमरेन्दु जीदीपक कुमार गुप्ता (तब वे भी हिन्दी, एम. ए. के छात्र थे) के साथ दरभंगा हाउस गया। वे दोनों  तो अपने वर्ग में चले गये। मैं वहीं सायकिल स्टैंड में बैठा राजेन्द्र जी (सायकिल स्टैंड के कर्मचारी) से बातें  करता हुआ इंतजार करने लगा। एक-आध घंटे बाद वे दोनों आए और मुझसे कहने लगे, ‘यहाँ अकेले बैठे क्या कीजिएगा। नवल जी का ‘‘निराला स्पेशल’’ है इसलिए चलिए आप भी वहीं बैठिएगा।’ मैंने कहा, मुझ ‘बाहरी ’ आदमी को कहाँ ले जाइएगा, नवल जी को अच्छा नहीं लगेगा। वैसे नवल जी से मैं पहले कभी व्यक्तिगत रूप से मिला न था लेकिन मेरा उनके बारे में अब तक का ‘संचित ज्ञान’ था कि वे गुस्सैल हैं और बातचीत में अक्सर उग्र हो जाया करते हैं। शायद हंस कुमार पाण्डेय से कभी सुन रखा था कि ‘नयी पीढ़ी’  पत्रिका के नरेन्द्र से बात करते हुए वे काफी उत्तेजित हो गये थे। इसलिए मैं जाने से परहेज कर रहा था। अंततः मै गया। वर्ग में नवल जी आए। ‘निराला स्पेशल’ में तीन ही छात्र थे, इसलिए मुझ चौथे को ‘ट्रेस’ अथवा ‘लोकेट’ करते उन्हें तनिक देर न लगी। उन्होंने  बैठते ही शक की निगाहों से मुझे देखा और पूछा ‘ये महाशय कौन हैं ?’ अमरेन्दु जी ने बताया कि आप राजू रंजन प्रसाद हैं और इतिहास, एम. ए. में दाखिला लेनेवाले हैं। लिखने-पढ़ने में भी रुचि है और फिलहाल आपको सुनने आए हैं। मेरा नाम सुनना था कि उनके रंग-तेवर बदल गये। लगा जैसे कोई अशुभ सपना देख लिया हो! उनका धैर्य टूट चुका था। बोले, ‘आपही ने जनशक्ति में लेख लिखा है ?’ मैंने ‘जी हाँ’ कहा। फिर क्या था। वे टेपरिकार्डर की तरह चालू हो गये-‘मैंने तो समझा था कि आप कोई बुजुर्ग होंगे लेकिन आपको तो अभी कलम पकड़ने तक की भी तमीज नहीं है। टोह लेते हुए बोले, ‘आप यहाँ किन-किन लोगों से मिलते-जुलते हैं ? खगेन्द्र ठाकुर को जानते हैं आप ?’ ‘केवल नाम से जानता हूँ। व्यक्तिगत रूप से मिला नहीं हूं’-मैंने कहा। ‘क्या आप एम. एल. (माले) में हैं ?’ ‘नहीं तो’ मेरा स्पष्ट जवाब था। कोई सुराग न मिलने पर उन्होंने पुनः पूछा ‘तो फिर आप किसके साथ उठते-बैठते, मिलते-जुलते हैं ?’ उत्तर में मैंने रामशरण शर्मा का नाम लिया था। सही है कि उन दिनों मैं उनके पास आया-जाया करता था। कई बार अमरेन्दु जी भी साथ होते। उन दिनों की शर्मा जी के साथ हमलोगों की तीन-चार तस्वीरें भी हैं। जनशक्ति में मेरे उक्त लेख का यह असर भी हुआ कि नवल जी ने उसमें लिखना बंद कर दिया। शायद हमेशा के लिए।

