Friday, August 6, 2010

क्रांति ड्रामा करने गयी है



1984 में मैट्रिक की परीक्षा पास कर मैं पटना के सैदपुर छात्रावास में अपने बड़े भाई (अखिलेश कुमार) के साथ रहने लगा। कथाकार हंसकुमार पांडेय भी तब साथ रहा करते थे। पांडेय जी कहानियों में ही नहीं, सामान्य बातचीत में भी कथा बुनते नजर आते। वे दोनों जब आपस की बातचीत शुरू कर देते तो पटने की साहित्यिक मंडली के नायकों-खलनायकों की जानकारी सहज ही सुलभ होने लगती। कुछ चरित्र तो ऐसे थे जो बातचीत के क्रम में बार-बार आते। नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, आलोक धन्वा, तरुण कुमार एवं अपूर्वानंद का नाम मैंने उन्हीं दिनों जान-सुन रखा था। आलोक धन्वा का नाम वे खास अंदाज और संदर्भ में लेते।

पांडेय जी ने एक दिन किसी स्टडी सर्किल की एक कथा सुनायी। आलोक धन्वा अपनी या किसी और की कविता का पाठ कर रहे थे। कविता शायद कुछ इस तरह शुरू होती थी-‘कुल्हाड़ी फेंक के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी फेंक के मारो।’ तभी आलोचकीय बुद्धि से लैस एक वकील उठ खड़ा हुआ और कहने लगा-‘कॉमरेड, आपने तो भारी भूल कर दी। कुल्हाड़ी थाम के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी थाम के मारो ।’ आलोचना का सार यह था कि कुल्हाडी़ फेंककर मारने पर हथियार वर्ग-शत्रु के हाथ लग सकता है जो क्रांति के साथ गद्दारी है। मेरी छोटी बुद्धि तब इसे समझ न पायी थी, लेकिन आलोक धन्वा मेरे लिए एक अद्भुत जिज्ञासा की चीज बन चुके थे। उनकी कविताओं से पहली बार मेरा सीधा परिचय हंस के माध्यम से हुआ। उनकी कविताएं मुझे दूर तक आकर्षित करतीं। मिलने की चाह तेज होती गई और अंततः भिखना पहाड़ी स्थित उनके आवास पर पहुंच ही गया। पहली बातचीत कैसे शुरू हुई थी, मुझे आज कुछ भी याद नहीं है-सिर्फ इतना कि लगभग घंटा भर वे बोलते रहे थे। बातचीत के क्रम में उन्होंने घर की दीवार पर सटे पोस्टर ‘हैंड्स ऑफ क्यूबा’ की भी चर्चा की। आलोक की जब भी याद आती है, ‘हैंड्स ऑफ क्यूबा’ भी मूर्त हो उठता है।

धीरे-धीरे आलोक धन्वा मेरी जरूरत बनने लगे। महीने-दो-महीने पर उनसे अवश्य मिल लेता। उनसे जब भी मिला, बोलता हुआ ही पाया। हालांकि बीच-बीच में कह डालते कि डॉक्टर ने थोड़ा कम बोलने को कहा है, लेकिन इस हिदायत पर अमल मुझ जैसे श्रोता को ही करना पड़ता। वे एक अति संवेदनशील वक्ता थे। श्रोता के मनोभावों का खास ख्याल रखते थे। दूसरों की मौजूदगी में प्रायः ही कहते, ‘राजू समाजशास्त्र के विद्वान हैं।’ मेरे लिए यह शायद सांत्वना पुरस्कार की तरह होता। मेरा भी कद कुछ-कुछ बड़ा हो जाता। अचानक विद्यार्थी से विद्वान हो जाता। इससे ज्यादा किसी को भला क्या चाहिए ! बातचीत का विषय काफी विस्तृत और आत्मीय होता। देश-दुनिया की बात करते-करते वे अपने बारे में, स्वास्थ्य के बारे में, और यहां तक कि अपने कमरे के बारे में भी घंटों बोल जाते। यह भी कि उस कमरे को अब छोड़ा नहीं जा सकता, चाहे कितना भी महंगा क्यों न हो। उस फ्लैट का ऐतिहासिक महत्त्व जो हो चला था। फणीश्वरनाथ रेणु और भगवत रावत सरीखे लोगों की यादें जुड़ी थीं उससे। निजी जिंदगी से जुड़ी कहानियों का अक्सर वह एक लोक रचते और बताते कि मिर्जापुर में कभी उनकी भी एक छोटी-सी जमींदारी हुआ करती थी। इन कहानियों में उनके पिताजी सदैव दोनाली बंदूक रखते, लेकिन कभी किसी की हत्या नहीं की। ‘मिर्जापुर की जमींदारी’ की चर्चा उनके वकील भाई भी करते।

