Sunday, August 8, 2010

‘म’ से मनोज यानी मार्क्सवाद!

मनोज कुमार झा


मेरे एक मित्र थे-राजेन्द्र जी। वे वामपंथी झुकाव वाले व्यक्ति थे। सरल एवं सहज। उनसे मेरी बातचीत होती और मैं मार्क्सवाद की वकालत करता तो कहते-‘आपकी ही तरह बात करनेवाले एक मनोज कुमार झा हैं जिनसे आपको मिलना चाहिए। वे पढ़ने-लिखनेवाले आदमी हैं।’ मैंने मुकुल जी से भी इस बात की चर्चा की। वैसे मुकुल जी को और भी किसी स्रोत से पता चला। चूंकि मनोज जी हमलोगों के पड़ोस में ही रहते थे, इसलिए एक दिन उनके आवास पर खोजने पहुंच गये। उनसे मुलाकात तो नहीं हो सकी लेकिन ठिकाने का अंदाजा हो गया और अब कभी भी मिला जा सकता था। लेकिन मुकुल जी को भला चैन कहां! मेरी अनुपस्थिति में ही एक-आध बैठक जमा चुके थे।

मनोज जी से मेरा परिचय बढ़ा और हमलोग परस्पर एक-दूसरे के यहां आने-जाने लगे। मेरे घर के बच्चे उन्हें ‘मार्क्स बाबा’ कहते। मैं भी अपने घर में उन्हें इसी नाम से पुकारता। वे आते तो तरह-तरह की बातें होतीं। उनकी नई-नई शादी हुई थी। उसकी सी. डी. दिखाई। प्रेम-विवाह था शायद। शायद इसलिए कि जिस तरीके से वे अपनी शादी की चर्चा करते उसमें ’प्रेम’ से ज्यादा ‘विचार’ पर जोर होता। अतएव मैं इसे ‘वैचारिक विवाह’ कहता। शादी से पहले वे दोनों मार्क्सवाद जैसे अनेक गंभीर विषयों पर अनेक बहसें निबटा चुके थे। हालांकि जब मैं उनकी पत्नी से मिला तो किसी ‘विचार-परिपक्व’ आदमी की गंध नहीं मिली। वैसे वे इस तथ्यहीन बात का प्रचार अवश्य करतीं कि ‘मैं उन्हें अपनी कविताएं सुनाया करता हूं।’ इस ‘प्रचार’ की जानकारी मुझे मनोज जी के एक आत्मीय मित्र ने दी।

मनोज जी खूब पढ़ते और खूब बोलते। इन बातों में सर्वहारा वर्ग की चिंता मुख्य रूप से शामिल रहती। बातचीत से लगा कि वे एक स्पष्ट समझवाले इंसान हैं लेकिन ‘आत्मरति’ के शिकार। और सामनेवाले व्यक्ति का मूल्यांकन करने में मार्क्सवादी कट्टरता से काम लेते हैं। कालक्रम से मैंने पाया कि उनके कुछ मित्र उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखते। राम प्रवेश जी तो उनका नाम तक नहीं सुनना चाहते। वैसे राम प्रवेश जी को मैंने आज तक किसी की तारीफ करते नहीं सुना। हालांकि कई दूसरे लोगों के मुख से भी सुना कि ‘मनोज जी अगर पूरब जाने की बात कहें तो आप पश्चिम के रास्ते में उन्हें खोजें और अगर उत्तर कहें तो दक्षिण की दिशा में।’

दशहरे का अवसर था। मनोज जी मेरे घर पधारे थे। मेरा साला मोती भी आ धमका। बातचीत के क्रम में उसने मनोज जी से पूछा-‘मेला देखने नहीं जाइएगा क्या ?’ मनोज जी का उत्तर छोटा और सरल नहीं था। वे बाजारवाद के विरुद्ध लगभग आध घंटे तक बोलते रहे। निष्कर्ष था कि ‘अभी बाजार में एक से एक बहेलिया छूट्टा घूम रहा है। सबकी निगाह आपकी जेब पर है। बाजार में प्रवेश करते ही आप लूट लिए जाएंगे।’ मोती को तब इन बातों से बहुत मतलब नहीं था। अतएव मनोज की इन बातों में उसे दम नजर नहीं आया। घूमने निकल गया। अलबत्त मैं कहीं नहीं गया। लेकिन इसे मनोज जी का प्रभाव नहीं कहा जा सकता। यह शुरू से ही मेरी आदत का एक हिस्सा है। मोती लौटा तो काफी खुश-खुश लग रहा था। उसके चेहरे पर खुशी खिलते देख मेरे अंदर जिज्ञासा पैदा होने लगी। वैसे वह आते ही बोला, ‘आज तो गजब हो गया।’ बताया कि ‘जैसे ही सड़क पर निकला कि ‘‘बहेलिए’’ से भेंट हो गई।’ ‘कौन था ?’ ‘किस बहेलिए की बात कर रहे हो ?’ ‘वही, वही। मार्क्स बाबा।’ मैं  किंचित् मुस्कुराया। ‘मार्क्स बाबा’ अब जब कभी मुझसे मिलने आते, मोती झट कह उठता-‘बहेलिया आया है।’

