Tuesday, May 22, 2018

मेरे शिक्षक मेरी यादें

स्कूल में मेरा दाखिला कब और किन हालात में हुआ, मुझे कुछ भी याद नहीं। हां, इतना अवश्य याद है कि मेरे विद्यालय में कुल दो कमरे थे। एक कमरे में कार्यालय होता और तीसरी कक्षा के छात्र होते। तीसरी कक्षा हमारे तब के प्राथमिक विद्यालय की सबसे ऊंची कक्षा थी, शायद इसी वजह से इसके छात्रों को इसमें बैठने का अधिकारी समझा जाता रहा होगा। दूसरे कमरे में दूसरी जमात के विद्यार्थी बैठते। और बाकी के हम सब-यानी पहली जमात के बच्चे बरामदे पर होते। तब तो नहीं, लेकिन अब समझ में आता है कि ऐसी व्यवस्था छात्रों की हायरार्की को ध्यान में रखकर ही लागू की गई होगी। इसके अलावा दो अर्धनिर्मित कमरे और भी थे जिनका इस्तेमाल छात्राओं के पेशाबघर के रूप में होता। यह ऑफसाइड था। हम छोटे बच्चे ‘ऑफसाइड’ को 'ऑफिस' कहते। किसी को अगर पेशाबघर जाने की अनुमति लेनी होती तो पूछती, ‘क्या मैं ऑफिस जाऊं श्रीमान ?’
विद्यालय की दिनचर्या प्रार्थना की घंटी से शुरू होती। यह घंटी लगातार बजती जिसे हमलोग ‘टुनटुनिया’ कहते। पहली टुनटुनिया का मतलब होता कि हमलोगों को प्रार्थना के लिए तैयार हो जाना चाहिए। हम सब प्रार्थना करते लेकिन ध्यान कहीं और ही होता। प्रार्थना जैसे ही खत्म होती कि हम सारे ही बच्चे ऑफिस की तरफ दौड़ पड़ते और पटरा लूटने में लग जाते। हम बच्चे इसी पर बैठते। जिसके पास यह होता वह गौरवान्वित महसूस करता और जो इससे वंचित रह जाता वह उदास मन से अपना बोरा बिछाकर या वह भी नहीं रहने पर खालिस जमीन पर बैठता। तब कहीं जाकर पहली घंटी लगती और वर्ग में शिक्षक आते। कभी-कभी शिक्षकों के आने में देर हो जाती तो पूरी व्यवस्था क्लास के मॉनिटरों को देखनी पड़ती। ये मॉनिटर शिक्षक की अनुपस्थिति में पूरे के पूरे शिक्षक हो जाते। बच्चों के बीच उनका एक शिक्षक की ही तरह मान भी होता। कभी कोई अगर मॉनिटर की हुक्मउदूली की कोशिश करता तो काफी सख्त मार लगती।
जबतक मैं पहली कक्षा में रहा, एक ही शिक्षक से वास्ता रहा- और वे थे शिवन पाठक। वे मेरी बगल के गांव (मटौढ़ा) से आते थे। वे गोरे रंग के दुबले-पतले आदमी थे। उम्रदराज भी थे। उनके नकली दांतों की चमक आज भी मुझे हतप्रभ कर जाती है। वे विद्यालय भी पीतल की मूठवाली लाठी लेकर आते। उसी लाठी से हम सबके सिर पर ठक-ठक हमला करते। हम बच्चों ने इसीलिए उनका नाम ठुकरहवा मास्टर साहब या पंडिजी रख छोड़ा था। वे जाति से पंडित अर्थात् ब्राह्मण थे। वे लगभग पूरे ही दिन बरामदे पर घूम रहे होते और देखते जाते कि किसी ने चुप तो नहीं लगा रखी है। हमलोगों के जिम्मे एक से लेकर चालीस तक का पहाड़ा होता। इसे लगातार ऊंचे स्वर में बोलना पड़ता। आवाज में तनिक भी उतार-चढ़ाव वे बर्दाश्त न करते। आवाज मद्धिम पड़ी नहीं कि उनकी लाठी बगैर किसी पूर्व-सूचना के हमारे सिर से स्नेह दिखा रही होती। नतीजतन, चालीस तक का पहाड़ा हमलोगों की जुबान पर होता। टिफिन के बाद वाले समय में हमलोग आरोही-अवरोही क्रम में गिनती दुहराते। पहली बार में सीधा एक से सौ तक और फिर सौ से चलकर एक तक पहुंचते। ठीक जैसे लौटकर ‘बुद्धू घर को आये।’ लेकिन इसे बुद्धू नहीं, बल्कि बुद्धिमान बनने का एक आवश्यक उपक्रम की तरह समझा जाता। आज मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया नीरस और उबाउ भले थी, लेकिन थी बड़े ही काम की।
 
पटनावाला माट्सा
दूसरी कक्षा में गया तो एक और शिक्षक से नाता जुड़ा. दरअसल वे नए–नए विद्यालय में आए थे. वैसे उनका नाम सूर्यदेव पासवान था लेकिन हम बच्चे उन्हें नयका माट्सा (मास्टर साहब का संक्षिप्त रूप) या पटनावाला माट्सा कहते. वे गहरे काले रंग के थे. लेकिन थे सफाई पसंद. उनके वस्त्र झक झक सफ़ेद होते. प्रायः प्रत्येक शनिवार को वे प्रार्थना से पहले पी.टी. की घंटी में प्रत्येक छात्र की साफ-सफाई का बारीकी से अध्ययन करते. कौन स्नान करके आया है या नहीं इसकी पूरी खबर ली जाती. एक-एक बच्चे के नाख़ून देखे जाते कि वे कायदे से काटे गए हैं अथवा नहीं. जो पकड़ में आ जाते उनकी पिटाई तय थी. वे खुद भी अपनी सफाई का ध्यान रखते. उनके बाल कायदे से कटे हुए होते. कानों के आसपास के पके बाल अच्छे लगते. कभी कभी विद्यालय गमकउआ जरदा का पान खाये आते. उनके वास्ते हमलोग कभी मटर की फलियां तोड़कर लाते तो कभी चना-खेसारी का साग काटते. कभी –कभी सत्तू की भी मांग भी रखते. पटना जैसे शहर में तब इन चीजों को और भी मूल्यवान समझा जाता रहा होगा. कोर्स की किताबों के साथ–साथ वे हमें कहानियाँ भी सुनाते. अधिकतर कहानियां रामायण–महाभारत से होतीं. इन कहानियों को सुन मेरा मन रोमांचित हो उठता. त्याग और वीरता की कहानियाँ सुनते हुए ऐसे भाव सहज ही पैदा होने लगते. मेरे व्यक्तित्व को गढ़ने में निश्चय ही उनका और उनकी कहानियों का योगदान है. पटने में वे एक बार दूर से दिखे तो पहचान में नहीं आ रहे थे. बुढ़ापे की वजह से चेहरा बदल गया था और कपड़ों की वह चमक भी जाती रही थी. हाँ जब उनको याद करता हूँ तो एक और रूप ध्यान में आता है. वे कुछ दिनों तक विद्यालय दक्षिण भारतीय शैली में धोती की जगह लुंगी में आया करते थे. उन दिनों तो इस विशिष्टता के बारे में सोंच नहीं पाया था लेकिन अब उसका अर्थ समझ में आता है. दरअसल उन्होंने परिवार नियोजन कराया था. इंदिरा गाँधी के शासन का यह अंधा दौर था जब बड़ी संख्या में लोगों का उनकी इच्छा के विरुद्ध बंध्याकरण कर दिया जाता था. थोड़ दिनों तक हम बच्चे भी अकेले निकलने में डर महसूस करते. इस अभियान की यह बुरी याद अब तक बनी हुई है.
 