Friday, August 20, 2010

वातायन पर दस्तक

नंदकिशोर नवल
जनशक्ति से जुड़े एक प्रसंग का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। बात सन् 89 की है। नंदकिशोर नवल उन दिनों इस अखबार में नियमित लिख रहे थे। संभवतः साहित्य पृष्ठ पर ‘वातायन’ कालम में। नवल जी को मैं आदर के साथ पढ़ता था। शायद उससे पहले ही कम्युनिस्ट पत्रिका में मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र (हू-ब-हू शीर्षक याद नहीं) पर छपा उनका लेख पढ़ चुका था और मैं उसकी गिरफ्त में था। घटना यह है कि हंस में गिरिराज किशोर की एक छोटी-सी टिप्पणी प्रकाशित हुई थी ‘प्रेमचंद की तरह लिखना आसान है जैनेन्द्र की तरह मुश्किल’। इसे पढ़कर मैं तिलमिला गया था। यह नहीं कि जैनेन्द्र को मैं छोटा लेखक मानता था, बल्कि प्रेमचंद के संदर्भ में कही गई बात मेरे मार्क्सवादी दिल (कुछ मित्र ‘मार्क्सवाद  में दिल’! पर कानाफूसी करेंगे) को लग गई। इसी समय नवल जी एवं अपूर्वानंद का लेख जनशक्ति में छपा। मजेदार बात यह थी कि नवल जी का लेख ऊपर के आधे हिस्से में छपा था और नीचे के बाकी बचे हिस्से में अपूर्वानंद द्वारा अनूदित रूसी कवियों की कविताएँ थीं। उन दिनों हिन्दी, एम. ए. में पढ़ रहे अमरेन्द्र कुमार मेरे साथ रहते थे। मैंने कहा, ‘अमरेन्दु जी (निकट से जाननेवाले लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते थे) हिन्दी साहित्य में तो एक नये टॉपिक की शुरुआत हो गई-‘ससुर-जामाता प्रसंग।’ यह स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं है। इसका विरोध होना चाहिए। उन्होंने पूछा, ‘लेकिन  कैसे ?’ ‘ऐसा कीजिए कि हम दोनों ही लेख लिखते हैं और उसे ठीक इसी तरह ऊपर-नीचे छपाया जायेगा’-मैंने कहा। पहले-तो उन्होंने साफ इनकार किया। लिखने ही को राजी न हुए। बोले, ‘दोनों मेरे शिक्षक हैं (अपूर्वानंद उन दिनों हिन्दी विभाग में जे. आर. एफ. थे; अतएव पढ़ाया भी करते थे), रोज कक्षा में देखा-देखी (टोका-टोकी) होगी, इसलिए कुछ ठीक नहीं लगता।’ मैंने प्रतिबद्धता और ईमानदारी की प्रत्यंचा चढ़ाई। कहा-‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे ?’ लेकिन टस से मस न हुए। फिर मैंने कहा, ‘अच्छा ऐसा कीजिए कि आप कोई बिल्कुल ही ‘अहिंसक’ प्रकृति का लेख लिख डालिए। बाकी मैं देख लूँगा।’ अब मामला तय हो चुका था। हम दोनों  सड़क पर आये। मुझे सिगरेट की लत थी। अमरेन्दु जी ने ‘गुलाब छाप’ गुल का डिब्बा लिया। कमरे में आकर दोनों शांतचित्त  एवं दत्तचित्त  हो हाथ में कलम पकड़ बैठ गये। चेहरे पर जो तनाव था वह बता रहा था कि हमलोग ‘शत्रु-दल’ के व्यूह में प्रवेश कर चुके हैं। लगभग आध घंटे के परिश्रम से मैंने लेख तैयार कर डाला। शीर्षक लगाया-‘आलोचना की राजनीति’ (प्रकाशन तिथि: 25 फरवरी, 1989)। और काफी गुल फाँक  चुकने के बाद अमरेन्दु जी ने लिखा ‘सूनी बावड़ी में लाल कन्हेर फूलों की महक।’ दोनों ही लेख मैंने इन्द्रकांत मिश्र को थमा दिये। साहित्य के अगले अंक में ठीक वैसे ही ऊपर-नीचे हम दोनों  ही के लेख छपे। अलबत्ता ‘वातायन’ कॉलम की जगह छपा ‘वातायन पर दस्तक’। इस हालत में लेख छपा पाकर मैं रोमांचित हो उठा। ‘साहित्य के मठ’ पर यह मेरा पहला ‘हमला’ था ।

