Tuesday, August 31, 2010

आलोचक का भूत

मदन कश्यप
‘समन्वय’(पटना की युवा संस्था जो अब मृतप्राय है ) के निर्माण के दिनों में ही ‘उस देश  की कथा’ के कवि पंकज कुमार चौधरी से कुमार मुकुल की शिरकत से परिचय हुआ था। पंकज जी ने अपनी ताजा प्रकाशित रचना पढ़ने हेतु मुझे भेंट भी की थी। मित्र की किताब मैंने चाव से पढ़ी और अपनी आदत के विपरीत, एक तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में लगभग सात पृष्ठों की समीक्षा भी लिख डाली। हालांकि प्रतिक्रिया कुछ तीखी हो चली थी। ‘समन्वय’ में एक छोटी-सी गोष्ठी आयोजित हुई जिसमें मैंने इसका कवि की मौजूदगी में पाठ भी किया। यहां यह कहना आवश्यक-सा लग रहा है कि इस लेख का वाचन सुनते हुए पंकज जी कभी असहज नहीं हुए। (बाद में भी कभी इसका ‘कुप्रभाव’ न दिखा। उनके इस व्यवहार से मैं काफी प्रभावित हूं।)  इसके काफी दिनों बाद जब डा. विनय कुमारसमकालीन कविता’ का पहला अंक निकाल चुके तो इस लेख की फोटो कापी मैंने उन्हें पढ़ाई। लेख ‘आक्रामक’ होने के बावजूद उन्हें पसंद आया। कुछ दिनों बाद जब उनसे संपर्क साधा तो वे बोले, ‘लेकिन मैं इसे प्रकाशित नहीं कर सकता।’ मेरे ‘क्यों ?’ के जवाब में उन्होंने कहा कि ‘अव्वल तो इसमें खगेन्द्र ठाकुर की आलोचना है, और फिर मदन कश्यप को यह पसंद नहीं है कि एक ‘नये कवि’ को सात-सात पृष्ठों में छापा जाये।मदन जी को शायद कवि से ज्यादा ‘आलोचक का भूत’ सता रहा था। रही बात खगेन्द्र जी की, तो जहां तक मैंने समझा है, अपनी आलोचना को वे अतिरिक्त महत्त्व नहीं देते।

No comments:

Post a Comment