बुद्ध और बहनजी
इन्हीं दिनों राजेन्द्र प्रसाद नाम के एक शिक्षक आए जो हमें सामाजिक विज्ञान पढ़ाते. जैसाकि उन दिनों हमलोगों को बताया गया, उनका घर पावापुरी था. इस बात की भी हल्की स्मृति अब तक बनी है कि उन्होंने इसका सम्बन्ध गौतम बुद्ध के जीवन से जोड़ा था. वे हमें बुद्ध से सम्बंधित कथा–कहानियाँ सुनाते. बाद के दिनों में वे हमारे ही गांव के एक व्यक्ति भूषण सिंह के यहाँ रहने भी लगे. बाहर से आनेवाले शिक्षक अक्सर गांव ही के किसी आदमी के यहाँ रहते. उन दिनों तो इस बात का कभी ख्याल नहीं आया लेकिन अब जाकर ध्यान देता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे शिक्षक अपनी ही जाति के ग्रामीण के यहाँ रहना पसंद करते थे. ऐसा संभव नहीं होने पर ही वे दूसरे विकल्प की तलाश करते या उसे स्वीकार करते होते. एक और शिक्षक थे जो बगल के गांव (मसौढी-पटना सड़क पर स्थित धनरुआ) से आते. वे सायकिल से आते इसलिए हमलोग उन्हें सायकिल वाला माट्सा कहते. शायद इसलिए भी कि सायकिल होना भी उन दिनों महत्त्व की बात रही होगी. जहां तक मुझे याद है, मैं चौथी–पांचवीं में पढ़ता होऊंगा कि मेरे फूफा के भाई सायकिल से आए थे और गांव के ही एक व्यक्ति के दरवाजे पर छोड़ आए थे. उसे लाने के लिए हम दो भाइयों को जब कहा गया तो तनिक न प्रसन्न हुए थे. ये और बात है कि उसे घर तक लाने में जो परेशानी और फजीहत का सामना करना पड़ा था उससे खुशी थोड़ी कम हो चली थी. उसी दिन जाकर यह ज्ञान हुआ कि अगर आप सायकिल चलाना नहीं जानते हैं तो उसे केवल साथ लिए चलना भी आसान काम नहीं होता.

अब मैं तीसरी कक्षा में था जब स्कूली जीवन में थोड़ी हलचल महसूस की. स्कूल के वातावरण में यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल–फैला दी गई कि शीघ्र ही एक मास्टरनी साहब (साहिबा कहना तब शायद हमारे शिक्षक भी नहीं जानते होंगे. हालाँकि इसे बहुत भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता) हमलोगों को पढ़ाने हेतु आ रही हैं. बस अब क्या था बच्चों–शिक्षकों को चर्चा का स्थायी विषय हाथ लग गया. सच पूछिए तो मैं थोड़ा डरा–सा महसूस करने लगा था. औरतें भी शिक्षक हो सकती हैं यह मेरी कल्पना में अब तक बिल्कुल भी नहीं था. उनसे कैसे पढ़ा जायेगा. कैसे बात की जायेगी–ऐसे तब के महत्वपूर्ण सवाल मेरे दिमाग में उठने लगे और कहूँ कि उस बदले माहौल के लिए साहस बटोरने का काम भी शुरू कर दिया था. मेरी इस समस्या को हमारे शिक्षकों ने आसान बनाया. उन्होंने कुछ आवश्यक ट्रेनिंग और हिदायतें हमें दीं. पहली हिदायत तो यही थी कि हमलोग उन्हें मास्टरनी साहब नहीं बल्कि बहनजी कहेंगे. हम सभी इसकी आवश्यक तैयारी में लग गये. लेकिन शिक्षक को बहनजी कहने की मनःस्थिति में होना हमारे लिए इतना आसान नहीं था. पितृसत्तात्मक समाज के मूल्यों से संचालित हमारा मन-मस्तिष्क बीच–बीच में अड़ जाता और मुँह से बहनजी की बजाय मास्टर साहब ही निकल आता. बहनजी कहते मैं झेंप भी महसूस करता. लेकिन धीरे–धीरे स्थिति सामान्य होती गई. हमलोगों ने इसे जितना हौवा बना लिया था या जितना मैं डरा हुआ था वैसी कोई बात नहीं हुई. इसमें शायद इस बात का भी योग हो कि वे मेरे ही ग्रामीण थीं और उनके परिवार का एक छात्र मेरा सहपाठी था. उनके आए कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन अचानक हमलोग पांच–छह बच्चों को उनके घर जाने हेतु चुना गया. हालाँकि चुनाव में शरीर और उसके वजन का खासा ख्याल रखा गया था फिर भी बात समझ में न आ सकी थी. घर जाकर ही हमलोगों को पता चला कि ढेंकी चलाकर चूड़ा कूटना है. इसके लिए निश्चय ही अपेक्षाकृत भारी शरीरवाले बच्चों की जरूरत थी. हमलोगों ने मजे में इस काम को अंजाम दिया और वहीँ से सीधे घर चले आए. आज शायद शिक्षक बच्चों से अपना काम कराना उतना आसान नहीं समझ सकते.
 