Monday, August 16, 2010

कुत्ता बनना, पत्रकार न बनना

मणिकांत ठाकुर
दरअसल लिखने और छपने की मेरी लालसा बड़ी पुरानी (आदिम) रही है। जब मैं नौवीं कक्षा में था तो इतिहास की एन.सी. ई. आर. टी. पुस्तक सभ्यता की कहानी पढ़कर ‘पूँजीवाद का अवश्यंभावी पतन’ शीर्षक से एक लेख लिखा और अपने गाँव में एक पड़ोसी से उसे टंकित कराया। उस टंकित रूप ने मुझे जो सुख प्रदान किया वह आज तक अभूतपूर्व लगता है। इस लालसा को हवा तब लगी जब मैं कॉलेज में दाखिल हुआ। शुरुआती मित्रों में चन्द्रसेन था जिसकी लिखने-छपने में अभिरुचि थी और फिर सियाराम शर्मा थे जिनकी कविताएँ हमलोग रेडियो पर साथ-साथ सुनते थे। लालसा अब रोग बनने जा रही थी। तब पाटलिपुत्र टाइम्स में चन्द्रसेन की राजेन्द्र यादव के शीर्षक की नकल में ‘टुकड़े-टुकड़े ताजमहल’ कहानी छपी। मैं भी इतिहास से संबंधित किसी विषय पर एक लेख लिखकर संपादक से जा मिला। उन्होंने कहा, ‘यह प्रकाशन के स्तर का नहीं है।’ मैंने पूछा, ‘आपका क्या मतलब ?’ ‘अखबार के लायक बनाइए’, उन्होंने  सलाह दी। निराला की मुद्रा धारण कर मैं लौट आया। जहाँ तक याद है, पाटलिपुत्र टाइम्स के संपादकीय विभाग में मणिकांत  ठाकुर थे। यह जानकारी उन्हीं दिनों चन्द्रसेन ने दी थी।

अब मैं विद्युत बोर्ड कॉलोनी, शास्त्रीनगर में रहने लगा था। मित्र शैलेन्द्र ने मुझे बताया कि आत्मकथा एक ऐसा निर्भीक अखबार है जो मेरी चीजों को छाप सकता है। लेख मेरे पास थे ही इसलिए संपादक से मिलने में मैंने कोई देर न की। इस अखबार ने या कि संपादक ने अपनी ‘निर्भीकता’ साबित की और ‘साहित्य और उसका चरित्र’, ‘प्रेमचंद और उनका प्रगतिशील साहित्य’ ‘सेवासदन और नारी स्वाधीनता’ जैसे मेरे कई लेख प्रकाशित किये। इसके संपादक  रामविलास झा थे। हाँ, इतना याद है कि लेख छपने पर मैंने साथ रह रहे छोटे-बड़े भाइयों के बीच टॉफियाँ बाँटी थी। आत्मकथा अखबार स्टॉलों पर कहीं दीखता न था इसलिए इसे प्राप्त करने के लिए मैं अखबार के हॉकरों की तरह सुबह-सुबह उठता और सायकिल लिए प्रेस पहुँच जाता। आत्मकथा में छपे सारे लेख मेरी फाइल में आज भी सुरक्षित हैं।

