Saturday, September 25, 2010

यह ‘प्रतीक पारिश्रमिक’ का दौर है

साहित्य में एक नया दौर शुरू हुआ है। यह दौर पारिश्रमिक का नहीं, ‘प्रतीक पारिश्रमिक’ का है। हंस ने अक्तूबर 2003 के अंक में मेरा एक लेख प्रकाशित किया। लगा कुछ पैसे मिलेंगे। लेकिन पैसे की जगह एक पत्र आया। उसका मजमून कुछ इस तरह था-
 
भाई राजूरंजन जी,
नमस्कार,
‘हंस’ अक्तू. ‘03 अंक में प्रकाशित आपकी रचना का प्रतीक पारिश्रमिकहंस’ की वार्षिक सदस्यता में समायोजित किया जा रहा है। नवंबर ‘03 से अक्तू. ‘04 के लिए आपकी सदस्यता दर्ज की जा रही है। नवंबर 03 अंक 5. 11. 03 को भेजा जाना है-प्रतीक्षा करें।
सादर
वीना उनियाल

पत्र को पढ़कर अपने पड़ोस के उस दूकानदार   की याद आई जो अठन्नी न होने पर एक लेमनचूस पकड़ा देना चाहता और मैं उसे डांटता कि ‘साहब यह तो मेरी क्रयशक्ति नष्ट करने की बाजार की अंतर्राष्ट्रीय साजिश है।’ लेकिन हंस के मामले में क्या ऐसा ही सोचना उचित होता जबकि इसके साथ प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव के नाम जुड़े हों। लेकिन सवाल है कि मेरी रजामंदी के बगैर पारिश्रमिक को प्रतीक पारिश्रमिक में तब्दील कर देना क्या हंस के संपादक का जनतांत्रिक हक था ? क्या वे खुद हंस की कीमत ग्राहकों से प्रतीक रूप में स्वीकारेंगे ?  
       

Wednesday, September 15, 2010

लेकिन इसका पारिश्रमिक क्या होगा ?

सन् 2004 की बात है। मेरे मित्र डा. अशोक कुमार ने फोन पर सूचना दी कि आज शाम में दैनिक जागरण के प्रमोद कुमार सिंह से मिलने चलना है। प्रमोद जी हम दोनों ही के पुराने परिचित/मित्र हैं। हालांकि मुझे मिलने का प्रयोजन नहीं मालूम था फिर भी गया। प्रमोद जी ने हमलोगों को शशिकांत जी (प्रमोद जी के शशि भैया) से मिलवाया। उन्होंने अपनी योजना के बारे में हमें विस्तार से बताया। दरअसल बिहार के ऐतिहासिक स्थलों को लेकर वे एक स्तंभ प्रारंभ करना चाहते थे। बात बुरी नहीं थी। लेकिन बात करने की उनकी ‘उद्धारक शैली’ व अंदाज से चिढ़ हो आई। उनके कहने का भाव था कि वे एक ‘प्लेटफार्म’ प्रदान कर रहे हैं जिसके माध्यम से हम अपना ‘बाजार मूल्य’ सृजित कर सकते हैं। वे यह कहना भी न भूले कि ‘पहले जुड़िए, फिर देखिए हम आपके लिए क्या करते हैं!’ वे मुझे ‘आदमी’ बना देने का लोभ दिखा रहे थे। वैसे पैसों को लेकर एक उदासीन भाव ही रहा है मुझमें लेकिन शशि भैया की बातों ने मेरे अंदर ‘पारिश्रमिक’ की बात पैदा कर दी। अतएव मैंने पूछ ही लिया-‘लेकिन इसका पारिश्रमिक क्या होगा?’  यह कहना था कि ‘गगनविहारी’ (दरअसल पूरी बातचीत उन्होंने एक खास ऊंचाई से की।) शशि जी धड़ाम से धरती पर गिर पड़े। फिर भी पहलेवाली मुद्रा नहीं छोड़ी। उन्हीं बातों को दोहरा दिया। मैं भी कहां माननेवाला था। पारिश्रमिक की ‘टेक’ का फिर मैंने सहारा लिया। इस बार वे आग-बबूला थे। समझते देर न लगी कि लाख कोशिश करो यह इंसान ‘आदमी’ बनने से रहा। वे बोले, ‘आपको हजार-पांच सौ तो नहीं ही दे सकते न!’ मुझे ऐसी ही उम्मीद थी। मेरा भी जवाब तैयार था। मैंने कहा, ‘तो फिर सौ-पचास के लिए मैं ‘‘सिंदूर-टिकुली’’ पर नहीं लिख सकता ।’ दरअसल वे मुझे ‘नौसिखुआ’ की तरह ले रहे थे जबकि मैं इस ‘बोध’ से भरा था कि ‘अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में जितना लिख गया हूं उतना तो इस आदमी ने अब तक पढ़ा भी न होगा।’  एक बार फिर मैं ‘व्यावहारिक’  सवाल उठाकर ‘अव्यावहारिक’ हो गया।

