Monday, December 27, 2010

और एक स्कूल का अंत हो गया


मैंने इसे विजय कुमार ठाकुर के निधन (२७.१२.२००६) पर प्रेमकुमार मणि की पत्रिका 'जन विकल्प ' के लिए लिखा था. आज ठाकुर जी की याद में श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत कर रहा हूँ -

विजय कुमार ठाकुर के असामयिक निधन से बिहार के इतिहास-जगत् को जो क्षति पहुंची है उसकी भरपाई दूर-दूर तक असंभव प्रतीत होती है। खासकर पटना विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग तो उनके बगैर वर्षों तक बेजान ही रहेगा। ऐसा लगता है मानों इतिहास विभाग से इतिहास निकल गया और विभाग शेष रह गया। वे एक प्रतिबद्ध शिक्षक, प्रतिबद्ध इतिहासकार और छात्रों के सच्चे मार्गदर्शक थे। इन सब के ऊपर वे एक बेहतर मनुष्य थे। उनके जाने से एक साथ इतने सारे पदों की रिक्ति हो गई। भविष्य का कोई अकेला आदमी इन तमाम रिक्तियों को भर सकेगा, संदेह है।

ठाकुर जी को इतिहास विरासत में प्राप्त हुआ था। सन् 52 में इनका जन्म उपेन्द्रनाथ ठाकुर के घर हुआ जो स्वयं प्राचीन इतिहास, संस्कृत और पालि के विद्वान थे। रामकृष्ण मिशन, देवघर से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सायंस कॉलेज, पटना में उन्होंने दाखिला लिया। इतिहास को शायद यह मंजूर न था, फलतः बी.ए. में वे बी.एन. कॉलेज आ गये, जहां इतिहास को उन्होंने अपना विषय बनाया। इतिहास विभाग से उन्होंने 72-74 सत्र में एम. ए. किया और मार्च 1975 में उसी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए। इसी दौरान राधाकृष्ण चौधरी के निर्देशन में भागलपुर विश्वविद्यालय से ‘अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया’ विषय पर अपना शोधकार्य पूरा किया। इनके शोध-निर्देशक बिहार में मार्क्सवादी इतिहास लेखन की पहली पीढ़ी के इतिहासकार थे।

प्रो. ठाकुर के लेखन/प्रकाशन की शुरुआत सन् 81 में उनकी पुस्तक अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया के प्रकाशन से मानी जा सकती है। इस पुस्तक के बाद उन्होंने भारतीय इतिहास लेखन के सबसे विवादास्पद विषय, अर्थात् सामंतवाद को चुना और उससे जुड़ी विभिन्न धाराओं की पड़ताल प्रस्तुत करते हुए सन् 89 में ‘हिस्ट्रीयॉग्राफी ऑफ इंडियन फ्यूडलिज्म’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। सन् 93 में ‘सोशल डायमेंशन्स ऑफ टेक्नॉलॉजी: आयरन इन अर्ली इंडिया’ प्रकाश में आई। 2003 में ‘पीपुल्स हिस्ट्री शृंखला’ के तहत इरफान हबीब के साथ ‘दि वेदिक एज ’ पुस्तक लिखी जो वेदकालीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को समझने के लिए एक जरूरी किताब साबित हुई। विगत वर्ष यानी सन् 2006 में ‘सोशल बैकग्राउंड ऑफ बुद्धिज्म ’ छपकर आई जिसमें बौद्ध-धर्म से संबंधित अद्यतन जानकारियों एवं अवधारणाओं को उद्घाटित करने की कोशिश थी। आपने कुछ महत्त्वपूर्ण किताबों का संपादन भी किया है जिनमें ‘टाउंस इन प्री मॉडर्न इंडिया’, ‘पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री’-खंड 1, ‘सायंस, टेक्नॉलॉजी एंड मेडिसीन इन इंडियन हिस्ट्री’ आदि प्रमुख है। ‘पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री’ का दूसरा एवं तीसरा खंड प्रेस में है। इनके अलावे सैकड़ों शोध-आलेख विभिन्न पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित हैं।

