Monday, September 6, 2010

केवल जलती मशाल

इस सबके बीच मेरे दिमाग में कुछ ऐसी बातें भी थीं जो न तो कविता बन पा रही थीं और न कोई दूसरी ही शक्ल  अख्तियार कर रही थीं। उधेड़बुन के इन्हीं विकट क्षणों में मुझे संस्मरण का सहारा सूझा। इन संस्मरणों को मैंने डायरी की शक्ल  में टुकड़ों में लिखना शुरू  किया। वामपंथ की समस्याओं से टकराने के क्रम में मैं आलोक धन्वा तक जा पहुंचा। आलोक जी के साथ हुई पुरानी बातचीत मेरे सामने नाचने लगती थी। सच है कि मेरे दिमाग में यह संस्मरण बहुत पहले लिखा जा चुका था। इस बात की चर्चा अक्सर मैं अपने मित्रों से करता। कागज पर लिखने के बाद मैंने कुमार मुकुल को पढ़ाया और इसकी एक छायाप्रति ‘समकालीन कविता’ के संपादक विनय कुमार को दी। लेख पढ़कर विनय कुमार ने कहा कि ‘आलोक धन्वा को मैं एक ‘‘डाक्टर की नजर’’ से देखता हूं।’ एक डाक्टर (मनोचिकित्सक) के लिए ऐसा कहना सहज और स्वाभाविक था। लेकिन इस बात में अंतर्निहित खतरों ने मेरे कान खड़े कर दिए। मैंने कहा, ‘तब तो कविता-क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों को भी आप इसी डाक्टरी नजर से देखेंगे?’ मेरा आशय स्पष्ट था और डाक्टर साहब  (शायद इस विभूषण पर हिंदी जगत में नामवर जी का ही एकाधिकार काबिज है।)भी शायद इसी स्पष्टता के साथ मेरी बात समझ चुके थे। अब मैं ‘जन विकल्प’ के संपादक प्रेमकुमार मणि के पास गया। संयोग से वहां प्रमोद रंजन भी थे। इसलिए प्रथमतः उन्हें ही लेख दिखाया। वैसे उन्हें मालूम था कि आलोक धन्वा से संबंधित संस्मरण लिखनेवाला हूँ । अब वह प्रस्तुत था। प्रमोद रंजन ने छापने हेतु मणि जी से पैरवी (लेख की तारीफ में बोले) भी की। लेकिन मणि जी ने कहा कि ‘जन विकल्प’ चूंकि सामाजिक परिवर्तन की पत्रिका है, इसलिए उसमें संस्मरण छापना उचित न होगा। कुछ दिनों बाद अरुण नारायण उसकी एक कापी ले गये। लेख शायद श्रीकांत जी ने देख-पढ़ लिया और अरुण नारायण को हर हाल में न छापने की ‘सख्त हिदायत’ दे डाली। श्रीकांत जी का ख्याल है कि ‘संस्मरण जैसी चीजें बुढ़ापे में छपवानी चाहिए।’ ऐसी नेक सलाह वे मुझे अक्सर देते रहते हैं। लेकिन मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरी आखों के संबंध में डाक्टरों ने निराशा प्रदर्शित की है; इसलिए चाहकर भी ‘बुढ़ापे तक इंतजार’ की ‘राजनीति’ नहीं कर सकता। फिर ऐसे किसी ‘मूक समझौते’ की मैंने कोई ‘कीमत’ भी तो नहीं वसूली है।                            

आलोक धन्वा के बारे में जब क्रांति भट्ट का लेख छप चुका तो प्रमोद जी ने कहा कि ‘भट्ट की बातों को समझने में आपका लेख मददगार साबित होगा।’  और इस कारण से लेख छाप दिया गया। लेख के छपते ही भूचाल आ गया। दिल्ली के मित्रों ने खबर दी कि साहित्यकार लोग एक-दूसरे को जेरॉक्स कॉपी बांट रहे हैं। इतना ही नहीं, देश के कोने-कोने से फोन आने लगे। दिल्ली से कुछ ‘दुर्दांत’ साहित्यकारों व अपरिचित लोगों के फोन आये और आध-आध घंटे तक बातें करते रहे। मुझे खुशी भी होती और दुख भी होता। दुख था कि लोग मेरे लेखन को ‘व्यक्तिगत या व्यक्तित्त्व पर हमला’ की तरह ले रहे हैं। संस्मरण के बहाने मैंने ‘मूल्यों के क्षरण ’की बात कही थी। उसकी चिंता और बेचैनी कहीं नहीं दिखी। मदन कश्यप ने तो इसके लिखे जाने के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया जबकि कर्मेन्दु शिशिर ने धारावाहिक जारी रखने की सलाह दी। इस दौरान हिंदी लेखकों की जिस मानसिकता के दर्शन हुए उससे हिंदी पट्टी को ‘गोबर-पट्टी’  कहे जाने का मर्म समझ में आया। इस पूरे प्रसंग में रामसुजान अमर ‘केवल जलती मशाल’ लगे।

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