Thursday, September 2, 2010

लोक दायरा और लेखक

तभी अपने मित्रों के सहयोग से मैंने ‘लोक दायरा’ नाम से एक पत्रिका शुरू की। पत्रिका को नाम कुमार मुकुल ने दिया था। हमलोग साहित्यकार मित्रों को पत्रिका बांटते और जिनसे संभव होता सहयोग राशि भी लेते। प्रेमकुमार मणि अक्सर पत्रिका (कई प्रतियों में) खरीदते। साथ ही रचनात्मक सहयोग भी देते। अरुण कमल ने भी, जहां तक याद है, पत्रिका कीमत देकर ली थी। नवल जी ने ‘लोक दायरा’ के बदले में ‘जनपद’ पत्रिका एवं स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक ‘अंधेरे में ध्वनियों के बुलबुले’(स्मरण के आधार पर) भेंट की थी। अलबत्ता मदन कश्यप ने पत्रिका लेने से यह कहकर इनकार कर दिया कि ‘उनके यहां तो पहले से ही पड़ी पुरानी पत्रिकाओं तक के लिए जगह नहीं है।’ लोक दायरा जैसी ‘नयी’ (और शायद अमहत्त्वपूर्ण भी) पत्रिका के लिए बेचारे कहां से जगह निकाल पाते! हां, कुछ दिनों बाद मुकुल जी को कहा कि ‘पांच सौ रुपये प्रति अंक व्यय करने को अगर तैयार हों  तो पत्रिका संपादित कर दे सकता हूं।’ कहना होगा कि पांच अंकों तक पत्रिका अवैतनिक संपादक के भरोसे ही रही। अफसोस कि मदन कश्यप को ‘लोक दायरा’ पत्रिका ‘संपादक’ की ‘नौकरी’ न दे सकी।

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