Saturday, October 30, 2010

मेरे गुरुजन-याद बाकी है जिनकी

स्कूल में मेरा दाखिला कब और किन हालात में हुआ, मुझे कुछ भी याद नहीं। हां, इतना अवश्य याद है कि मेरे विद्यालय में कुल दो कमरे थे। एक कमरे में कार्यालय होता और तीसरी कक्षा के छात्र होते। तीसरी कक्षा हमारे तब के प्राथमिक विद्यालय की सबसे ऊंची कक्षा थी, शायद इसी वजह से इसके छात्रों को इसमें बैठने का अधिकारी समझा जाता रहा होगा। दूसरे कमरे में दूसरी जमात के विद्यार्थी बैठते। और बाकी के हम सब-यानी पहली जमात के बच्चे बरामदे पर होते। तब तो नहीं, लेकिन अब समझ में आता है कि ऐसी व्यवस्था छात्रों की हायरार्की को ध्यान में रखकर ही लागू की गई होगी। इसके अलावा दो अर्धनिर्मित कमरे और भी थे जिनका इस्तेमाल छात्राओं के पेशाबघर के रूप में होता। हम छोटे बच्चे इसे ‘ऑफ साइड’ (अपने मूल में शायद यह ‘आउटसाइड’ रहा होगा) कहते। किसी को भी अगर पेशाब करने जाने की अनुमति लेनी होती तो पूछता ‘क्या मैं ऑफ साइड जाऊं श्रीमान ?’

विद्यालय की दिनचर्या प्रार्थना की घंटी से होती। यह घंटी लगातार बजती जिसे हमलोग ‘टुनटुनिया’ कहते। पहली टुनटुनिया का मतलब होता कि हमलोगों को प्रार्थना के लिए तैयार हो जाना चाहिए। हम सब प्रार्थना करते लेकिन ध्यान कहीं और ही होता। प्रार्थना जैसे ही खत्म होती कि हम सारे ही बच्चे ऑफिस की तरफ दौड़ पड़ते और पटरा लूटने में लग जाते। हम बच्चे इसी पर बैठते। जिसके पास यह होता वह गौरवान्वित महसूस करता और जो इससे वंचित रह जाता वह उदास मन से अपना बोरा बिछाकर या वह भी नहीं रहने पर खालिस जमीन पर बैठता। तब कहीं जाकर पहली घंटी लगती और वर्ग में शिक्षक आते। कभी-कभी शिक्षकों के आने में देर हो जाती तो पूरी व्यवस्था क्लास के मॉनिटरों को देखनी पड़ती। ये मॉनिटर शिक्षक की अनुपस्थिति में पूरे के पूरे शिक्षक हो जाते। बच्चों के बीच उनका एक शिक्षक की ही तरह मान भी होता। कभी कोई अगर मॉनिटर की हुक्मउदूली की कोशिश करता तो काफी सख्त मार लगती।

जबतक मैं पहली कक्षा में रहा, एक ही शिक्षक से वास्ता रहा- और वे थे शिवन पाठक। वे मेरी बगल के गांव (मटौढ़ा) से आते थे। वे गोरे रंग के दुबले-पतले आदमी थे। उम्रदराज भी थे। उनके नकली दांतों की चमक आज भी मुझे हतप्रभ कर जाती है। वे विद्यालय भी पीतल की मूठवाली लाठी लेकर आते। उसी लाठी से हम सबके सिर पर ठक-ठक हमला करते। हम बच्चों ने इसीलिए उनका नाम ठुकरहवा मास्टर साहब या पंडिजी रख छोड़ा था। वे जाति से पंडित अर्थात् ब्राह्मण थे। वे लगभग पूरे ही दिन बरामदे पर घूम रहे होते और देखते जाते कि कोई चुप तो नहीं लगा रखी है। हमलोगों के जिम्मे एक से लेकर चालीस तक का पहाड़ा होता। इसे लगातार ऊंचे स्वर में बोलना पड़ता। आवाज में तनिक भी उतार-चढ़ाव वे बर्दाश्त न करते। आवाज मद्धिम पड़ी नहीं कि उनकी लाठी बगैर किसी पूर्व-सूचना के हमारे सिर से स्नेह दिखा रही होती। नतीजतन, चालीस तक का पहाड़ा हमलोगों की जुबान पर होता। टिफिन के बाद वाले समय में हमलोग आरोही-अवरोही क्रम में गिनती दुहराते। पहली बार में सीधा एक से सौ तक और फिर सौ से चलकर एक तक पहुंचते। ठीक जैसे लौटकर ‘बुद्धू घर को आये।’ लेकिन इसे बुद्धू नहीं, बल्कि बुद्धिमान बनने का एक आवश्यक उपक्रम की तरह समझा जाता। आज मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया नीरस और उबाउ भले थी, लेकिन थी बड़े ही काम की।