और नालिश क्यों नहीं की ?
और इसी तीसरी कक्षा में विद्यालय के प्रधानाध्यापक जगदीश माट्सा से भेंट हुई. वे मेरे ही ग्रामीण थे. गहरे सांवले रंग के गंवई. किसान का चेहरा लिए हुए. कुरता-धोती उनका स्थायी पहनावा था. बिल्कुल छोटे कटे बाल रखते-लगभग न के बराबर. सिर पर बाल कम होने की एक वजह तो खुद उनकी वृद्धावस्था थी. उसी साल वे अपने कार्यभार से मुक्त भी हुए थे इसलिए उम्र हो चुकी थी. दूसरी कि उन दिनों बढ़े बाल तनिक पसंद न किये जाते थे. रहन–सहन से सादगी झलकती. ऐसी कि उन्हें देखकर शायद ही किसी को विश्वास होता कि वे शिक्षक हैं. लेकिन मुँह खोलने के बाद किसी को फिर परिचय की दरकार भी नहीं रह जाती होगी. गांव के विद्यालय में और एक ग्रामीण होने के बावजूद उनकी भाषा शुद्ध और समृद्ध होती. विद्यालय परिसर में मैंने उन्हें कभी क्षेत्रीय भाषा में या बेजरूरत बात करते नहीं सुना. वे उर्दू-बहुल/मिश्रित हिंदी का प्रयोग करते. शायद इसी वजह से उनकी भाषा मुझे खींचती और वे मुझे अच्छे लगते. कुल मिलाकर उनके व्यक्तित्व की जो तस्वीर बनती वह मेरे बालमन पर अपना असर छोडना आरंभ कर चुकी थी. आज भी उनके द्वारा शायद सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द ‘नालिश’ याद है. याद है कि जब छात्र आपस में झगड़ा करते और उनमें से कोई अगर उनके पास पहुंचकर शिकायत कर देता तो बादवाले को मार खानी ही पड़ जाती. अगर उस बच्चे की गलती न भी होती और वह अपने पक्ष में सफाई पेश करने में सफल भी हो जाता तो भी वे अपना पहला और अंतिम सवाल करते कि फिर नालिस क्यों नहीं की? शायद वे यह मानकर चलते थे कि नालिश न करना अपने आप में एक जुर्म है और इसीलिए उसकी सजा तो अवश्य ही मुक़र्रर होनी चाहिए.

वे स्वभाव से काफी सख्त, अनुशासनप्रिय व एक संयत इंसान थे. हम छात्रों के साथ कभी अवांछित नहीं बोलते. उनके बैठने की जगह के पास एक दराज वाला टेबल होता और बगैर हाथ की एक कुर्सी होती. उसी टेबल पर शिक्षकोपस्थिति व छात्रोपस्थिति पंजी रखी होती. उनके ठीक दाहिनी ओर दरवाजा होता जिसकी ओट में वे बार–बार खैनी की पीक दांतों के बीच से पिच्च आवाज के साथ फेंकते. थोड़े दिनों तक मैंने भी इस आदत का आज्ञा की तरह पालन किया था.

वे विद्यालय आते तो अपने साथ कपड़े का सिला एक झोला अवश्य लाते. आने में कभी विलम्ब कर देते या कोई शिक्षक ही उनसे पहले पहुँच चुके होते तो हम छात्रों में से कोई उनके घर जाता और ऑफिस की चाबी ले आता और उस कमरे को खोल बैठने आदि के लिए लकड़ी का तख्ता निकाल लेते. पूरे विद्यालय परिसर में झाड़ू आदि लगाने का काम भी हमी छात्रों के जिम्मे था. प्रायः प्रत्येक शनिवार को छात्र बगल के घर से गोबर चुरा /उठा लाते और छात्राओं के जिम्मे फर्श लीपना होता. इन कार्यों की देखरेख का जिम्मा मुझ जैसे मोनिटरों को लेना होता.

सबसे विचित्र था उनका पढने का तरीका. वे हमें हिंदी पढ़ाते. पाठ्य-पुस्तक की रीडिंग पर एकमात्र जोर होता. यानि हमलोग रोजाना ही उनकी घंटी में हिंदी की किताब निकालते और क्रमशः खड़े होकर बोलकर पढ़ते. बीच-बीच में वे शब्द के हिज्जे भी पूछते चलते. किताब पढ़ रहे छात्र से अगर किसी शब्द का सही-सही उच्चारण नहीं हो पाता था तो बगल (आगे-पीछे) के छात्र से पूछा जाता. अगल-बगल के छात्र भी जब सही उच्चारण कर पाने में असमर्थ साबित होते तो उनका फरमान जारी होता कि जिस किसी को भी मालूम है वह उच्चारण करे. जो छात्र बता देता वह सबकी पीठ पर एक-एक मुक्का लगाता. मेरी भाषा अन्य छात्रों की तुलना में बेहतर थी इसलिए मुक्का लगाने का 'सुख' ज्यादातर मुझे ही हासिल होता. याद नहीं कि उच्चारण-दोष की वजह से मुझे कभी मार लगी हो. अलबत्ता मथुरा रजक से सम्बंधित एक घटना की याद अवश्य ही अब तक बनी हुई है. कहना होगा कि उसकी हिंदी बहुत ही गड़बड थी. एक अनुच्छेद पढने में उसने बीसेक गलतियाँ की थीं और मैंने कुछ इतने ही मुक्के लगाये थे. जहाँ तक याद है, वह बीमार हो गया था और कई दिनों तक विद्यालय नहीं आ सका था.
 
जस जस मुर्गी मोटानी, तस तस पर सिकुड़ानी
चौथी कक्षा से मिड्ल स्कूल में चला गया। वहाँ के शिक्षकों में गणेश प्रसाद, वीरेंद्र सिंह, विद्यानंद सिंह, विजय ठाकुर आदि थे। बाद में दो शिक्षक और बहाल होकर आए। रामचन्द्र सिंह संस्कृत विषय में और एक विज्ञान विषय में जिन्हें 'बीएस. सी' माटसा कहकर संबोधित करते। ऐसा शायद इसलिए कि उस जमाने में मिड्ल स्कूल में बीएस. सी विरल माने जाते होंगे। प्रधानाध्यापक वीरेन्द्र शर्मा थे।

गणेश बाबू हमें हिंदी पढ़ाते और बगल के गांव भिंठियाँ से साइकिल से आते। वे बड़े ही सरल स्वभाव के आदमी थे। श्यामवर्णी चेहरे पर अधपके बाल होते। सिर से थोड़ा ही कम बाल उनके कानों पर होता। साइकिल से एक और शिक्षक आते। वे पड़ोस के सिमरी गांव से आते, इसलिए उन्हें हमलोग सिमरी वाला माटसा कहते। वे अंग्रेजी पढ़ाते। वे मोटे कपड़े का कुर्ता और धोती पहनते। उनकी छवि अंग्रेजी किताबों में दिखायी जानेवाली तस्वीरों से मिलती-जुलती थी। वे भूमिहार जाति के थे और मेरे गांव में उनके गांव की कोई रिश्तेदारी पड़ती थी। इस कारण वे लगभग हम सब बच्चों के अभिभावकों के नाम जानते थे। वे प्रायः ही अभिभावक से मिलकर न पढ़ने अथवा बदमाशी की शिकायत करने की धमकी देते। वे अक्सर एक कहावत कहते, 'जस-जस मुर्गी मोटानी, तस-तस पर सिकुड़ानी।' अर्थात उनके कहे का आशय था कि हम जैसे-जैसे बड़े हो रहे है, पढ़ाई कम होती जा रही है।