सन् 87 की बात है जब मैं जनशक्ति में लिखने-छपने की योजना बनाने लगा। वहाँ इन्द्रकांत मिश्र थे। मैं उन्हें पसंद आ गया और मुझे बेहिचक हू-ब-हू छापने लगे। यहाँ तक कि शीर्षक बदलने के ‘मौलिक अधिकार’ तक का भी वे इस्तेमाल न करते। मुझे छापते और कहते-‘तुम आग लिखते हो’। वे छापते गये क्योंकि संपादक से अधिक एक ‘विद्रोही व्यक्ति’ हो गये थे। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (पार्टी के अंदर के कुछ लोग मजाक में इसे ‘सर्कुलर पार्टी ऑफ इंडिया’ कहने लगे हैं। देखें प्रकाश लुइस की नक्सलाइट मुवमेंट पर छपी किताब ‘द नक्सलाइट मुवमेंट इन सेंट्रल बिहार,’  पृष्ठ 141, पाद टिप्पणी संख्या 32) में निष्ठापूर्वक काम करते हुए निजी जीवन में उन्होंने जो ‘असफलता’ हासिल की थी, उससे उनके तेवर बदल गये थे। एक पत्रकार होते हुए भी मुझे पत्रकार न बनने की सलाह (हिदायत कहिए) देते। कहते-‘राजू, किसी का कुत्ता बनना पत्रकार न बनना ।’ मैं जानता था, दर्द के सागर में हैं वे।

Tuesday, August 10, 2010

शब्दों की दुनिया में

राजेंद्र यादव
पंकज बिष्ट


अपने संस्मरण का यह टुकड़ा मैंने प्रकाशनार्थ पटना में जनशक्ति (सी. पी. आई. का साप्ताहिक मुखपत्र) के उपेन्द्रनाथ मिश्र और दिल्ली में ‘साखी’ के प्रेम भारद्वाज को दिया। दोनों ही ने अपने-अपने कारणों से इसे प्रकाशित करना मुनासिब नहीं समझा। मिश्र जी ने तो चालाकी भरी चुप्पी साध ली। किंतु भारद्वाज जी ने कहा कि आलोक धन्वा वाले प्रसंग को मैं हटा लूं। ऐसा करना मेरे लिए लगभग असंभव है, अतएव मैं पूरा पाठ यहां किस्तों में प्रस्तुत कर रहा हूं। फिलहाल इसकी पहली किस्त पढ़ें।  

कउन बात अइसन अँतड़ी में...

