वे स्वभाव से काफी सख्त, अनुशासनप्रिय व एक संयत इंसान थे. हम छात्रों के साथ कभी अवांछित नहीं बोलते. उनके बैठने की जगह के पास एक दराज वाला टेबल होता और बगैर हाथ की एक कुर्सी होती. उसी टेबल पर शिक्षकोपस्थिति व छात्रोपस्थिति पंजी रखी होती. उनके ठीक दाहिनी ओर दरवाजा होता जिसकी ओट में वे बार–बार खैनी की पीक दांतों के बीच से पिच आवाज के साथ फेंकते. थोड़े दिनों तक मैंने भी इस आदत का आज्ञा की तरह पालन किया था.
वे विद्यालय आते तो अपने साथ कपड़े का सिला एक झोला अवश्य लाते. आने में कभी विलम्ब कर देते या कोई शिक्षक ही उनसे पहले पहुँच चुके होते तो हम छात्रों में से कोई उनके घर जाता और ऑफिस की चाबी ले आता और उस कमरे को खोल बैठने आदि के लिए लकड़ी का तख्ता निकल लेते. पूरे विद्यालय परिसर में झाड़ू आदि लगाने का काम भी हमी छात्रों के जिम्मे था. प्रायः प्रत्येक शनिवार को छात्र बगल के घर से गोबर चुरा /उठा लाते और छात्राओं के जिम्मे फर्श लीपना होता. इन कार्यों की देखरेख का जिम्मा मुझ जैसे मोनिटरों को लेना होता.
सबसे नायाब था उनका पढने का तरीका. वे हमें हिंदी पढ़ाते. पाठ्य-पुस्तक की रीडिंग पर एकमात्र जोर होता. यानि हमलोग रोजाना ही उनकी घंटी में हिंदी की किताब निकालते और क्रमशः खड़े होकर बोलकर पढ़ते. बीच-बीच में वे शब्द के हिज्जे भी पूछते चलते. किताब पढ़ रहे छात्र से अगर किसी शब्द का सही-सही उच्चारण नहीं हो पाता था तो बगल (आगे-पीछे) के छात्र से पूछा जाता. अगल-बगल के छात्र भी जब सही उच्चारण कर पाने में असमर्थ साबित होते तो उनका फरमान जारी होता कि जिसे मालूम है वह उच्चारण करे. जो छात्र बता देता वह सबकी पीठ पर एक-एक मुक्का लगाता. मेरी भाषा अन्य छात्रों की तुलना में बेहतर थी इसलिए मुक्का लगाने का सुख ज्यादातर मुझे ही हासिल होता. याद नहीं कि उच्चारण-दोष की वजह से मुझे मार लगी हो. अलबत्ता मथुरा रजक से सम्बंधित एक घटना की याद अवश्य ही अबतक बनी हुई है. कहना न होगा कि उसकी हिंदी बहुत ही गड़बड थी. एक अनुच्छेद पढने में उसने बीसेक गलतियाँ की थीं और मैंने कुछ इतने ही मुक्के लगाये थे. जहाँतक याद है, वह बीमार हो गया था और कई दिनों तक विद्यालय नहीं आ सका था.
सहज रचना....वैसे यह "नालिश" है "नालिस"....मुझे भी नहीं पता.
ReplyDeleteYour frankness and honesty makes your writing interesting but at times you seem to be glorifying outdated values .
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