विजय ठाकुर विज्ञान पढ़ाया करते थे। पहले वह हमारे ही गांव के भूमिहार झलक सिंह (एन पी शर्मा, सायन्स कॉलेज के भाई) के घर रहा करते थे। तब कुछ दिनों मैंने उनसे ट्यूशन भी पढ़ा था। बाद में उसी गांव के स्वजातीय स्वतंत्रता-सेनानी शिवप्रसाद ठाकुर के यहां रहने चले गये। शिवप्रसाद ठाकुर आर्य समाजी थे और गोरक्षा आंदोलन के दौरान कभी जेल गये थे। इस कागज ने उन्हें स्वतंत्रता-सेनानी का दर्जा दिलाया। विजय ठाकुर पढ़ाई-लिखाई में सख्ती बरतते। सबक याद न करनेवाले छात्र की पिटाई तो करते ही, कभी-कभी धूप में खड़ा करा देते और सूर्य को देखने को कहते। जो ना-नुकुर करते उनपर डंडे बरसते। यह सजा काफी अप्रीतिकर होती। आज तो अस्वास्थ्यकर भी मालूम होती है।

विद्यानंद सिंह छह फुट के गौरवर्णी इंसान थे। वे गणित के शिक्षक थे। वे प्रायः कम बोलते। पढ़ाई-लिखाई में छड़ी के प्रयोग को अनावश्यक न मानते थे। वे कुर्मी जाति से थे। मेरे गांव में इस जाति के लोग नहीं बसते हैं। मेरे गांव से उत्तर लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर धनौती (मसौढ़ी के पास) गांव हुआ करता था। आज भी है। बचपन में सुनते थे कि वहाँ की कुर्मी जाति के लोग धनी किसान हैं। वहाँ के बच्चे मेरे गांव के मिड्ल स्कूल में पढ़ने आया करते थे। उन्हीं में से दो चचेरे भाई-संजय और उज्ज्वल के यहां वे कई सालों तक रहे।

उन्हीं दिनों बीएस सी वीरेंद्र बाबू भी आए। वे भी साथ धनौती रहने चले गये। कहने की जरूरत नहीं कि उन दिनों बाहर से आये शिक्षकों को गांव में रहने में कोई समस्या नहीं होती थी। लोग भी शिक्षक को रखने के लिए लालायित रहते थे। दरवाजे पर शिक्षक होने से प्रतिष्ठा होती थी। आज गांवों में शिक्षक नहीं रहते। एकल परिवार ने शिक्षक के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है शायद।

रामचंद्र सिंह संस्कृत के शिक्षक थे। वे बैकठपुर के नजदीक करौता ग्राम के राजपूत थे। मेरे गांव में राजपूत जाति के लोग नहीं बसते इसलिए उन्हें एक भूमिहार के दरवाजे पर रहना पड़ा। वे शरीर से काफी हृष्ट-पुष्ट थे। छात्रों ने उनका नाम दसभुजु रख छोड़ा था। हमलोग प्रत्यक्ष नहीं, अप्रत्यक्ष उन्हें दसभुजु माटसा ही कहते। वे पढ़ाई के साथ-साथ मारपीट में भी यकीन रखते थे। एक बार वे प्रधानाध्यापक वीरेंद्र शर्मा से भी किसी बात को लेकर उलझ गए थे और मारपीट तक की नौबत आ गई थी। दसभुजु माटसा ने कुदाली का बेंट हाथ में लिया तो प्रधानाध्यापक ने बेंत। वे बेंत प्रायः ही अपने हाथ में रखते थे। हम बच्चे प्रधानाध्यापक की गंभीरता से काफी डरते थे। वे अपनी हरेक चीज का खास ध्यान रखते। साफ और महंगे धोती-कुरता के ऊपर सफेद तह की हुई गमछी रखना न भूलते। उनके कपड़े बड़े ही कायदे से इस्तिरी किये हुए होते। सूर्यदेव पासवान अर्थात पटना वाला माटसा के बाद एक अकेले वही थे जिनके कपड़े कायदे से प्रेस किये होते। उनसे छात्र ही नहीं शिक्षक भी भय खाते होंगे। दसभुजु माटसा के साथ उनके झगड़े ने उनकी प्रतिष्ठा में बट्टा लगाया था। वे इतना संयमित और अनुशासनप्रिय थे कि अपने चलने मात्र से भी सीधी लकीर खींच डालते थे।

अर्जुन गिरी : वे गुरुकुल परंपरा के अंतिम गुरु थे
मेरे जमाने में हाई स्कूल आठवीं कक्षा से शुरू होता था। दुर्लभ संयोग या सौभाग्य कहिए कि मेरा जब हाई स्कूल में दाखिला हुआ तो तीन शिक्षक वामपंथी विचारधारा के मिले। श्री रामविनय शर्मा, श्री राजेश्वरी शर्मा और श्री अर्जुन गिरीश्री अर्जुन गिरी तब शिक्षकों और छात्रों के बीच 'गिरिजी' के नाम से मशहूर थे।
गिरिजी गोरे-चिट्टे और नाटे कद के इंसान थे। उनका मुंह छोटा और ओठ काफी पतले थे। उनके पतले ओठ पान खा लेने के बाद काफी लाल हो जाते। लगता जैसे किसी ने लिपिस्टिक मल दी हो। उनका पहनावा बड़ा सादा होता। अक्सर खादी का उजला कुरता और धोती पहनते। कभी-कभी कंधे पर खादी की एक गमछी भी होती। जिस तरह उनका पहनावा सादा था उसी तरह स्वभाव भी सरल पाया था।

वे विज्ञान के शिक्षक थे। लेकिन हाई स्कूल स्तर तक वे गणित भी पढ़ाया करते थे। बहुत दिनों तक गणित शिक्षक के अभाव में वही पढ़ाते रहे। स्कूल के अलावा वे ट्यूशन भी पढ़ाया करते। इस जीतोड़ मिहनत के पीछे उनकी आर्थिक स्थिति भी थी। वे गरीब परिवार से आते थे। मिहनत के बल पर उन्होंने नौकरी हासिल की थी। उनकी दो शादी थी। पहली पत्नी का शायद निधन हो चुका था। इकलौता बेटा था कमलेश गिरी। कमलेश मेरा सहपाठी था। कमलेश को गिरिजी बेइंतहा प्यार करते थे। मां की कमी पूरा करने की नीयत रही हो शायद। गिरिजी स्कूल ही के हॉस्टल में रहते और कमलेश भी छुटपन से ही साथ रहता।

