Monday, November 22, 2010

बुद्ध और बहनजी

इन्हीं दिनों राजेन्द्र प्रसाद नाम के एक शिक्षक आए जो हमें इतिहास पढ़ाते. जैसाकि उन दिनों हमलोगों को बताया गया, उनका घर पावापुरी था. इस बात की भी हल्की स्मृति अबतक बनी है कि उन्होंने इसका सम्बन्ध गौतम बुद्ध के जीवन से जोड़ा था. वे हमें बुद्ध से सम्बंधित कथा–कहानियाँ सुनाते. बाद के दिनों में वे हमारे ही गांव के एक व्यक्ति के यहाँ रहने भी लगे. बाहर से आनेवाले शिक्षक अक्सर गांव के किसी आदमी के यहाँ ही रहते. उनदिनों तो इस बात का कभी ख्याल नहीं आया लेकिन अब जाकर ध्यान देता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे शिक्षक अपनी ही जाति के ग्रामीण के यहाँ रहना पसंद करते थे. ऐसा संभव नहीं होने पर ही वे दूसरे विकल्प की तलाश करते या उसे स्वीकार करते होते. एक और शिक्षक थे जो बगल के गांव (मसौढी-पटना सड़क पर स्थित धनरुआ) से आते. वे सायकिल से आते इसलिए हमलोग उन्हें सायकिल वाला माट्सा कहते. शायद इसलिए भी कि सायकिल होना भी उन दिनों महत्व की बात रही होगी. जहां तक मुझे याद है, मैं चौथी–पांचवीं में पढ़ता होऊंगा कि मेरे फूफा के भाई सायकिल से आए थे और गांव के ही एक व्यक्ति के दरवाजे पर छोड़ आए थे. उसे लाने के लिए हम दो भाइयों को जब कहा गया तो तनिक प्रसन्न न हुए थे. ये और बात है कि उसे घर तक लाने में जो परेशानी और फजीहत का सामना करना पड़ा था उससे खुशी थोड़ी कम हो चली थी. उसी दिन जाकर यह ज्ञान हुआ कि अगर आप सायकिल चलाना नहीं जानते हैं तो उसे केवल साथ लिए चलना भी आसान काम नहीं होता. अब मैं तीसरी कक्षा में था जब स्कूली जीवन में थोड़ी हलचल महसूस की. स्कूल के वातावरण में यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल–फैला दी गई कि शीघ्र ही एक मास्टरनी साहब (साहिबा कहना तब शायद हमारे शिक्षक भी नहीं जानते होंगे. हालाँकि इसे बहुत भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता) हमलोगों को पढ़ाने हेतु आ रही हैं. बस अब क्या था बच्चों–शिक्षकों को चर्चा का स्थायी विषय हाथ लग गया. सच पूछिए तो मैं थोड़ा डरा–सा महसूस करने लगा था. औरतें भी शिक्षक हो सकती हैं यह मेरी कल्पना में अबतक बिल्कुल भी नहीं था. उनसे कैसे पढ़ा जाया जायेगा. कैसे बात की जायेगी–ऐसे तब के महत्वपूर्ण सवाल मेरे दिमाग में उठने लगे और कहूँ कि उस बदले माहौल के लिए साहस बटोरने का काम भी शुरू कर दिया था. मेरी इस समस्या को हमारे शिक्षकों ने आसान बनाया. उन्होंने कुछ आवश्यक ट्रेनिंग और हिदायतें हमें दीं. पहली हिदायत तो यही थी कि हमलोग उन्हें मास्टरनी साहब नहीं बल्कि बहनजी कहेंगे. हम सभी इसकी आवश्यक तैयारी में लग गये. लेकिन शिक्षक को बहनजी कहने की मनःस्थिति में होना हमारे लिए इतना आसान नहीं था. पितृसत्तात्मक समाज के मूल्यों से संचालित हमारा मन-मस्तिष्क बीच–बीच में अड़ जाता और मुँह से बहनजी की बजाय मास्टर साहब ही निकल आता. बहनजी कहते मैं झेंप भी महसूस करता. लेकिन धीरे–धीरे स्थिति सामान्य होती गई. हमलोगों ने इसे जितना हौवा बना लिया था या जितना मैं डरा हुआ था वैसी कोई बात नहीं हुई. इसमें शायद इस बात का भी योग हो कि वे मेरे ही ग्रामीण थीं और उनके परिवार का एक छात्र मेरा सहपाठी था. उनके आए कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन अचानक हमलोग पांच–छह बच्चों को उनके घर जाने हेतु चुना गया. हालाँकि चुनाव में शरीर और उसके वजन का खासा ख्याल रखा गया था फिर भी बात समझ में न आ सकी थी, घर जाकर ही हमलोगों को पाता चला कि ढेंकी चलाकर चूड़ा कूटना है. इसके लिए निश्चय ही अपेक्षाकृत भारी शरीरवाले बच्चों की जरूरत थी. हमलोगों ने मजे में इस काम को अंजाम दिया और वहीँ से सीधे घर चले आए. आज शायद शिक्षक बच्चों से अपना काम करना उतना आसान नहीं समझ सकते.