लगभग बीस साल पहले (शायद सन् 91) मैंने पंकज बिष्ट का उपन्यास लेकिन दरवाजा पढ़ा था; बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि इस उपन्यास से मैंने पंकज बिष्ट को जाना। आज उस पूरे उपन्यास में से इतना भर याद रह गया है कि एक ‘नवोदित’ रचनाकार ‘कपिल’ का लेख पत्र-पत्रिकाओं में नहीं छपता तो मित्रों की सलाह अथवा स्वयं की बुद्धि से (यह भी याद नहीं) लिंग परिवर्तन कर अपना नाम ‘कपिला’ कर लेता है तो न सिर्फ उसका लेख ‘छपने लायक’ या ‘स्तरीय’ हो जाता है बल्कि पत्रों के माध्यम से संपादक उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने की ‘अंतिम इच्छा’ भी प्रकट करते हैं। ठीक जैसे कई दिग्गज और धाकड़ साहित्यकारों (संपादक राजेन्द्र यादव समेत) ने स्नोवा बार्नो के प्रसंग में रुचि एवं तत्परता दिखाई। (प्रसंगवश, मुझे गुजराती भाषा के कथाकार पीताम्बर पटेल की कहानी ‘आत्मा का सौंदर्य’ याद आ रही है जिसमें पूर्णिमा पत्रिका का संपादक नरेन्द्र शर्मा, कवयित्री श्रीलेखा के काव्य एवं देह-सौंदर्य के ‘प्रशंसक’ व ‘उपासक’ बन चुके हैं और ‘व्यक्तिगत रूप से मिलने’ या कि ‘उसके घर ठहरने’ की अदम्य ‘लालसा’ प्रकट करते हैं। लेकिन मिलते ही कवयित्री की ‘कुरूपता’ की वजह से उनकी सौंदर्योपासक चेतना काफूर हो जाती है)। लेकिन दरवाजा का वह प्रसंग अगर आज भी याद है तो उसका श्रेय ‘साहित्य की राजनीति’ को है न कि मेरी बौद्धिक क्षमता का तकाजा है यह। वैसे देश और समाज में, जहाँ साहित्यकार ‘न लिख पाने का संकट’ से परेशान थे और लगातार गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे थे, मैं ‘न छपने का संकट’ से जूझ रहा था। (यह समस्या कमोबेश आज भी बरकरार है। ये तो मित्र लोग हैं जो यदा कदा छापते रहते हैं। मैं आभारी हूँ  कुमार मुकुल, मधुकर सिंह एवं प्रेमकुमार मणि का जो आग्रह कर मुझसे लिखवाते हैं। मैं आभारी हूं सुलभ जी का जिन्होंने कभी काट-छांट नहीं की।) कभी मैंने राजेन्द्र यादव जी को हंस के लिए, यह ध्यान में रखते हुए, कि प्रेमचंद कभी इसके संस्थापक रहे थे, ‘प्रेमचंद: सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद’ (यह लेख लगभग दस साल बाद रामसुजान अमर के सदुद्योग से सहमत मुक्तनाद के प्रेमचंद विशेषांक में छपा।) शीर्षक से एक लेख भेजा था। आश्वस्त था कि छपना ही छपना है, लेकिन जवाब आया कि ‘लेख अच्छा है, लेकिन फिलहाल उपयोग सम्भव नहीं है।’  एक धक्का-सा लगा और गुस्सा भी आया कि ‘साहब! अगर लेख अच्छा है तो न छापना कौन-सी अक्लमंदी का काम हुआ? ’ निराला याद आए। आसंपादकों  के बारे में उनके अनुभव काम आये। मगही के गीतकार मथुराप्रसाद नवीन याद आए-‘कउन बात अइसन अँतड़ी में दाँत कहे में कोथा, कि कवि जी कलम हो गेलो भोथा’।

Sunday, August 8, 2010

‘म’ से मनोज यानी मार्क्सवाद!

मनोज कुमार झा


मेरे एक मित्र थे-राजेन्द्र जी। वे वामपंथी झुकाव वाले व्यक्ति थे। सरल एवं सहज। उनसे मेरी बातचीत होती और मैं मार्क्सवाद की वकालत करता तो कहते-‘आपकी ही तरह बात करनेवाले एक मनोज कुमार झा हैं जिनसे आपको मिलना चाहिए। वे पढ़ने-लिखनेवाले आदमी हैं।’ मैंने मुकुल जी से भी इस बात की चर्चा की। वैसे मुकुल जी को और भी किसी स्रोत से पता चला। चूंकि मनोज जी हमलोगों के पड़ोस में ही रहते थे, इसलिए एक दिन उनके आवास पर खोजने पहुंच गये। उनसे मुलाकात तो नहीं हो सकी लेकिन ठिकाने का अंदाजा हो गया और अब कभी भी मिला जा सकता था। लेकिन मुकुल जी को भला चैन कहां! मेरी अनुपस्थिति में ही एक-आध बैठक जमा चुके थे।