चार वर्ष पुरानी बात अब जाकर रंग ला रही थी। संभवतः 2007 में श्रीकांत जी ने मुझसे किसी प्रोजेक्ट की चर्चा की। सन् 1857 से संबंधित कुछ विषयों पर लिखना था। इसके लिए पांच हजार रुपये मिलनेवाले थे। एक माह के अंदर मैंने बारी-बारी से सारी सामग्री श्रीकांत जी को दे दी। अंतिम किस्त दे चुकने के बाद श्रीकांत जी ने बताया कि सामग्री शशिकांत को शायद पसंद न आई। नतीजतन इस बार भी ‘पारिश्रमिक’  मुझे न दिया जा सका। अलबत्ता कुछ पूंजी भी घर से चली गई। दरअसल लिखने के क्रम में मैंने कुछ आवश्यक किताबों की खरीद कर ली थी। चार-पांच दिनों की स्कूल से छुट्टी भी ले रखी थी। कुल-मिलाकर ‘प्रोजेक्ट’ मुझ पर भारी पड़ गया। बुद्ध की तरह मुझे भी ‘ज्ञान’ मिला कि लेखक बनना अगर है तो पारिश्रमिक का सवाल नहीं उठाना है । वे लेखक भाग्यशाली लोग थे जो ‘मसिजीवी’  थे। वह दौर हिंदी साहित्य से कब का उठ गया!

Wednesday, September 8, 2010

और वक्ता ने अध्यक्ष को मंच पर चढ़ने न दिया

अलबत्ता आलोक धन्वा ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ ‘ऐतिहासिक’ तरीके से दी। वे इतिहास ‘लिखने’ की बजाय इतिहास ‘बनाने’ में यकीन रखते हैं। हुआ यह कि दिसंबर 2008 के पुस्तक मेले में मैं गया हुआ था। वहीं अरुण नारायण ने सूचना दी कि कल आलोक धन्वा का व्याख्यान रखा गया है। इसलिए अपने प्रिय कवि (कह दूं कि उनका गद्य भी मुझे ‘कविता की कोख’ से निकला मालूम पड़ता है।) को सुनने हाजिर हो गया। मैं इधर-उधर घूम ही रहा था कि अरुण नारायण से भेंट हो गई। उन्होंने कहा कि धन्वा जी वाली गोष्ठी की अध्यक्षता मुझे ही करनी है। मैंने इसे मजाक ही समझा। इसलिए मजाक ही में टाल भी दिया। मुझे मालूम था कि ‘साहित्य के जनतंत्र’ में यह असंभव है। व्यवस्थापक को शायद इसकी गंभीरता मालूम न थी। अतएव उद्घोषणा-कक्ष से इस बात की लगे हाथों घोषणा भी कर दी गई। इस पर मैने अरुण नारायण को मजाक ही सही लेकिन कहा था कि ऐसी कोई घोषणा न की जाये वरना सुन लेने पर आलोक जी अंदर आने की बजाय उल्टे पांव घर को हो लेंगे। अब मैं डरते-डरते ही सही, मानसिक रूप से अपने को तैयार करने लगा। यहां तक कि अध्यक्षीय भाषण के मजमून पर भी विचार करने लगा। अध्यक्ष के द्वारा काफी प्रतीक्षा कर चुकने के बाद अंततः आलोक जी आए। मुद्दत बाद उनको देख रहा था। लगा जिस बीमारी की अब तक बात करते रहे थे वह उनके चेहरे से अब वह झांकने लगी है। पहले वाला तेज नहीं रह गया था। उन्हें मंच पर बिठाया गया। अध्यक्षता के लिए मुझे भी मंच पर आमंत्रित किया गया किंतु मैं सहज ही अपनी जगह बैठा रह गया। हालांकि मुकुल जी ने, जो मेरी ही बगल में बैठे थे, मंच पर जाने के लिए प्रेरित भी किया। किंतु मैं इसे इतना सरल मामला नहीं समझ रहा था। मैं दरअसल आलोक जी की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहा था। मेरा नाम सुनना था कि वे असहज हो गये। उन्होंने कहा, ‘किसी ‘‘अतिरिक्त’’ तामझाम की जरूरत नहीं हैं। बगैर किसी औपचारिकता के मैं अपनी बात कहूंगा।’ कुछ तो आलोक धन्वा की बात सुनकर और कुछ उनके अप्रत्याशित नाटक से मंच-संचालक नर्वस हो गये और काफी कुछ आलोक धन्वा की तारीफ में कह गये। आलोक जी को यह ‘औपचारिकता’ रास आई। ‘मंगलाचरण’ के बाद आलोक जी ‘जनतांत्रिक मूल्य’ एवं ‘फासीवाद’ पर दो किस्तों में बोले। वे जब भी किसी तानाशाह का जिक्र करते तो मैं दो मिनट पहले का ‘हादसा’ याद करता और मुस्कुरा देता। मैं मन ही मन सोच रहा था कि आलोक जी ने अपने साथ मेरा भी इतिहास ‘रच’ डाला। इतिहास की शायद पहली ही घटना हो जब अध्यक्ष को वक्ता ने मंच पर चढ़ने ही न दिया हो।    