विजय कुमार ठाकुर महज पुस्तकों की दुनिया तक अपने को सीमित छोड़ देनेवाले लेखक न थे वरन् विभिन्न मोर्चों एवं संगठनों के माध्यम से सक्रिय भागीदारी भी निभाते थे। सन् 91 में जब मैं पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का छात्र था, उन्होंने अपने संरक्षण में विभाग के अन्य छात्रों को संगठित कर ‘इतिहास विचार मंच’ की स्थापना की थी। इस मंच की स्थापना में मेरे सहपाठी श्री अशोक कुमार का भी अपूर्व योगदान था। इस मंच से ‘प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था’ एवं ‘सबाल्टर्न स्टडीज’ जैसे अकादमिक महत्त्व के विषयों पर व्याख्यान आयोजित हुए थे।

देश में इतिहास की सबसे बड़ी संस्था ‘इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस’ में बिहार की भागीदारी को निर्णायक बनाने में ठाकुर जी का योगदान प्रशंसनीय रहा। यह उनके निजी प्रयास व नेतृत्त्व-कौशल का नतीजा था कि बिहार से सैकड़ों इतिहासकार (विशेषकर युवा) हिस्ट्री कांगेस में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाते थे। ठाकुर जी 1975 से इसके सक्रिय सदस्य थे। वे कार्यकारिणी सदस्य भी थे। सन् 92-95 के बीच वे संयुक्त सचिव रहे। सन् 1997 में, अर्थात् बंगलौर अधिवेशन (58 वें) में प्रभागाध्यक्ष (सेक्शनल प्रेसीडेंट, प्राचीन भारतीय इतिहास) रह चुके थे। सन् 2004 में वे आगामी तीन वर्षों के लिए जेनरल सेक्रेटरी चुने गये किंतु खराब स्वास्थ्य के कारण नवम्बर, 2005 में उन्होंने इस्तीफा दे डाला। इसके अतिरिक्त वे आंध्र इतिहास परिषद् तथा बंग इतिहास परिषद् के भी प्रभागाध्यक्ष रह चुके थे। ओरिएंटल कांफ्रेंस, 2006 (श्रीनगर) में भी वे प्राचीन भारत के प्रभागाध्यक्ष हुए। इधर वे प्राध्यापक से प्रति-कुलपति हो गये थे।

छात्रों के बीच ठाकुर जी काफी लोकप्रिय थे। वे बोलते इतना बढ़िया थे कि एम. ए. के दौरान अशोक जी ने उनके सारे लेक्चर टेप कर लिए थे जिसका ‘इतिहास-समग्र’ पुस्तक लिखते हुए भरपूर इस्तेमाल भी किया। ठाकुर जी हिंदी-अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में घंटों बोलने की सामर्थ्य रखते थे। उनकी हिन्दी भी शायद ही अशुद्ध होती थी। कक्षा में छात्र उनके अद्यतन ज्ञान एवं भाषा का आतंक महसूस करते। आवाज भी बहुत ‘लाउड’ थी। बदमाश से बदमाश छात्र उनको अपने समक्ष पाकर पिद्दी बन जाते, मानों अंगुलिमाल डाकू को अचानक बुद्ध का सामना करना पड़ गया हो। ‘इस्ट एंड वेस्ट’ कोचिंग संस्थान के आरंभिक दिनों में, ‘मार्क्स’ की उपाधि से मशहूर हो गये थे। वे एक चलता-फिरता स्कूल थे। उनके निधन से उस स्कूल में ताले लटक गये।

विभाग से छूटते तो ‘जानकी प्रकाशन’ में आकर जम जाते। यहां विश्वविद्यालय के विद्वान शिक्षकों एवं शोध-छात्रों का मेला लग जाता। घंटा-दो-घंटा यहां नियमित बैठते। हमारी पीढ़ी ने कॉफी हाउस की सिर्फ कहानियां सुनी थीं, हकीकत में जानकी प्रकाशन का ‘कुभ’ ही देखा था। यहां इतिहासवालों की बैठक होती और ‘राजकमल प्रकाशन’ में साहित्यकारों की गोष्ठी जमती। जानकी प्रकाशन में आकर्षण का केन्द्र थे ठाकुर जी। यहीं शोधार्थी अपने आलेख व थीसिस दुरुस्त करवाते। हिस्ट्री कांग्रेस के समय यहां भीड़ अचानक बढ़ जाती। सैकड़ों लोग आते, अपना पर्चा सुनाते-दिखाते और उचित मार्गदर्शन पाते। कभी-कभी वे इतना काटते-छांटते कि लेखक का ‘मूल’ ‘निर्मूल’ हो जाता। वे नये लोगों को बहुत प्रोत्साहित करते और मान देते थे। अन्य जगहों पर लोग इसका अभाव महसूस करते। जानकी से निवृत हो घर पहुंचते तो वहां भी शाम होते-होते लोग आ घेरते। चाय-नाश्ते का दौर चलता। चाय हमेशा मैडम (पत्नी) ही बनातीं। उनके घर नौकर न पाकर मेरे मार्क्सवादी मन को बड़ा संतोष होता और अपने गुरु के बड़प्पन का अहसास करता।(नारी -मुक्ति के विमर्शकारों के लिए यहाँ थोड़ा स्पेस दे रहा हूँ ).