मनोज जी की आय बढ़ चली थी। इसका असर उनकी बातचीत पर पकट होने लगा। वे रह-रह सायकिल की अनुपयोगिता साबित करते। मोटरसायकिल की अनिवार्यता पर जगह-जगह ‘विमर्श’ भी करने लगे। मुझसे कहते, ‘बाइक नहीं है इसलिए पत्नी को थियेटर आदि जगहों पर ले जाना संभव नहीं होता। रिक्शा आदि में बहुत खर्च हो जाता है।’ मैं हां, हूं करता और चुप लगा जाता। मुझे लगता, यह इनका निजी मामला है, भला मुझे क्यों सुना रहे हैं? कुछ ही दिनों बाद उन्होंने बाइक खरीदी। कभी-कभी आवश्यकतानुसार मुझे भी बिठाते। हां, इससे उनकी पत्नी की सांस्कृतिक गतिविधियों में सहभागिता बढते विशेष नहीं पाया।

किसी दिन मनोज जी के ससुर उनके घर आए। वे सी.पी.आई.के पुराने काडर हैं। साथ में संभवतः गांव के मुखिया जी भी थे। मनोज जी के घर में बिछावन के रूप में सुजनी (पुराने कपड़ों को सिलकर तैयार किया गया बिछावन) बिछी थी। उनके ससुर को, चूंकि एक आदमी साथ थे, अच्छा नहीं लगा। इसलिए अपनी बेटी से उन्होंने बिछावन को बदल देने का आग्रह किया। मार्क्सवादी बेटी को यह बात बुरी लग गई और उन्होंने टके-सा जवाब दे दिया ‘यहां रहना है तो इसी बिछावन के साथ रहना होगा।’ मनोज जी ने मुझे यह घटना सप्रसंग सुनायी। बयान करते हुए जता रहे थे कि ‘देखिए उनकी पत्नी ने अपने पिता के साथ भी एक कम्युनिस्ट की तरह सलूक किया। कि वाह! इसे कहते हैं मार्क्सवादी स्टैंड! मुझे अंदर-अंदर काफी देर तक हंसी आती रही। कुछ दिन पहले ही उन्होंने सोलह हजार रुपये में बाजार की अत्याधुनिक रंगीन टी.वी. खरीदी थी।

तब मैं पटने के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाया करता था। स्कूल के मालिक से सीधी टक्कर हो गई। फलतः मुझे विद्यालय छोड़ देने के लिए कहा गया। मैंने इसका विरोध किया। मैं कहता रहा कि विद्यालय एक सार्वजनिक संस्था है, अतएव सिर्फ मालिक के मना कर देने से मैं विद्यालय छोड़ने को राजी न था। मेरी इस लड़ाई में कुमार मुकुल भी साथ थे। मनोज जी ने कहा, ‘आप विद्यालय छोड़ दीजिए और निजी विद्यालय के शिक्षकों का एक संगठन तैयार कीजिए। आपको संगठन का काम करना है। खाने-पीने की आपकी समस्या शिक्षक हल करेंगे।’ मेरी इस लड़ाई में एक-दो को छोड़, शिक्षकों की भूमिका तनिक उत्साहित करनेवाली नहीं थी। मेरी इस हरकत से विद्यालय प्रबंधन को मुझे फिर से रखना पड़ा। मनोज जी लड़ाई के मेरे तरीके से खुश नहीं थे। वे कहते, ‘यह तो हीरोइज्म है, मार्क्सवादी तरीका नहीं है। संयोग कहिए कि कुछ ही दिनों बाद मनोज जी को भी इसी तरह की घटना का शिकार होना पड़ा। मुझसे कहा भी नहीं। अगल-बगल से पता चला तो मैंने उनसे कहा कि ‘हमलोग दस-बीस की संख्या में निदेशक के पास चलें। मनोज जी ने मेरी बातों में कोई रुचि नहीं दिखायी। मेरे सामने इस प्रसंग से कन्नी काटते। उनके निकटतम मित्रों ने बताया कि उनकी मानसिक हालत कुछ ठीक नहीं है। उन्हीं विश्वस्त मित्रों के सदुद्योग से वे किसी मनोचिकित्सक तक पहुंच सके। लंबे समय तक दवा खानी पड़ी। वे अवसाद के शिकार हो चले थे। सहसा विश्वास नहीं होता कि मनोज जी का मार्क्सवादी दिमाग अवसादग्रस्त भी हो सकता है।    

5 comments:

  1. पर उपदेश कुशल बहुतेरे...शायद ऐसे मौकों के लिए ही कहा गया होगा.

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  2. वैचारिक विवाह ...अच्छा शब्द है. मनोज बाबू से कहें इलाज के बजाय मार्क्सवादी गुदरी पर बैठ, पूंजीवादी टीवी का मजा लें...तत्काल राहत पाने के लिए इमोशनल अत्याचार जरूर देखें.

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  3. वाह अच्‍छा लगा,लिखते जाइए

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  4. धन्यवाद
    अपनी राय से अवगत कराते रहें

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  5. बहुत खूब. आपके पास संस्मरण का जखीरा है, निकलकर पाठकों के सामने परोसते रहें. अगले संस्मरण के इंतजार में.

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