Monday, September 6, 2010

केवल जलती मशाल

इस सबके बीच मेरे दिमाग में कुछ ऐसी बातें भी थीं जो न तो कविता बन पा रही थीं और न कोई दूसरी ही शक्ल  अख्तियार कर रही थीं। उधेड़बुन के इन्हीं विकट क्षणों में मुझे संस्मरण का सहारा सूझा। इन संस्मरणों को मैंने डायरी की शक्ल  में टुकड़ों में लिखना शुरू  किया। वामपंथ की समस्याओं से टकराने के क्रम में मैं आलोक धन्वा तक जा पहुंचा। आलोक जी के साथ हुई पुरानी बातचीत मेरे सामने नाचने लगती थी। सच है कि मेरे दिमाग में यह संस्मरण बहुत पहले लिखा जा चुका था। इस बात की चर्चा अक्सर मैं अपने मित्रों से करता। कागज पर लिखने के बाद मैंने कुमार मुकुल को पढ़ाया और इसकी एक छायाप्रति ‘समकालीन कविता’ के संपादक विनय कुमार को दी। लेख पढ़कर विनय कुमार ने कहा कि ‘आलोक धन्वा को मैं एक ‘‘डाक्टर की नजर’’ से देखता हूं।’ एक डाक्टर (मनोचिकित्सक) के लिए ऐसा कहना सहज और स्वाभाविक था। लेकिन इस बात में अंतर्निहित खतरों ने मेरे कान खड़े कर दिए। मैंने कहा, ‘तब तो कविता-क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों को भी आप इसी डाक्टरी नजर से देखेंगे?’ मेरा आशय स्पष्ट था और डाक्टर साहब  (शायद इस विभूषण पर हिंदी जगत में नामवर जी का ही एकाधिकार काबिज है।)भी शायद इसी स्पष्टता के साथ मेरी बात समझ चुके थे। अब मैं ‘जन विकल्प’ के संपादक प्रेमकुमार मणि के पास गया। संयोग से वहां प्रमोद रंजन भी थे। इसलिए प्रथमतः उन्हें ही लेख दिखाया। वैसे उन्हें मालूम था कि आलोक धन्वा से संबंधित संस्मरण लिखनेवाला हूँ । अब वह प्रस्तुत था। प्रमोद रंजन ने छापने हेतु मणि जी से पैरवी (लेख की तारीफ में बोले) भी की। लेकिन मणि जी ने कहा कि ‘जन विकल्प’ चूंकि सामाजिक परिवर्तन की पत्रिका है, इसलिए उसमें संस्मरण छापना उचित न होगा। कुछ दिनों बाद अरुण नारायण उसकी एक कापी ले गये। लेख शायद श्रीकांत जी ने देख-पढ़ लिया और अरुण नारायण को हर हाल में न छापने की ‘सख्त हिदायत’ दे डाली। श्रीकांत जी का ख्याल है कि ‘संस्मरण जैसी चीजें बुढ़ापे में छपवानी चाहिए।’ ऐसी नेक सलाह वे मुझे अक्सर देते रहते हैं। लेकिन मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरी आखों के संबंध में डाक्टरों ने निराशा प्रदर्शित की है; इसलिए चाहकर भी ‘बुढ़ापे तक इंतजार’ की ‘राजनीति’ नहीं कर सकता। फिर ऐसे किसी ‘मूक समझौते’ की मैंने कोई ‘कीमत’ भी तो नहीं वसूली है।                            