जब मैं स्वरूप विद्या निकेतन में हिंदी शिक्षक के रूप में काम कर रहा था तभी एक दिन मिर्जापुर से एक सज्जन वहां पधारे। पूछने पर पता चला कि वे पेशे से वकील हैं और यह भी कि उनकी एक जमींदारी भी है। अनायास ही मैंने पूछ डाला कि कहीं आप मेरे शहर के चर्चित कवि आलोक धन्वा के भाई तो नहीं ? लगभग चौंकते हुए उन्होंने पूछा-‘क्यों ?’ मैंने कहा, ‘मिर्जापुर में एक छोटी-सी जमींदारी उनकी भी हुआ करती थी।’ वे मुझे आश्चर्य और विस्मय से घूरने लगे।    

आलोक धन्वा एक ‘स्वास्थ्य-सजग-जनवादी’ कवि थे। घर से बाहर भी वे हमेशा अपना ही पानी पीते। मैंने पानी की इनकी बोतल तब देखी थी, जब पटने की ‘स्वास्थ्य-संस्कृति’ के लिए यह लगभग ‘हास्य-विनोद’ की चीज थी। अब तो अधिकतर लोग उनके अनुयायी हो चले हैं। जनवाद बढ़ा-फैला-सा लगता है। पीने के पानी के बारे में वे मुझसे भी पूछते। जब मैं कहता कि ‘चापाकल का पानी पीता हूं’ तो वे अचरजभरी निगाहों से देखते और समान प्रश्न को दुहराते, ‘आप हैंडपंप चला लेते हैं ?’ मैं ‘हां’ में जवाब देकर मन ही मन मजदूरिनों पर लिखी उनकी कविताओं पर पुनर्विचार की मुद्रा में आ जाता। बातचीत में कभी-कभी वे अधिक समय लगा देते तो बीच में बाथरूम (यूरिनल) की दरकार हो आती। पूछने पर रेडीमेड जवाब देते-‘इस्तेमाल के लायक नहीं है।’ यह सच भी हो सकता था लेकिन मुझे लगता है कि वे ‘सफाई-पसंद’ आदमी हैं, अतएव ‘परहेज’ रखते हैं। वे जब भी किचेन जाते, एप्रन जरूर लटका लेते। वे अपने घर में उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी उपन्यास के नायकों की तरह रहते।

  सन् 1991 में मैं एम. ए. (इतिहास) में दाखिला ले चुका था। विजय कुमार ठाकुर के संरक्षण में अशोक जी ने इतिहास विचार मंच की स्थापना की, जिसका मुझे संयोजक बनाया गया। इस संस्था का प्रमुख काम अकादमिक महत्त्व के विषयों पर लेक्चर आयोजित करना था। इसी सिलसिले में हमलोग एक दिन आलोक धन्वा से जा मिले और ‘प्राचीन भारत में जाति-व्यवस्था’ विषय पर अपनी बात रखने के लिए उनसे आग्रह किया। लगभग आध घंटे तक वे तफसील में बताते रहे कि किन-किन महत्त्वपूर्ण गोष्ठियों की उन्होंने अध्यक्षता की है। इस बात को भी रेखांकित किया कि कैसे आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा ने उनसे एक बार किसी गोष्ठी की अध्यक्षता करवायी थी, जब वे महज इंटर के छात्र थे। लगभग आध घंटे की अपनी विरुद्गाथा से निवृत हो उन्होंने बदली हुई भंगिमा में कहना शुरू किया ‘राजू भाई, अगर कोई जाति-पांति की बात करता हो तो वैसे लोगों पर थूक दीजिए।’ मैंने हल्का प्रतिवाद करने की कोशिश की-‘आलोक जी, मैं जाति की राजनीति करने की कोई मंशा नहीं रखता। मेरा उद्येश्य तो समस्या का समाजशास्त्रीय अध्ययन भर है।’ पर वे कहां माननेवाले थे। जब वे अपनी रौ में होते तो सामनेवाले की शायद ही सुनते थे। फिर वे अपने मूल कथन को ही दुहराने लगे। मैं तो लिहाजवश चुप ही रहा किंतु अशोक जी ने अपना मुखर मौन तोड़ा। कहने लगे, ‘आलोक जी, सच्चाई यह है कि जाति-पांति का नाम लेनेवाले हर आदमी पर अगर इसी तरह थूकते रहे तो आप डिहाइड्रेशन के शिकार हो जायेंगे और दैवयोग से अगर बच भी गये तो अपने ही थूक के अंबार में डूबे जीवन की भीख मांगते नजर आयेंगे। वैसे, इसकी कम ही संभावना है कि ऐसा करने को आप बचे भी रहें।’   

