Monday, August 30, 2010

और वह सड़क समझौता बन गयी

अनिल विभाकर
उन्हीं दिनों नवल जी की पुस्तक ‘कविता की मुक्ति’ हाथ लगी। उससे पहले ‘हिन्दी आलोचना का विकास’ पढ़ चुका था। ‘कविता की मुक्ति’ पढ़ते-पढ़ते धूमिल पर लिखने की मेरी इच्छा हुई। मैंने एक लेख लिखा भी। हाल ही में  परिचित बने युवा आलोचक भृगुनन्दन त्रिपाठी ने उसे माँगकर देखा। कहना होगा कि भृगुनन्दन त्रिपाठी नये लड़कों को तरजीह देते थे अथवा यों कहें कि उनके लिए वे सुलभ बने रहने की भरसक कोशिश करते थे। पटने की साहित्यिक संस्कृति में तब नवल जी का ‘विरोधी’ होना भी ध्यानाकर्षण का कारण होता था। खैर, त्रिपाठी जी ने मेरा लेख पढ़कर कहा, ‘राजू जी, आपका लेख पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है मानो नेमिचन्द्र जैन को पढ़ रहा हूँ।’ मेरे पल्ले बात कुछ पड़ी नहीं क्योंकि एक तो नेमिचन्द्र को मैंने पढ़ा नहीं था और दूसरे मेरे दिमाग में उनकी छवि नाटक की दुनिया के एक आदमी की बन चुकी थी। फिर भी मैं अपनी तुलना नेमिचन्द्र जैन से होते देखकर फूले न समा रहा था। त्रिपाठी जी एवं कर्मेन्दु शिशिर (तब दोनों में काफी आत्मीयता थी। रहते भी आस-पास ही थे।) दोनों ही ने मेरे इस लेख को ‘साक्षात्कार’  में छपवाने की बात कही। इसी बीच ‘साक्षात्कार’ के संपादक हरि भटनागर किसी सिलसिले में पटना आये और उनका कहानी-पाठ भी आयोजित हुआ। शायद भीड़-भाड़ या किसी और सम्भव कारण से मेरा यह लेख भटनागर जी को देना सम्भव न हो सका। कई दिनों के बाद जब मैंने फिर चर्चा की तो त्रिपाठी जी ने कहा, ‘राजू जी, दरअसल उस लेख में इतिहास प्रधान हो गया है और साहित्य गवाक्ष होकर रह गया है ।’ मुझ जैसे इतिहास के विद्यार्थी पर साहित्य का ‘गवाक्ष’ भारी पड़ गया और उसके बाद से मैं अपने ही राजमार्ग पर निर्भय हो चलने लगा।

धूमिल वाले लेख को लेकर मैं दैनिक हिन्दुस्तान के दफ्तर पहुंचा । हिन्दुस्तान  में साहित्य का एक पेज निकलता था जिसका संपादन अनिल विभाकर करते थे। वे मेरा लेख देखकर थोड़ा मुस्कराए और बोले ‘इन लोगों को जहां जाना था वहां पहुंच चुके। अब लिखने से क्या होगा।’ मुझे यह बात समझ में न आई। कई बार उन्हें अपने लेख की याद दिलाई लकिन अपने इरादे से हिल न रहे थे। इनकी कही बात का गूढ़ार्थ अब जाकर कुछ-कुछ खुलने लगा था। मुझे एक तरकीब सूझी। उसका इस्तेमाल करने में कोई दोश न दिखा। दरअसल मेरे पास रेडियो से समीक्षा हेतु प्रदत्त पुस्तक ‘शहर से गुजरते हुए’ पड़ी थी। उस संग्रह में उनकी भी एक कविता थी। एक दिन मैंने चर्चा के दौरान कहा कि बहरहाल ‘शहर से गुजरते हुए’ की समीक्षा रेडियो के लिए लिख रहा हूं। उसमें आपकी भी एक कविता है। बडी ही निर्दोष कविता है, अच्छी है। फिर क्या था। उनका दिल कविता की उष्मा से हिमनद की तरह पिघलने लगा। अपने खास अंदाज में बिहंसते हुए बोले, ‘आपका लेख ब्रोमाइड करके काफी दिनों से रखा हुआ है। इस हफ्ते निकल जायेगा।’ वाकई अब लेख प्रकाशित था। शीर्षक था ‘और वह सड़क समझौता बन गयी’ (प्रकाशन तिथिः 8 नवंबर’ 93)।


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