गरीबी ने गिरिजी को धनलोलुप अथवा लालची नहीं बनने दिया। बल्कि ट्यूशन पढ़ रहे बच्चों से भी धन की उगाही के लिए उन्हें कई दिनों तक हिम्मत बटोरनी पड़ती। वे सीधे-सीधे किसी छात्र से पैसे मांगने में हमेशा ही लाचार, असहज और असमर्थ दिखे। कई दिनों के एकांतिक अभ्यास के बाद वे किसी बच्चे को टोक पाते थे, 'हैजे चेला तोरा घरे गेहूं हौ?' उन्हें हर वाक्य में 'हैजे' कहने की 'बुरी आदत' थी। इसी तरह वे हिम्मत बटोर-बटोरकर बच्चों से गेहूं, चावल, आलू अथवा जरूरत की चीजों का प्रबंध किया करते। जिन बच्चों के पास यह भी नहीं होता, या जो कुछ भी न देने की होशियारी बरतना चाहते, वैसे बच्चे भी वहां मजे में पढ़ रहे होते। जो बच्चे उनसे भी गरीब होते उनका जूठन भी गिरिजी के डिनर टेबुल पर गिरता। वे गुरुकुल परंपरा की अंतिम पीढ़ी के अन्तिम गुरु प्रतीत होते।

वैसे गिरिजी से मेरा परिचय हाई स्कूल में दाखिल होने से पहले ही हो चुका था। संभवतः चौथी कक्षा रही होगी जब अपने स्कूल की तरफ से स्कॉलरशिप की परीक्षा देने पटना जाना था। कमलेश को भी जाना था, इसलिए हम दोनों के अभिभावक गिरिजी हुए। पटना का मिलर हाई स्कूल मेरा परीक्षा केंद्र था। लिखित परीक्षा की समाप्ति के बाद संगीत आदि की परीक्षा होनी थी। संगीत में मैं शून्य था। मेरे अभिभावक इतने सख्त थे कि संगीत के लिए कोई जगह नहीं थी। लेकिन वहां तो संगीत ही की परीक्षा थी। मेरे चाचा मुझसे गाना गाने कहते और मेरी तो आवाज ही नहीं निकलती। मेरा जो संस्कार था उसमें बड़ों के सम्मुख गीत गाना अशिष्टता समझी जाती थी। कमलेश अपने पिता की तरह ही एक नंबर का गवैया था। वह झूम-झूमकर गाता रहा और मैं संगीत को हिकारत की दृष्टि से देखनेवाले चाचा से मार खाता रहा। वह घटना गिरिजी को याद थी। कभी-कभी बच्चों के बीच कहते, 'हैजे इसके चाचा तो एकबार गीत न गा पाने के लिए बेदम करके मारे थे।'

गिरिजी कक्षा में मिहनत और ईमानदारी से पढ़ाते। किसी बात को इतनी बार दोहराते कि लगभग याद हो जाता। वे थोड़े मजाकिया भी थे। पढ़ाई के दौरान भी कोई किस्सा-कहानी छेड़ देते और मजे लेते। रसायन विज्ञान में तब एक अध्याय होता 'प्रयोगशाला में बरती जानेवाली सावधानियां'। इस अध्याय के लिए एक किस्सा तय था। वे किसी पूर्ववर्ती छात्र संभवतः सजीवन का नाम लेते और किस्सा प्रारम्भ कर देते। कहते, 'हैजे वह प्रयोगशाला में घूस गया। इधर-उधर सामान बिखरा देखा तो मन में चोर पैदा हो गया। उसने लोगों की नजरें बचाकर फास्फोरस कमीज की जेब में डाल लिया। पहले तो थोड़ा धुआं दिखा, फिर आग भी दिखी। मैंने जब उसकी जेब देखी तो पता चला फास्फोरस डाल लिया है।' इस कहानी के माध्यम से वे बच्चों को बताते कि फास्फोरस हवा के संपर्क में जल उठता है, और प्रयोगशाला जाने के पहले सावधान करते। चौर-विद्या में पारंगत छात्रों को विशेष रूप से। इस कहानी का असर कहिए कि मुझे अब तक याद है कि फास्फोरस एक ज्वलनशील पदार्थ है।

गिरिजी के बारे में भी एक किस्सा प्रचलित था। गिरिजी स्कूल के हॉस्टल में रहा करते थे। विनय बाबू भी उन दिनों वहीं रहा करते थे। नादौल के एक मिड्ल स्कूल के शिक्षक भी वहीं रहते। इन सब के बाल-बच्चे भी साथ रहते और पढ़ते। सब के भोजन के लिए एक छोटा-मोटा मेस भी चलता। गिरिजी दोपहर में अक्सर टिफिन से पहले की किसी घण्टी में मेस की तरफ बढ़ चलते और आलू का चोखा आदि रखा होता तो सब गोली से थोड़ा-थोड़ा निकालते जाते और फिर गोली बनाते जाते। इस क्रम में सब के बराबर की उनकी भी एक गोली तैयार हो जाती।लोगों को आशंका हुई तो चोर पकड़ने की योजना बनी। लोग पीछे पड़े। अंततः गिरिजी पकड़े गये। हंसते हुए बोले, 'हैजे गैस हो गया था।'

राजेश्वरी बाबू : एक सर्वहारा शिक्षक
हाई स्कूल में राजेश्वरी शर्मा सामाजिक विज्ञान (इतिहास-राजनीतिशास्त्र) के शिक्षक थे। वे हमें अंग्रेजी साहित्य भी पढ़ाते। वे बगल के गांव हरिबसपुर के वासी थे लेकिन मसौढ़ी उनका निवास-स्थान होता।
वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। उनका मार्क्सवाद रहन-सहन की उनकी शैली में भी प्रकट होता। वे खादी का कुरता और धोती पहनते। पैर में चमड़े का चप्पल होता। कभी-कभी खादी की एक गमछी भी कंधे से झूलती होती। के सी पाल का छाता भी उनका सहचर होता। उन्हें खैनी खाने की बुरी लत थी लेकिन पास कभी न रखते। इस मामले में वे बिल्कुल 'सर्वहारा' थे। किसी खैनी खानेवाले को विद्यालय के आसपास भटकता हुआ देख लेते तो हममें से किसी एक बच्चे को उसके पीछे दौड़ा देते। खैनी देनेवाले को कभी ना- नुकुर करते नहीं देखा। खैनी सर्वहारा-संस्कृति की चीज लगती है। खैनी खानेवालों में एक अदृश्य परिचय होता है। कोई किसी से हाथ बढ़ाकर खैनी प्राप्त कर सकता है। राजेश्वरी बाबू इस संस्कृति का यथेष्ट लाभ लेते।
सन 80 की बात होगी जब एस एफ आई के छात्र-नेता श्री रविन्द्र राय को राजेश्वरी बाबू मेरे स्कूल ले गये थे। वहां उन्होंने हम बच्चों को संबोधित किया था। भाषण का क्या विषय था आज कुछ भी स्मरण नहीं है। इसके कुछ दिनों बाद ही राजेश्वरी बाबू ने एस एफ आई की कुछ रसीद थमा दी थी। 25 पैसे सदस्यता शुल्क लेकर छात्र को सदस्य बनाया जाता था। तब महीने में दो दिन-15 और 30 तारीख को छात्रों से शुल्क वसूला जाता। उधर वर्ग शिक्षक अपनी रसीद काटते और मैं अपनी। कुछ दिनों की मिहनत के बाद मेरे पास लगभग सात-आठ रुपये की राशि जमा हो चुकी थी। इसकी भनक मेरे छोटे चाचा को लग गई। उन्होंने बड़े चाचा का भय दिखाकर रुपये जब्त कर लिए। बड़े चाचा यद्यपि कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित कांग्रेसी थे। बाद में उनका कम्युनिस्टों से मोहभंग हुआ तो एक तरह की घृणा पाल बैठे थे। छोटे चाचा ने उनकी इस घृणा का लाभ लिया और पैसे हस्तगत कर लिए। पैसा उनकी कमजोरी भी था। अपने कई प्रयासों के बावजूद राजेश्वरी बाबू को मैं रसीद के पैसे न दे सका। एक-दो बार के तगादे के बाद वस्तुस्थिति का उन्हें भी ज्ञान हो चला था। अतः मांगना छोड़ दिए और अंततः मैं इस जिम्मेवारी से मुक्त हो गया।

