Wednesday, September 15, 2010

लेकिन इसका पारिश्रमिक क्या होगा ?

सन् 2004 की बात है। मेरे मित्र डा. अशोक कुमार ने फोन पर सूचना दी कि आज शाम में दैनिक जागरण के प्रमोद कुमार सिंह से मिलने चलना है। प्रमोद जी हम दोनों ही के पुराने परिचित/मित्र हैं। हालांकि मुझे मिलने का प्रयोजन नहीं मालूम था फिर भी गया। प्रमोद जी ने हमलोगों को शशिकांत जी (प्रमोद जी के शशि भैया) से मिलवाया। उन्होंने अपनी योजना के बारे में हमें विस्तार से बताया। दरअसल बिहार के ऐतिहासिक स्थलों को लेकर वे एक स्तंभ प्रारंभ करना चाहते थे। बात बुरी नहीं थी। लेकिन बात करने की उनकी ‘उद्धारक शैली’ व अंदाज से चिढ़ हो आई। उनके कहने का भाव था कि वे एक ‘प्लेटफार्म’ प्रदान कर रहे हैं जिसके माध्यम से हम अपना ‘बाजार मूल्य’ सृजित कर सकते हैं। वे यह कहना भी न भूले कि ‘पहले जुड़िए, फिर देखिए हम आपके लिए क्या करते हैं!’ वे मुझे ‘आदमी’ बना देने का लोभ दिखा रहे थे। वैसे पैसों को लेकर एक उदासीन भाव ही रहा है मुझमें लेकिन शशि भैया की बातों ने मेरे अंदर ‘पारिश्रमिक’ की बात पैदा कर दी। अतएव मैंने पूछ ही लिया-‘लेकिन इसका पारिश्रमिक क्या होगा?’  यह कहना था कि ‘गगनविहारी’ (दरअसल पूरी बातचीत उन्होंने एक खास ऊंचाई से की।) शशि जी धड़ाम से धरती पर गिर पड़े। फिर भी पहलेवाली मुद्रा नहीं छोड़ी। उन्हीं बातों को दोहरा दिया। मैं भी कहां माननेवाला था। पारिश्रमिक की ‘टेक’ का फिर मैंने सहारा लिया। इस बार वे आग-बबूला थे। समझते देर न लगी कि लाख कोशिश करो यह इंसान ‘आदमी’ बनने से रहा। वे बोले, ‘आपको हजार-पांच सौ तो नहीं ही दे सकते न!’ मुझे ऐसी ही उम्मीद थी। मेरा भी जवाब तैयार था। मैंने कहा, ‘तो फिर सौ-पचास के लिए मैं ‘‘सिंदूर-टिकुली’’ पर नहीं लिख सकता ।’ दरअसल वे मुझे ‘नौसिखुआ’ की तरह ले रहे थे जबकि मैं इस ‘बोध’ से भरा था कि ‘अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में जितना लिख गया हूं उतना तो इस आदमी ने अब तक पढ़ा भी न होगा।’  एक बार फिर मैं ‘व्यावहारिक’  सवाल उठाकर ‘अव्यावहारिक’ हो गया।

चार वर्ष पुरानी बात अब जाकर रंग ला रही थी। संभवतः 2007 में श्रीकांत जी ने मुझसे किसी प्रोजेक्ट की चर्चा की। सन् 1857 से संबंधित कुछ विषयों पर लिखना था। इसके लिए पांच हजार रुपये मिलनेवाले थे। एक माह के अंदर मैंने बारी-बारी से सारी सामग्री श्रीकांत जी को दे दी। अंतिम किस्त दे चुकने के बाद श्रीकांत जी ने बताया कि सामग्री शशिकांत को शायद पसंद न आई। नतीजतन इस बार भी ‘पारिश्रमिक’  मुझे न दिया जा सका। अलबत्ता कुछ पूंजी भी घर से चली गई। दरअसल लिखने के क्रम में मैंने कुछ आवश्यक किताबों की खरीद कर ली थी। चार-पांच दिनों की स्कूल से छुट्टी भी ले रखी थी। कुल-मिलाकर ‘प्रोजेक्ट’ मुझ पर भारी पड़ गया। बुद्ध की तरह मुझे भी ‘ज्ञान’ मिला कि लेखक बनना अगर है तो पारिश्रमिक का सवाल नहीं उठाना है । वे लेखक भाग्यशाली लोग थे जो ‘मसिजीवी’  थे। वह दौर हिंदी साहित्य से कब का उठ गया!

1 comment:

  1. मैने भी अब फैसला किया है कि किसी पूंजीपति अख़बार के लिये मुफ़्त में कुछ नहीं लिखूंगा…सबके लिये लेखक ही सबसे फालतू चीज़ है…

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