Saturday, November 20, 2010

पटनावाला माट्सा

दूसरी कक्षा में गया तो एक और शिक्षक से नाता जुड़ा. दरअसल वे नए–नए विद्यालय में आए थे. वैसे उनका नाम सूर्यदेव पासवान था लेकिन हम बच्चे उन्हें नयका माट्सा (मास्टर साहब का संक्षिप्त रूप) या पटनावाला माट्सा कहते. वे गहरे काले रंग के थे. लेकिन थे सफाई पसंद. उनके वस्त्र झक झक सफ़ेद होते. प्रायः प्रत्येक शनिवार को वे प्रार्थना से पहले पी.टी. की घंटी में प्रत्येक छात्र का बारीकी से अध्ययन करते. कौन स्नान करके आया है या नहीं इसकी पूरी खबर ली जाती. एक-एक बच्चे के नाख़ून देखे जाते कि वे कायदे से काटे गए हैं अथवा नहीं. जो पकड़ में जाते उनकी पिटाई तय थी. वे खुद भी अपनी सफाई का ध्यान रखते. उनके बाल कायदे से कटे हुए होते. कानों के आसपास के पके बाल अच्छे लगते. कभी कभी विद्यालय गमकउआ जरदा का पान खाये आते. उनके वास्ते हमलोग कभी मटर की फलियां तोड़कर लाते तो कभी चना-खेसारी का साग काटते. कभीकभी सत्तू की भी मांग भी रखते. पटना जैसे शहर में तब इन चीजों को और भी मूल्यवान समझा जाता रहा होगा. कोर्स की किताबों के साथसाथ वे हमें कहानियाँ भी सुनाते. अधिकतर कहानियां रामायणमहाभारत से होतीं. इन कहानियों को सुन मेरा मन रोमांचित हो उठता. त्याग और वीरता की कहानियाँ सुनते हुए ऐसे भाव सहज ही पैदा होने लगते. मेरे व्यक्तित्व को गढ़ने में निश्चय ही उनका और उनकी कहानियों का योगदान है. पटने में वे एक बार दूर से दिखे तो पहचान में नहीं रहे थे. बुढ़ापे की वजह से चेहरा बदल गया था और कपड़ों की वह चमक भी जाती रही थी. हाँ जब उनको याद करता हूँ तो एक और रूप ध्यान में आता है. वे कुछ दिनों तक विद्यालय धोती की जगह लुंगी में आया करते थे. उन दिनों तो इस विशिष्टता के बारे में सोंच नहीं पाया था लेकिन अब उसका अर्थ समझ में आता है. दरअसल उन्होंने परिवार नियोजन कराया था. इंदिरा गाँधी के शासन का यह अंधा दौर था जब बड़ी संख्या में लोगों का उनकी इच्छा के विरुद्ध बंध्याकरण कर दिया जाता था. थोड़ दिनों तक हम बच्चे भी अकेले निकलने में डर महसूस करते. इस अभियान की यह बुरी याद अबतक बनी हुई है.