Saturday, August 28, 2010

अखबार में यह सब चलता है

जनशक्ति के बाद हिन्दुस्तान का दौर आरंभ होता है। दरअसल उन दिनों मैं सुलभ जी के नियमित संपर्क में बना रहता था। एक दिन उन्होंने हिन्दुस्तान के नागेन्द्र जी से मिलाया। वे स्वभाव से उदार और मिलनसार थे। नागेन्द्र मुझसे सांस्कृतिक घटनाओं की रिपोर्टिंग कराने लगे। मुझे भी अच्छा लगने लगा। गोष्ठियों में तो जाया ही करता था अब उसकी रिपोर्टिंग कर देने से कुछ पैसे भी मिलने लगे थे। एक छात्र को इससे ज्यादा भला और क्या चाहिए था ! मैं काफी खुश था। इन्हीं दिनों प्रगतिशील लेखक संघ, पटना ने एक गोष्ठी आयोजित की जिसका विषय था ‘मार्क्सवादी इतिहास लेखन के अतिरेक।’ इसके मुख्य वक्ता रामशरण शर्मा थे। अपूर्वानंद के आग्रह पर मेरे बड़े भाई अखिलेश कुमार ने भी अपने विचार रखे। और फिर मुझे भी कुछ कुछ बोलने का मौका मिला था। कुल मिलाकर इस गोष्ठी में तीन ही वक्ता थे। मैंने जो रिपोर्टिंग की थी या जो छपी उसमें उक्त तीनों नाम थे। इस रपट से नवल जी खासे नाराज हुए थे। उन्होंने मुझ पर भाई-भतीजावाद करने का आरोप भी लगाया था। सफाई में मैंने नवल जी को इतना ही कहा था कि ‘मैंने तथ्य की रिपोर्टिंग की है। तीन वक्ता थे और तीनों के नाम दर्ज हैं, इसलिए कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है।’ वे मुझसे असंतुष्ट थे ही इसलिए हिन्दुस्तान के संपादक को मेरी भर्त्सना (लगभग गाली) करते हुए पत्र लिख डाला। उक्त पत्र को दिखाते हुए नागेन्द्र ने कहा था -‘देखो, बिहार में कैसे-कैसे लोग (हालाँकि उन्होंने अपशब्द का प्रयोग किया था) होते हैं।’ मैं बेहद शर्मिंदा था।

सम्भवतः इसी साल अर्थात् सन् 91 में आकाशवाणी, पटना की तरफ से एक काव्य-संध्या आयोजित की गई थी जिसमें केदारनाथ सिंह समेत देश के कोने-कोने से हिन्दी के कवि पधारे थे। चूँकि साहित्य, और विशेषकर कविता से मेरा खास अनुराग (कभी-कभी डा. विजय कुमार ठाकुर मेरे साहित्य-प्रेम को देखते हुए हिन्दी, एम. ए. मे दाखिला ले लेने तक की बात तक कह डालते थे। वे अक्सर कहते कि तुम बेकार इतिहास में आ गये हो, तुम्हें तो हिन्दी विभाग में होना चाहिए था।) था, इसलिए इसकी रिपोर्टिंग के लिए मैंने विशेष तैयारी कर रखी थी। साथ ही यह भी अनुमान लगा रहा था कि यह ‘पीस’ कई कॉलमों में छपेगा और इसके अच्छे पैसे बनेंगे। मैंने अपनी तरफ से कोई कमी न छोड़ी थी। किन्तु जब छपने की बारी आयी तो नागेन्द्र जी ने बताया कि सम्पादक का उन पर दबाव है कि उक्त काव्य-गोष्ठी की रिपोर्टिंग वे खुद करें। इसलिए सम्भवतः नौकरी के दबाव में रिपोर्टिंग उन्हें अपने नाम करनी पड़ी। हालाँकि उन्होंने कह रखा था कि ‘राजू , बुरा मत मानना, अखबार में यह सब चलता है।’ अलबत्ता, मुझे मेरे नाम से न छपने के साथ-साथ पैसे न मिलने का भी दुःख था। यह सच है कि हिन्दुस्तान में रिपोर्टिंग मैंने पैसे को ध्यान में रखकर ही शुरू की थी। पत्रकारिता के ‘ग्लैमर’ को लेकर मैंने जो कुछ सोचना शुरू किया था उसको एक झटका लगा। इस घटना के बाद मुझे लगने लगा कि लिखने-पढ़नेवाले लोगों के लिए कम से कम अखबार की नौकरी से परहेज करना चाहिए।

2 comments:

  1. अखबार की अपनी सीमाएं है, लिखने-छपने को लेकर इसी लाइन के एक वरिष्‍ठ साथी कहते थे 'एक दिन की तो बात होती है, दूसरे दिन रद्दी. अखबारों का महत्‍व कम कतई नहीं, लेकिन ज्‍यादातर अखबारी मामले इसी तरह 'एक दिन' के होते हैं.

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  2. Possibly it is T S Eliot who said that our wisdom was lost in knowledge and we lost our knowledge in information . Reporting tends to cram you with information .But , sevral writers came through journalism . Yet, your viewpoint has substance .

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