आलोक धन्वा एक लंबे समय से एकाकीपन में जीते आ रहे थे। शादी नहीं की थी। इस लायक किसी को समझा नहीं था शायद। या फिर कोई और ही कारण हो सकता है। कभी-कभी वे शारीरिक दुर्बलताओं का भी जिक्र किया करते। किंतु इन दिनों शादी को लेकर कुछ-कुछ गंभीर होने लगे थे। ‘छतों पर लड़कियां’ कविता का ठीक यही समय है। एक दिन वे खाने-पीने की दिक्कतों की बात करने लगे। मैंने सलाह दी, ‘कोई नौकर क्यों नहीं रख लेते ?’ इसपर वे बोल उठे-‘नौकर बहुत महंगा हो गया है। खाता भी बहुत है। उतने खर्च में तो एक बीबी भी रखी जा सकती है।’ वे जानते थे कि मेरी शादी हो चुकी है, इसलिए पूछ बैठे-‘राजू भाई, आपकी कोई बड़ी साली है ?’ मैंने मजाक के लहजे में कहा, सर, मेरी पत्नी बहनों में सबसे बड़ी है। अफसोस!’ ‘कोई बात नहीं, इधर-उधर ही देखिए’, वे कहने लगे। आगे उन्होंने अंतिम सत्य की तरह जोड़ते हुए कहा, ‘आप तो मेरी जाति जानते हैं न राजू भाई ? आप भूमिहार हैं न! मैं भी वही हूं!!’

एक दिन अखबार से मालूम हुआ, ‘छत की लड़की’ उनके आंगन में दाखिल हो चुकी है, अर्थात् उन्होंने शादी कर ली है। हमलागों के लिए यह खबर बहुत रोमांचक थी। मैं तब अशोक जी के साथ सुनील जी के मकान में (लालबाग मोहल्ले में) रहा करता था। मैं, अशोक जी और सैदपुर छात्रावास के दिनों के (संभवतः 1984) पुराने परिचित सियाराम शर्मा (तब सियाराम शर्मा ‘व्यथित’) तीनों साथ-साथ आलोक धन्वा को शादी की बधाई देने पहुंचे। तीनों का बारी-बारी से पत्नी से परिचय कराया। अशोक जी के परिचय में उन्होंने ठीक-ठीक कौन-सा वाक्य कहा था, फिलहाल मुझे याद नहीं है। मेरा परिचय देते उन्होंने बताया-‘आप राजू भाई हैं, मेरे पुराने प्रेमी और प्रशंसक।’ यह भी जोड़ा कि ‘ये मेरे एकांत के दिनों के साथी रहे हैं और समाजशास्त्र के विद्वान हैं।’ फिर व्यथित जी का परिचय दिया, ‘आप हिंदी के विद्वान और साहित्य के गंभीर आलोचक हैं।’ तब सियाराम जी की आलोचना-पुस्तिका कविता का तीसरा संसार ,पहल पत्रिका से प्रकाशित होकर आ चुकी थी। इसमें आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल एवं कुमार विकल की कविताओं की समीक्षा थी। हालांकि अपने साथ गोरख पाण्डेय को पाकर आलोक धन्वा, सियाराम जी से थोड़ा नाराज भी थे। कवियों की जमात में ‘गीतकार’ को शामिल करना आलोक को अच्छा न लगा था। खैर, अब आलोक अपनी पत्नी का परिचय देनेवाले थे। उन्होंने अभिनय की मुद्रा बनाते कहा, ‘आप हैं क्रांति भट्ट। बैट (बिहार आर्ट थियेटर) की प्रख्यात अदाकारा। और फिलहाल ये कंप्यूटर से खेल रही हैं।’ हमलोगों को काफी देर की मगजमारी के बाद मुश्किल से मालूम हुआ कि स्थानीय आज अखबार के कंप्यूटर विभाग में नौकरी करती हैं।