बहुत कम लोग जानते हैं कि विजय कुमार ठाकुर का एक कवि रूप भी था। वे समय-समय पर कविताएं भी रचा करते थे। जब कभी वे हमलोगों के बीच ‘खुलते’ तो अपनी कविताएं दिखाते और उनके प्रकाशन की योजना के बारे में सूचना देते। कविताओं के चयन का दायित्त्व उन्होंने मुझे और अशोक जी को दे रखा था। पहली बार उनकी दो कविताएं ‘लोक दायरा’ में प्रकाशित हुई थीं। इन्हीं कविताओं को दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से निकलनेवाले अखबार ‘कैंपस संधान’ में मृणाल वल्लरी ने पुनर्प्रकाशित किया था। बहुत संभव है कि साहित्य के जो अपने निकष हैं उनके आधार पर उनकी कविताओं को सिरे से खारिज कर दिया जाये लेकिन इनसे इनके मानसिक द्वन्द्व एवं अंतर्मन को समझा जा सकता है। उनके काव्य-संग्रह ‘अंतर्वेदना’ में एक संघर्षशील आदमी की बेचैनी और जिद को पकड़ा जा सकता है। बेहतर से और बेहतर बनने की कोशिश या फिर न बन पाने की टीस उनकी कविताओं से खाद-पानी पाता था। उन्होंने मिजाज कवि का पाया था। कवि विश्वरंजन उनके गहरे मित्र थे और अपने सर्वप्रिय कवि में आलोक धन्वा का नाम लेते थे।

निधन के कुछ दिनों पहले से ही वे चीजों को समेटना शुरु कर चुके थे, मानो कोई पूर्वाभास हो। रात-दिन किताबों से चिपके रहते और लाल-पीले स्केच से रंगते जाते। कुछ छूट जाने का भय सताने लगा था। अंतिम दिनों में दिल्ली से खरीदकर लाई गई रणधीर सिंह की पुस्तक ‘ दि क्राइसिस ऑफ सोशलिज्म ’ का अंतिम पाठ पढ़ रहे थे। महान लेखक ग्रीन की तरह पुस्तकें पढ़ते हुए मरना शायद सपना रहा हो। वे गये, लेकिन ‘किताबों का क्या करें’ की चिंता परिवारवालों के लिए छोड़ गए।

Monday, December 6, 2010

और नालिश क्यों नहीं की ?

और इसी तीसरी कक्षा में विद्यालय के प्रधानाध्यापक जगदीश माट्सा से भेंट हुई. वे मेरे ही ग्रामीण थे. गहरे सांवले रंग के गंवई. किसान का चेहरा लिए हुए. कुरता-धोती उनका स्थायी पहनावा था. बिल्कुल छोटे कटे बाल रखते-लगभग न के बराबर. सिर पर बाल कम होने की एक वजह तो खुद उनकी वृद्धावस्था थी. उसी साल वे अपने कार्यभार से मुक्त भी हुए थे इसलिए उम्र हो चुकी थी. दूसरी कि उन दिनों बढ़े बाल तनिक पसंद न किये जाते थे. रहन–सहन से सादगी झलकती. ऐसी कि उन्हें देखकर शायद ही किसी को विश्वास होता कि वे शिक्षक हैं. लेकिन मुँह खोलने के बाद किसी को फिर परिचय की दरकार भी नहीं रह जाती होगी. गांव के विद्यालय में और एक ग्रामीण होने के बावजूद उनकी भाषा शुद्ध और समृद्ध होती. विद्यालय परिसर में मैंने उन्हें कभी क्षेत्रीय भाषा में या बेजरूरत बात करते नहीं सुना. वे उर्दू-बहुल/मिश्रित हिंदी का प्रयोग करते. शायद इसी वजह से उनकी भाषा मुझे खींचती और वे मुझे अच्छे लगते. कुल मिलाकर उनके व्यक्तित्व की जो तस्वीर बनती वह मेरे बालमन पर अपना असर छोडना आरंभ कर चुकी थी. आज भी उनके द्वारा शायद सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द ‘नालिस’ याद है. याद है कि जब छात्र आपस में झगड़ा करते और उनमें से कोई अगर उनके पास पहुंचकर शिकायत कर देता तो बादवाले को मार खानी ही पड़ जाती. अगर उस बच्चे की गलती न भी होती और वह अपने पक्ष में सफाई पेश करने में सफल भी हो जाता तो भी वे अपना पहला और अंतिम सवाल करते कि फिर नालिस क्यों नहीं की? शायद वे यह मानकर चलते थे कि नालिश न करना अपने आप में एक जुर्म है और इसीलिए उसकी सजा तो अवश्य ही मुक़र्रर होनी चाहिए.