ऐसे थे विनय बाबू
रामविनय शर्मा नाटे कद के गोरे-चिट्टे इंसान थे। गोरे इतने कि आर्यों की पहली खेप से आये लगते थे। तिस पर गोल-चौड़ा माथा और भव्य ललाट उनकी सुदरता में चार चांद लगाता था। वे एक धीर-गंभीर व्यक्तित्व थे। उनका हास्य-विनोद भी हमेशा स्तरीय होता और गांभीर्य की चादर ओढ़े रहता।

वे हिंदी-अंग्रेजी के शिक्षक थे किन्तु हमें हिंदी ही पढ़ाते। काफी रोचक तरीके से। पाठ्य-पुस्तक तो पढ़ाते ही, इधर-उधर की बातें भी बताते। गोर्की, लुशून एवं चेखव आदि का नाम लेना न भूलते। औरों के बारे में नहीं कह सकता लेकिन मुझ पर इन नामों का असर होता। कह सकता हूं कि मेरे अंदर के ‘कम्युनिस्ट’ को खाद-पानी मिल रहा था।

विनय बाबू के पास हर अवसर के लिए एक कहानी होती। अर्थात् जब वे जयशंकर प्रसाद पढ़ा रहे होते तो यह किस्सा अवश्य सुनाते। किस्सा था कि किसी काॅलेज के एक हिन्दी प्राध्यापक प्रसाद की 'कामायनी' पढ़ा रहे थे। तभी प्राचार्य महोदय घूमते हुए वहां आ पहुंचे। उन्होंने पाया कि कुछ बच्चे सो रहे हैं। प्राचार्य ने शिक्षक से शिकायती टोन में पूछा, ‘साहब, बच्चे सो रहे हैं तो आप पढ़ा किसे रहे हैं ?’ शिक्षक का जवाब था, ‘मैं प्रसाद की "कामायनी" पढ़ा रहा हूं। ये बच्चे जगकर भी क्या कर लेंगे?’ इस कहानी का सार होता कि जयशंकर प्रसाद आम पाठक के लिए नहीं बने हैं।

हर बात में उनका एक स्टैंड होता और सरकार और व्यवस्था उनके निशाने पर होती। सोवियत संघ और समाजवाद की तारीफ किया करते। वे कहते, 'वहां गरीबी, बेरोजगारी आदि का तो नामोनिशान तक नहीं है। गाड़ियां ठीक अपने निर्धारित समय से चला करती हैं।' वे भारतीय रेल की आलोचना करने के लिए एक किस्सा सुनाते। (उनके किस्से कई बार स्वरचित होते) किस्सा था कि किसी दिन वे प्लेटफाॅर्म पर बैठे अपनी गाड़ी का इंतजार कर थे। बगल में एक और सज्जन बैठे थे। थोड़ी देर के बाद एक सज्जन और आए। तब तक गाड़ी भी आ चुकी थी। दूसरे नंबर के सज्जन ने चहकते हुए टिप्पणी की, ‘अरे यह तो कमाल हो गया। गाड़ी ठीक अपने समय से चल रही है। उसे आठ बजे प्लेटफाॅर्म में लगना था। आठ बजे नहीं कि ट्रेन हाजिर।’ पहले सज्जन को यह टिप्पणी नागवार गुजरी। उसके गुस्से का ठिकाना न था। उसने यह कहते हुए कि ‘इस ट्रेन को कल ही सुबह आठ बजे आनी थी’, टिप्पणीकर्ता को एक भरपूर तमाचा जड़ दिया और चलती ट्रेन से लटक लिया।

पाठ्य-पुस्तक में काका साहब कालेलकर का कोई निबंध पढ़ना था। इसलिए कायदे से लेखक-परिचय के लिए जगह तो बनती ही थी। काका कितना कुछ पढ़ते थे यह बताने के लिए भी उनके पास एक किस्सा होता। वे कहते, एक दिन कालेलकर तांगे पर बैठे पुस्तक पढ़ते हुए कहीं जा रहे थे। रास्तें में अचानक तांगा टूट गया और सारे यात्री इधर-उधर बिखर गये। तांगेवाले ने तांगे की मरम्मत कर चुकने के बाद यात्रियों को बिठाया। गिनती की तो एक आदमी कम पड़ जा रहा था। इधर-उधर बहुत नजर दौड़ाने के बाद कालेलकर एक गड़ढे में किताब पढ़ते दिखे। तांगेवाले ने आवाज दी, ‘साहब, तांगे पर नहीं चलेंगे ?’ ‘तो क्या मैं तांगे पर नहीं हूं?’, कालेलकर ने अत्यंत सहजता से पूछा। बहुत समझाने के बाद काका यह मानने को राजी हुए कि वे तांगे पर नहीं किसी गड्ढे में गिरे समाधिस्थ बैठे हैं। अब वे तनिक मुस्कुराये और तांगे पर आकर बैठ गये। कालेलकर के बारे में सुनाया उनका यह किस्सा मैं भी अपने छात्रों को ‘अविश्वसनीय’ मानकर सुना चुका हूं।