मनोज जी से मेरा परिचय बढ़ा और हमलोग परस्पर एक-दूसरे के यहां आने-जाने लगे। मेरे घर के बच्चे उन्हें ‘मार्क्स बाबा’ कहते। मैं भी अपने घर में उन्हें इसी नाम से पुकारता। वे आते तो तरह-तरह की बातें होतीं। उनकी नई-नई शादी हुई थी। उसकी सी. डी. दिखाई। प्रेम-विवाह था शायद। शायद इसलिए कि जिस तरीके से वे अपनी शादी की चर्चा करते उसमें ’प्रेम’ से ज्यादा ‘विचार’ पर जोर होता। अतएव मैं इसे ‘वैचारिक विवाह’ कहता। शादी से पहले वे दोनों मार्क्सवाद जैसे अनेक गंभीर विषयों पर अनेक बहसें निबटा चुके थे। हालांकि जब मैं उनकी पत्नी से मिला तो किसी ‘विचार-परिपक्व’ आदमी की गंध नहीं मिली। वैसे वे इस तथ्यहीन बात का प्रचार अवश्य करतीं कि ‘मैं उन्हें अपनी कविताएं सुनाया करता हूं।’ इस ‘प्रचार’ की जानकारी मुझे मनोज जी के एक आत्मीय मित्र ने दी।

मनोज जी खूब पढ़ते और खूब बोलते। इन बातों में सर्वहारा वर्ग की चिंता मुख्य रूप से शामिल रहती। बातचीत से लगा कि वे एक स्पष्ट समझवाले इंसान हैं लेकिन ‘आत्मरति’ के शिकार। और सामनेवाले व्यक्ति का मूल्यांकन करने में मार्क्सवादी कट्टरता से काम लेते हैं। कालक्रम से मैंने पाया कि उनके कुछ मित्र उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखते। राम प्रवेश जी तो उनका नाम तक नहीं सुनना चाहते। वैसे राम प्रवेश जी को मैंने आज तक किसी की तारीफ करते नहीं सुना। हालांकि कई दूसरे लोगों के मुख से भी सुना कि ‘मनोज जी अगर पूरब जाने की बात कहें तो आप पश्चिम के रास्ते में उन्हें खोजें और अगर उत्तर कहें तो दक्षिण की दिशा में।’

दशहरे का अवसर था। मनोज जी मेरे घर पधारे थे। मेरा साला मोती भी आ धमका। बातचीत के क्रम में उसने मनोज जी से पूछा-‘मेला देखने नहीं जाइएगा क्या ?’ मनोज जी का उत्तर छोटा और सरल नहीं था। वे बाजारवाद के विरुद्ध लगभग आध घंटे तक बोलते रहे। निष्कर्ष था कि ‘अभी बाजार में एक से एक बहेलिया छूट्टा घूम रहा है। सबकी निगाह आपकी जेब पर है। बाजार में प्रवेश करते ही आप लूट लिए जाएंगे।’ मोती को तब इन बातों से बहुत मतलब नहीं था। अतएव मनोज की इन बातों में उसे दम नजर नहीं आया। घूमने निकल गया। अलबत्त मैं कहीं नहीं गया। लेकिन इसे मनोज जी का प्रभाव नहीं कहा जा सकता। यह शुरू से ही मेरी आदत का एक हिस्सा है। मोती लौटा तो काफी खुश-खुश लग रहा था। उसके चेहरे पर खुशी खिलते देख मेरे अंदर जिज्ञासा पैदा होने लगी। वैसे वह आते ही बोला, ‘आज तो गजब हो गया।’ बताया कि ‘जैसे ही सड़क पर निकला कि ‘‘बहेलिए’’ से भेंट हो गई।’ ‘कौन था ?’ ‘किस बहेलिए की बात कर रहे हो ?’ ‘वही, वही। मार्क्स बाबा।’ मैं  किंचित् मुस्कुराया। ‘मार्क्स बाबा’ अब जब कभी मुझसे मिलने आते, मोती झट कह उठता-‘बहेलिया आया है।’

मनोज जी की आय बढ़ चली थी। इसका असर उनकी बातचीत पर पकट होने लगा। वे रह-रह सायकिल की अनुपयोगिता साबित करते। मोटरसायकिल की अनिवार्यता पर जगह-जगह ‘विमर्श’ भी करने लगे। मुझसे कहते, ‘बाइक नहीं है इसलिए पत्नी को थियेटर आदि जगहों पर ले जाना संभव नहीं होता। रिक्शा आदि में बहुत खर्च हो जाता है।’ मैं हां, हूं करता और चुप लगा जाता। मुझे लगता, यह इनका निजी मामला है, भला मुझे क्यों सुना रहे हैं? कुछ ही दिनों बाद उन्होंने बाइक खरीदी। कभी-कभी आवश्यकतानुसार मुझे भी बिठाते। हां, इससे उनकी पत्नी की सांस्कृतिक गतिविधियों में सहभागिता बढते विशेष नहीं पाया।