वे स्वभाव से काफी सख्त, अनुशासनप्रिय व एक संयत इंसान थे. हम छात्रों के साथ कभी अवांछित नहीं बोलते. उनके बैठने की जगह के पास एक दराज वाला टेबल होता और बगैर हाथ की एक कुर्सी होती. उसी टेबल पर शिक्षकोपस्थिति व छात्रोपस्थिति पंजी रखी होती. उनके ठीक दाहिनी ओर दरवाजा होता जिसकी ओट में वे बार–बार खैनी की पीक दांतों के बीच से पिच आवाज के साथ फेंकते. थोड़े दिनों तक मैंने भी इस आदत का आज्ञा की तरह पालन किया था.

वे विद्यालय आते तो अपने साथ कपड़े का सिला एक झोला अवश्य लाते. आने में कभी विलम्ब कर देते या कोई शिक्षक ही उनसे पहले पहुँच चुके होते तो हम छात्रों में से कोई उनके घर जाता और ऑफिस की चाबी ले आता और उस कमरे को खोल बैठने आदि के लिए लकड़ी का तख्ता निकल लेते. पूरे विद्यालय परिसर में झाड़ू आदि लगाने का काम भी हमी छात्रों के जिम्मे था. प्रायः प्रत्येक शनिवार को छात्र बगल के घर से गोबर चुरा /उठा लाते और छात्राओं के जिम्मे फर्श लीपना होता. इन कार्यों की देखरेख का जिम्मा मुझ जैसे मोनिटरों को लेना होता.

सबसे नायाब था उनका पढने का तरीका. वे हमें हिंदी पढ़ाते. पाठ्य-पुस्तक की रीडिंग पर एकमात्र जोर होता. यानि हमलोग रोजाना ही उनकी घंटी में हिंदी की किताब निकालते और क्रमशः खड़े होकर बोलकर पढ़ते. बीच-बीच में वे शब्द के हिज्जे भी पूछते चलते. किताब पढ़ रहे छात्र से अगर किसी शब्द का सही-सही उच्चारण नहीं हो पाता था तो बगल (आगे-पीछे) के छात्र से पूछा जाता. अगल-बगल के छात्र भी जब सही उच्चारण कर पाने में असमर्थ साबित होते तो उनका फरमान जारी होता कि जिसे मालूम है वह उच्चारण करे. जो छात्र बता देता वह सबकी पीठ पर एक-एक मुक्का लगाता. मेरी भाषा अन्य छात्रों की तुलना में बेहतर थी इसलिए मुक्का लगाने का सुख ज्यादातर मुझे ही हासिल होता. याद नहीं कि उच्चारण-दोष की वजह से मुझे मार लगी हो. अलबत्ता मथुरा रजक से सम्बंधित एक घटना की याद अवश्य ही अबतक बनी हुई है. कहना न होगा कि उसकी हिंदी बहुत ही गड़बड थी. एक अनुच्छेद पढने में उसने बीसेक गलतियाँ की थीं और मैंने कुछ इतने ही मुक्के लगाये थे. जहाँतक याद है, वह बीमार हो गया था और कई दिनों तक विद्यालय नहीं आ सका था.