आलोक धन्वा के बारे में जब क्रांति भट्ट का लेख छप चुका तो प्रमोद जी ने कहा कि ‘भट्ट की बातों को समझने में आपका लेख मददगार साबित होगा।’  और इस कारण से लेख छाप दिया गया। लेख के छपते ही भूचाल आ गया। दिल्ली के मित्रों ने खबर दी कि साहित्यकार लोग एक-दूसरे को जेरॉक्स कॉपी बांट रहे हैं। इतना ही नहीं, देश के कोने-कोने से फोन आने लगे। दिल्ली से कुछ ‘दुर्दांत’ साहित्यकारों व अपरिचित लोगों के फोन आये और आध-आध घंटे तक बातें करते रहे। मुझे खुशी भी होती और दुख भी होता। दुख था कि लोग मेरे लेखन को ‘व्यक्तिगत या व्यक्तित्त्व पर हमला’ की तरह ले रहे हैं। संस्मरण के बहाने मैंने ‘मूल्यों के क्षरण ’की बात कही थी। उसकी चिंता और बेचैनी कहीं नहीं दिखी। मदन कश्यप ने तो इसके लिखे जाने के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया जबकि कर्मेन्दु शिशिर ने धारावाहिक जारी रखने की सलाह दी। इस दौरान हिंदी लेखकों की जिस मानसिकता के दर्शन हुए उससे हिंदी पट्टी को ‘गोबर-पट्टी’  कहे जाने का मर्म समझ में आया। इस पूरे प्रसंग में रामसुजान अमर ‘केवल जलती मशाल’ लगे।

Thursday, September 2, 2010

लोक दायरा और लेखक

तभी अपने मित्रों के सहयोग से मैंने ‘लोक दायरा’ नाम से एक पत्रिका शुरू की। पत्रिका को नाम कुमार मुकुल ने दिया था। हमलोग साहित्यकार मित्रों को पत्रिका बांटते और जिनसे संभव होता सहयोग राशि भी लेते। प्रेमकुमार मणि अक्सर पत्रिका (कई प्रतियों में) खरीदते। साथ ही रचनात्मक सहयोग भी देते। अरुण कमल ने भी, जहां तक याद है, पत्रिका कीमत देकर ली थी। नवल जी ने ‘लोक दायरा’ के बदले में ‘जनपद’ पत्रिका एवं स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक ‘अंधेरे में ध्वनियों के बुलबुले’(स्मरण के आधार पर) भेंट की थी। अलबत्ता मदन कश्यप ने पत्रिका लेने से यह कहकर इनकार कर दिया कि ‘उनके यहां तो पहले से ही पड़ी पुरानी पत्रिकाओं तक के लिए जगह नहीं है।’ लोक दायरा जैसी ‘नयी’ (और शायद अमहत्त्वपूर्ण भी) पत्रिका के लिए बेचारे कहां से जगह निकाल पाते! हां, कुछ दिनों बाद मुकुल जी को कहा कि ‘पांच सौ रुपये प्रति अंक व्यय करने को अगर तैयार हों  तो पत्रिका संपादित कर दे सकता हूं।’ कहना होगा कि पांच अंकों तक पत्रिका अवैतनिक संपादक के भरोसे ही रही। अफसोस कि मदन कश्यप को ‘लोक दायरा’ पत्रिका ‘संपादक’ की ‘नौकरी’ न दे सकी।