इधर अपने स्कूल की लाइब्रेरी में दिनकर की 'संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ' किताब दिखी। इसमें ‘काका साहब कालेलकर’ एक अध्याय है। दिनकर ने भी कालेलकर से संबंधित एक किस्सा सुनाया है। किस्सा कुछ इस तरह है-‘जब काका साहब की भतीजी का ब्याह हुआ, कन्यादान का कर्म काका साहब ने ही किया था। विवाह के कुछ दिनों बाद काका साहब के नये भतीजदामाद काका साहब से मिलने को वर्धा पहुंचे; किंतु काका साहब ने उन्हें पहचाना ही नहीं, न दामाद साहब ने अपना परिचय देने की उदारता दिखायी। वे काका साहब के घर से लौट गये और उन्होंने काका साहब के बड़े भाई साहब को एक अप्रसन्नता-सूचक पत्र लिखा। यह पत्र काका साहब के भाई ने काका साहब को भेज दिया और साथ में कुछ ऐसी बातें भी लिख भेजीं, जो उलाहने की मुद्रा में लिखी जा सकती थीं। अब काका साहब क्या करते? उन्होंने आदमी भेजकर दामाद को बुलवाया, कई दिनों तक पुत्रवत् स्नेह से उन्हें अपने पास रखा और जाने के समय उनकी अच्छी बिदाई की। जब दामाद जाने लगे, काका साहब ने हंसते-हंसते कहा, ‘‘बेटा, तुम्हें नहीं पहचान सका, उसका दंड मैंने भर दिया। चाहो तो मेरे कान भी मल दो। लेकिन यह वादा नहीं करूंगा कि आगे तुम्हें जरूर पहचान लूंगा।’’ इस कहानी के बाद मेरी समझ में नहीं आ रहा कि अपने शिक्षक को ‘अविश्वसनीय’ मानूं या दिनकर अथवा स्वयं काका को ?

रामनंदन शर्मा : एक दुर्लभ प्रजाति के शिक्षक
मैट्रिक तक की पढ़ाई मैंने गाँव के हाई स्कूल से की. वहाँ के प्रधानाध्यापक मेरे ग्रामीण श्री रामनन्दन शर्मा थे. गाँव एवं स्कूल के सारे लोग उन्हें शर्मा जी कहते. शर्मा जी को हेडमास्टरी की नौकरी ग्रामीण राजनीति के कारण मिली थी. गाँव के प्रभुत्वशाली लोगों ने पूर्व प्रधानाध्यापक को बलपूर्वक हटाकर उन्हें नियुक्त किया था. तब स्कूल कमिटी के अधीन था.

शर्मा जी अलमस्त मिजाज के आदमी थे. वे मंथर गति से चलते. हड़बड़ी में उन्हें कभी नहीं देखा. जब वे ट्रेन आदि पकड़ने स्टेशन जा रहे होते और गाड़ी स्टेशन पर आकर सीटी बजा रही होती, तब भी हम उन्हें तेज कदम से चलते नहीं पाते. इसलिए अक्सर उनकी गाड़ी छूट जाती. हमलोग कभी कहते भी कि ‘शर्मा जी, लगता है, आपकी गाड़ी छूट गई’, तो वे कहते, ‘जेसे (वे हर बात के पहले ‘जेसे’ लगाते) गाड़ी छूटी नहीं है, मैंने छोड़ दी है.’ शर्मा जी में अद्भुत का धैर्य था. अपने इसी धैर्य की वजह से एक साल की पढ़ाई दो-तीन साल में पूरा करते. उनको देखकर कभी-कभी मन में यह ख्याल आता कि धैर्य कहीं आलसी लोगों का आभूषण तो नहीं ?
वे गणित के शिक्षक थे. गणित उनकी आत्मा में बसता था. जब भी कोई विद्यार्थी उनके पास गणित की कोई समस्या लेकर जाता तो उसमें तत्काल भीड़ जाते. अब छात्र की समस्या उनकी समस्या हो जाती और छात्र समस्या-मुक्त हो खेल आदि में लग जाता. वे उस हिसाब को दो-तीन विधि से बनाते और छात्र को संतुष्ट कर ही दम लेते. उनके इस स्वाभाव से गणित पढ़नेवाले कुछ दूसरे वरिष्ठ ग्रामीण छात्र उनसे इर्ष्या पाल लेते और अपने को संतुष्ट करने के लिए कहते, ‘शर्मा जी ने एक साल की पढ़ाई दो-तीन साल में की है, इसलिए गणित के सारे सवाल याद हो गए हैं.’ चाहे जो हो, उनके बाद मैंने कोई शिक्षक नहीं देखा जिसने छात्र की समस्या को अपनी समस्या माना हो. वे एक दुर्लभ प्रजाति के शिक्षक थे. उनके आगे कोई शिक्षक सर उठाने की जुर्रत नहीं कर सकता!

स्पेयर द रॉड स्पॉयल द चाइल्ड
हाई स्कूल ही में दीनबंधु प्रसाद सिंह 'दीन' थे। वे भूगोल के शिक्षक थे। अंग्रेजी और अर्थशास्त्र भी पढ़ाया करते। अंग्रेजी आठवीं तक तथा अर्थशास्त्र दसवीं तक। पाठ रटने और कंठस्थ करने पर उनका अतिशय जोर होता। अंग्रेजी में मीनिंग और स्पेलिंग हर हाल में याद करना होता। पाठ याद है अथवा नहीं यह जांचने का उनका तरीका बहुत ही विकट था। वे जिस किसी भी छात्र को खड़ा करते उसे स्वयं आद्योपांत स्पेलिंग और मीनिंग बोलना होता। कहीं कोई व्यतिक्रम हुआ अथवा गैपिंग हुई तो वे छड़ी लगाने में कोताही नहीं बरतते थे। वे 'स्पेयर द रॉड स्पॉयल द चाइल्ड' में काफी दूर तक आस्था रखने वाले शिक्षक प्रतीत होते। बल्कि कह सकते हैं कि वे छात्रों की पिटाई के अवसर की तलाश में रहते थे।

अर्थशास्त्र की पढ़ाई उन्होंने बी ए स्तर तक की थी। जब मैं दसवीं में गया तो उन्होंने एम ए करने की सोची। उन्होंने कहीं से नोट्स ऊपर कर रखे थे। उसकी नकल के लिए मुझे दे रखा था। वे वर्ग में अर्थशास्त्र विषय में जो कुछ पढ़ाते मैं उसकी चर्चा पड़ोस के अजय कुमार  से करता। अजय जी से अन्य विषयों पर भी मेरी घंटों की लंबी बातचीत होती। अजय जी जहानाबाद के कसवां गांव के निवासी थे। मेरे गांव के एक मुसम्मात के यहां उनका ननिहाल पड़ता था। इसलिए वे यहीं रहा करते। कॉलेज की शिक्षा-दीक्षा के बाद मसौढ़ी के एक वित्तरहित कॉलेज पन्नूलाल महाविद्यालय में व्याख्याता नियुक्त हुए थे। उनके पास जब मैं अपना पक्ष रखता तो वे अक्सर मेरे तर्क से सहमत होते और कई तरह की किताबों के साथ दीनबन्धु बाबू के सम्मुख उपस्थित हो जाते। दोनों में घंटों वाक्युद्ध चलता और मैं 'तृप्त' होता।