शादी के बाद जब कभी आलोक धन्वा से मिलने जाता तो वे काफी व्यस्त हो जाते। खिड़कियों-दरवाजों के परदे दुरुस्त करते और कहते जाते-‘राजू भाई, अब मैं पारिवारिक हो गया हूं न !’ मेरे मन को थोड़ा विनोद सूझता और मन ही मन बोलता, आलोक धन्वा ने ‘पारिवारिक’ होने में इतना समय लिया है, पता नहीं ‘सामाजिक’ बन पायेंगे भी या नहीं। साथ बैठी होने पर पत्नी को अक्सर ‘बच्ची’ कह संबोधित करते। बातचीत के क्रम में सहज ही कह जाते, ‘क्रांति तो मेरी बेटी के समान है, बच्ची है।’ पत्नी को ‘बेटी’ बनना पसंद न था और आलोक धन्वा थे कि उसे बेटी बनाकर पिता का असीमित अधिकार हासिल कर लेना चाहते थे। वे क्रांति की सामान्य दिनचर्या की छोटी-से-छोटी चीज में दखल देते और अपनी बात पास करवाना चाहते। मसलन, उसे कब दही खाना चाहिए और कब नहीं, इस तक का भी वे ‘ख्याल’ रखते। क्रांति का नाटक के लिए घर से बाहर निकलना अब उन्हें अखरता था। एक दिन वे मुझसे कहने लगे, ‘राजू भाई! क्रांति, रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जा रही है। आप तो जानते हैं कि रघुवीर सहाय की कविताओं में अद्भुत नाटकीयता है। उसका निर्वाह क्रांति से संभव न हो सकेगा। इसलिए मैंने तो कह रखा है कि रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जाओगी, तो मेरे सीने से होकर गुजरना पड़ेगा। मैं हिंदी कविता का अपमान सहन करने के लिए जीवित नहीं रह सकता।’ एकबारगी मेरी आंखों के सामने ‘कुलीनता की हिंसा’ का बिंब जीवित हो उठा। क्रांति तो गईं, किंतु आलोक ‘जीवित’ रह गये।

  व्यथित जी जब कभी पटना आते और हमलोग मिल-बैठते तो आलोक धन्वा की चर्चा अवश्य होती। आलोक की कविताओं से व बेहद प्रभावित थे। वे जब बात करने लगते तो निर्दोष बच्चों-सी ललक दिख पड़ती उनमें। मैं कभी कहता भी कि ‘आपने आलोक धन्वा की सिर्फ कविताएं पढ़ी हैं, जीवन नहीं देखा है,’ तो हल्के-से प्रतिवाद के साथ बच निकलने की कोशिश करते। मुझे लगता वे अपना विश्वास नहीं तोड़ना चाहते और मैं चुप लगा जाता। लेकिन यथार्थ तो परछाई की तरह है। उससे बहुत दिनों तक बचा तो नहीं जा सकता न। एक दिन की बात है कि अशोक जी को साथ लेकर व्यथित जी, आलोक धन्वा से मिलने चले गये। वहां से लौटे तो बहुत ही उदास और अशांत थे। पूछने पर बताया कि ‘क्रांति के साथ निभ नहीं रही है। वे (क्रांति) गुस्से में लगातार चीख के साथ बरतनें तोड़ी जा रही थीं।’ मैं यह सब सुनकर बहुत उदास और दुखी नहीं हुआ। ऐसी स्थिति की आशंका मुझे पहले ही से थी। एकांत के क्षणों में आलोक धन्वा कहने लगे थे, ‘राजू भाई, मैंने दरवाजा खुला छोड़ रखा है। क्रांति जिस दरवाजे से होकर आयी है, जा भी सकती है।’ मैं सोचता, लोग ठीक ही कहते हैं कि कवि ‘अव्यावहारिक’ जीव होता है। व्यथित जी इस घटना के बाद खासे डरे लग रहे थे। वे भी अपनी शादी को लेकर गंभीर हो रहे थे, वह भी दूसरी के लिए।