किसी दिन मनोज जी के ससुर उनके घर आए। वे सी.पी.आई.के पुराने काडर हैं। साथ में संभवतः गांव के मुखिया जी भी थे। मनोज जी के घर में बिछावन के रूप में सुजनी (पुराने कपड़ों को सिलकर तैयार किया गया बिछावन) बिछी थी। उनके ससुर को, चूंकि एक आदमी साथ थे, अच्छा नहीं लगा। इसलिए अपनी बेटी से उन्होंने बिछावन को बदल देने का आग्रह किया। मार्क्सवादी बेटी को यह बात बुरी लग गई और उन्होंने टके-सा जवाब दे दिया ‘यहां रहना है तो इसी बिछावन के साथ रहना होगा।’ मनोज जी ने मुझे यह घटना सप्रसंग सुनायी। बयान करते हुए जता रहे थे कि ‘देखिए उनकी पत्नी ने अपने पिता के साथ भी एक कम्युनिस्ट की तरह सलूक किया। कि वाह! इसे कहते हैं मार्क्सवादी स्टैंड! मुझे अंदर-अंदर काफी देर तक हंसी आती रही। कुछ दिन पहले ही उन्होंने सोलह हजार रुपये में बाजार की अत्याधुनिक रंगीन टी.वी. खरीदी थी।

तब मैं पटने के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाया करता था। स्कूल के मालिक से सीधी टक्कर हो गई। फलतः मुझे विद्यालय छोड़ देने के लिए कहा गया। मैंने इसका विरोध किया। मैं कहता रहा कि विद्यालय एक सार्वजनिक संस्था है, अतएव सिर्फ मालिक के मना कर देने से मैं विद्यालय छोड़ने को राजी न था। मेरी इस लड़ाई में कुमार मुकुल भी साथ थे। मनोज जी ने कहा, ‘आप विद्यालय छोड़ दीजिए और निजी विद्यालय के शिक्षकों का एक संगठन तैयार कीजिए। आपको संगठन का काम करना है। खाने-पीने की आपकी समस्या शिक्षक हल करेंगे।’ मेरी इस लड़ाई में एक-दो को छोड़, शिक्षकों की भूमिका तनिक उत्साहित करनेवाली नहीं थी। मेरी इस हरकत से विद्यालय प्रबंधन को मुझे फिर से रखना पड़ा। मनोज जी लड़ाई के मेरे तरीके से खुश नहीं थे। वे कहते, ‘यह तो हीरोइज्म है, मार्क्सवादी तरीका नहीं है। संयोग कहिए कि कुछ ही दिनों बाद मनोज जी को भी इसी तरह की घटना का शिकार होना पड़ा। मुझसे कहा भी नहीं। अगल-बगल से पता चला तो मैंने उनसे कहा कि ‘हमलोग दस-बीस की संख्या में निदेशक के पास चलें। मनोज जी ने मेरी बातों में कोई रुचि नहीं दिखायी। मेरे सामने इस प्रसंग से कन्नी काटते। उनके निकटतम मित्रों ने बताया कि उनकी मानसिक हालत कुछ ठीक नहीं है। उन्हीं विश्वस्त मित्रों के सदुद्योग से वे किसी मनोचिकित्सक तक पहुंच सके। लंबे समय तक दवा खानी पड़ी। वे अवसाद के शिकार हो चले थे। सहसा विश्वास नहीं होता कि मनोज जी का मार्क्सवादी दिमाग अवसादग्रस्त भी हो सकता है।