साहित्य में एक नया दौर शुरू हुआ है। यह दौर पारिश्रमिक का नहीं, ‘प्रतीक पारिश्रमिक’ का है। हंस ने अक्तूबर 2003 के अंक में मेरा एक लेख प्रकाशित किया। लगा कुछ पैसे मिलेंगे। लेकिन पैसे की जगह एक पत्र आया। उसका मजमून कुछ इस तरह था-
भाई राजूरंजन जी,
नमस्कार,
‘हंस’ अक्तू. ‘03 अंक में प्रकाशित आपकी रचना का प्रतीक पारिश्रमिक ‘हंस’ की वार्षिक सदस्यता में समायोजित किया जा रहा है। नवंबर ‘03 से अक्तू. ‘04 के लिए आपकी सदस्यता दर्ज की जा रही है। नवंबर 03 अंक 5. 11. 03 को भेजा जाना है-प्रतीक्षा करें।
सादर
वीना उनियाल
पत्र को पढ़कर अपने पड़ोस के उस दूकानदार की याद आई जो अठन्नी न होने पर एक लेमनचूस पकड़ा देना चाहता और मैं उसे डांटता कि ‘साहब यह तो मेरी क्रयशक्ति नष्ट करने की बाजार की अंतर्राष्ट्रीय साजिश है।’ लेकिन हंस के मामले में क्या ऐसा ही सोचना उचित होता जबकि इसके साथ प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव के नाम जुड़े हों। लेकिन सवाल है कि मेरी रजामंदी के बगैर पारिश्रमिक को प्रतीक पारिश्रमिक में तब्दील कर देना क्या हंस के संपादक का जनतांत्रिक हक था ? क्या वे खुद हंस की कीमत ग्राहकों से प्रतीक रूप में स्वीकारेंगे ?
bahut sahi baat likhi hai aapne.
ReplyDeleteinteresting
ReplyDeleteअन्तिम वाक्य और सवाल तो बेहतर है…और पूछने लायक भी…
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