इधर कुछ दिनों से आलोक धन्वा मुझसे नाराज थे। व्यथित जी की पुस्तिका कविता का तीसरा संसार  की समीक्षा को लेकर। यह जबलपुर से निकलनेवाली अनियतकालीन पत्रिका विकल्प में छपी थी। दरअसल मैंने जो लिखा था उसका सार यह था कि आलोक धन्वा के यहां मुक्तिबोध के उलट कविता और जीवन दो अलग-अलग चीज हैं। समीक्षा को पढ़कर अथवा सुनकर आलोक धन्वा ने कुमार मुकुल से कहा था ‘राजू बदतमीज और चूतिया है।’ मुझे सहज ही विश्वास हो गया, क्योंकि कुमार मुकुल के बारे में मुझसे ठीक-ठीक यही वाक्य कहा था और यह भी कि ‘उसने मेरे घर में कागज-कलम पकड़ना सीखा है। आलोक धन्वा को ‘साहित्य के जनतंत्र’ में ‘असहमति’ मुश्किल से बरदाश्त होती थी। समीक्षा की आग मंद भी न पड़ी थी कि व्यथित जी पटना आ धमके। उन्हें उसी विकल्प पत्रिका का नक्सलबाड़ी अंक संपादित करने का दायित्त्व दिया गया था। वे चाहते थे कि आलोक धन्वा का एक लंबा (ऐतिहासिक) इंटरव्यू हो पत्रिका के लिए। इस उद्येश्य से वे अपने नायक कवि के पास पहुंचे ही थे कि वे बमक उठे। कहने लगे-‘शर्मा जी, मुझे समझ में नहीं आता कि राजू जैसा पाजी लड़का आपका मित्र कैसे हो गया।’ शर्मा जी के ज्ञान पर चोट थी यह, अतएव प्रतिवाद करने से अपने को रोक न पाये-‘क्या मुझमें यह विवेक भी नहीं कि अपने मित्र का चुनाव मैं स्वतंत्र होकर कर सकूं ?’ आलोक धन्वा को अपना दांव बेअसर होता लगा तो कहने लगे-‘जहां से पहल जैसी पत्रिका निकल रही हो वहां से विकल्प निकालने की क्या जरूरत है ?’ महाकवि का इंटरव्यू करने की शर्मा जी की ख्वाहिश पूरी न हो सकी। व्यथित जी अब भी पटना आते हैं, लेकिन आलोक धन्वा का नाम उन्हें उत्तेजित नहीं कर पाता।

एक दिन मैं स्वरूप विद्या निकेतन स्कूल में अपनी कक्षा से ज्योंही निकला तो पाया कि आलोक धन्वा निदेशक जनार्दन सिंह से बातचीत में उलझे हुए हैं। बहस का विषय था कि बच्चों को पीटा जाये अथवा नहीं। जनार्दन सिंह जहां बच्चों को पीटने के लाभ बता रहे थे वहीं आलोक उसे ‘सामंती समाज की देन’ बता रहे थे। दरअसल वे अपने वकील भाई के बेटे को छात्रावास में दाखिला दिलाना चाहते थे। जनार्दन सिंह, अर्थात् बच्चों के स्वघोषित ‘चाचाजी’ को आलोक धन्वा ‘सामंतों का लठैत’ घोषित कर चल निकले। मुझे भी साथ ले लिया। रास्ते में नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहा-‘चलिए राजू भाई, आज पैसों की दिक्कत नहीं है।’ बेली रोड स्थित बेलट्रॉन भवन में कोई कार्यशाला चली थी, उसके पैसे थे उनके पास। मैं ‘न’ नहीं कह पाया और चल दिया। डाकबंगला के पास पहुंचकर एक साफ-सुथरी (महंगी भी) दुकान से ब्रेड तथा नाश्ते का अन्य सामान लिया। अपने घर के पास हरा चना भी खरीदा। हमदोनों घर में दाखिल हुए। मुझे ड्राईंग रूम में बिठाकर खुद एप्रन में बंधे किचेन में जा घुंसे। हमलोगों ने साथ-साथ नाश्ता लिया। अपनी मशहूर काली चाय भी पिलायी। थोड़ा निश्चिंत होने पर मैंने पूछा ‘घर में कहीं क्रांति नहीं दिख रही है ?’ थोड़ी देर मौन साधकर बोले, ‘वह ड्रामा करने गयी है।’ 

प्रकाशन: जन विकल्प, पटना, संपादक-प्रेमकुमार मणि एवं प्रमोद रंजन, अगस्त, 2007।  

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