Monday, May 21, 2018

विजय ठाकुर को याद करना मनुष्यता के पक्ष में होना है


विजय ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात जानकी प्रकाशन में हुई थी। संभवतः 90 में, तब मैं उनका छात्र नहीं बना था। दरअसल विजय ठाकुर उन दिनों पीजेन्ट्स इन इन्डियन हिस्ट्री की योजना पर काम कर रहे थे। मेरे बड़े भाई डॉक्टर अखिलेश कुमार को इस मुताल्लिक एक आलेख देना था। आलेख का शीर्षक फ़िलहाल ठीक-ठीक याद नहीं। 'सोशल बैंडिटरी' के किसी पहलू से सम्बंधित था। या शायद 'सोशियो- एकेनौमिक आस्पेक्ट्स ऑफ द प्रॉब्लेम ऑफ डकैती इन कोलोनियल बिहार' शीर्षक रहा होगा। इस लेख को मुझे जानकी प्रकाशन में विजय कुमार ठाकुर को सौंप देना था। वे मुझे वहां पाजामा कुर्ता में बैठे मिले थे। नाक पर मोटे फ्रेम का चश्मा चढ़ाये, सिगरेट का धुआं उड़ाते। वे आजीवन ज़माने के ग़मों को इसी अंदाज में उड़ाते रहे।

 इस किताब को तीन खण्डों में लाने की योजना थी। उनके जीवनकाल में उक्त पुस्तक का पहला खण्ड ही आना संभव हो सका। डॉक्टर ठाकुर के साथ अशोक अंशुमान उस पहले खण्ड के संपादक हुए। बाकी के खण्डों का क्या भविष्य है, अशोक अंशुमान ही बता सकते हैं। भाई साहब का आलेख भी प्रकाशित होने से रह गया क्योंकि उसे दूसरे या तीसरे खण्ड में आना था। कभी-कभी सोचता हूँ, इतिहास में संयोग की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है!

प्रोफ़ेसर विजय कुमार ठाकुर बहुतेरों के शिक्षक हो सकते हैं, और उनके चेले भारत में कहीं भी देखे जा सकते हैं. एक चेला मैं भी रहा. लेकिन मैं उनके इतिहास-ज्ञान से ज्यादा उनकी मनुष्यता का कायल रहा. सोचता था, ज्ञान तो पोथियों में मिल जाया करता है; मनुष्यता अन्यत्र दुर्लभ है. एम.ए. में दाखिला लिए दो-चार दिन ही हुए थे कि एक दिन अचानक श्री ठाकुर ने सौ रुपये का नोट थमाया. कहा, ‘जरा सिगरेट का एक पैकेट ला देना.’ शीघ्र ही मैंने सिगरेट और रेजगारी डिपार्टमेंट के चपरासी (रामजी सिंह) के माध्यम से भिजवा दी. फिर मेरे मार्क्सवादी मन ने सोचा, ‘एक आदमी इतने पैसे का धुआं उडाए और मेरे पास जूते भी न हों?’ चपरासी से मैंने फिर सारी रेजगारी मंगवा ली और कुछ मिलकर 100 का जूता ले लिया. दूसरे दिन क्लास में मैंने कहा, ‘सर, आपके पैसों से मैंने जूते ले लिए.’ ‘अरे, उतने में जूता कैसे आ सकता है ?’ मैंने तपाक से कहा, ‘एकदम लंगा नहीं हूँ, कुछ मेरे पास भी थे. और वैसे भी, 100 से ऊपर के जूते मुझे मुकुट लगते हैं !’ वे निष्कपट देर तक हँसते रहे.

 बात सन 93-94 की है. मैं, अशोक कुमार और अशोक अंशुमान, विजय ठाकुर के साथ कहीं से लौट रहे थे. संभवतः हाजीपुर से. कहने की जरूरत नहीं कि हम सबने यथोचित मात्रा में शराब पी रखी थी. गंगा सेतु पर पहुंचकर डाक्टर ठाकुर ने गाड़ी रुकवाई. नशे की हालत में विजय ठाकुर बच्चा हो जाते थे बल्कि कहिए कि उन्होंने अपने अन्दर के बच्चे को बचाकर रखा था जो आवश्यक खुराक पाकर खिलंदड़ा हो उठता. रात्रि के आठ –नौ बजे थे. ठाकुर जी की ओर से प्रस्ताव आया कि हम सब एकसाथ बीच गंगा में मूत्र-त्याग करेंगे. अशोक अंशुमान साहब ने ऐसा करने से मना कर दिया तो ठाकुर जी का फरमान जारी हुआ कि उसकी टोपी गंगा में फेंक दो. यह सुन अशोक अंशुमान आत्मरक्षा में भाग खड़े हुए. हमदोनों ने उनका पीछा किया. दूर अँधेरे में जाने पर वे कुछ बुदबुदाए जिसका सार था-‘अब तो बख़्श दो’. इस तरह अँधेरे ने उनके सिरस्त्राण (टोपी) की प्राण-रक्षा की.
  ये चेले नहीं, शंकर के गण हैं
93-94 की बात है। हमलोग यानि विजय ठाकुर, ब्रजकुमार पांडे, मैं और अशोक कुमार कार में संभवतः प्रभाकर प्रसाद सिंह के दयालपुर स्थित कॉलेज से लौट रहे थे। ठाकुर जी और पांडेय जी के बीच नागार्जुन और अपूर्वानंद के मसले को लेकर रास्ते भर बातचीत चलती रही थी। मुझ वाचाल को चुप रहना असह्य हो रहा था। अतः पांडेय जी को संबोधित कर मैंने कहा, 'आपलोग जो इतनी देर से इस विषय पर बहस कर रहे हैं, नागार्जुन की कोई कविता याद भी है क्या?' मेरे इस अवांछित और अप्रत्याशित प्रश्न से दोनों भीतर तक आहत हो गये लेकिन बोले कुछ नहीं। उसके बाद भी दोनों घंटों तक चुप रहे। जब हमलोग पटना में बहादुरपुर गुमटी के पास पहुंचे तो फिर मैंने कुछ कह दिया। क्या कहा इसका स्मरण नहीं है। किंतु इस बार विजय ठाकुर का संचित गुस्सा फूट पड़ा। उन्होंने मुझे भयानक डांट पिलाई। मुझे परिणाम का पहले से पता था, इसलिए चुप ही रहा। ठाकुर जी जब गुस्सा होते तो रौद्र रूप धारण कर लेते!

ठाकुर जी को अपने चेलों की और उनके चेलों को अपने 'ठाकुरजी' की बखूबी समझ थी। दूसरे शिक्षक इस 'ट्यूनिंग' को समझ पाने में असमर्थ होते। संभवतः 95 की बात है जब हमलोग कलकत्ता हिस्ट्री कांग्रेस से लौट रहे थे। इतिहास शिक्षक ओमप्रकाश बाबू भी साथ थे। विजय ठाकुर के चेलों को देख उनकी भी हसरत जगी। कहा, 'विजय, तुम अपने कुछ चेलों को मुझे दे दो।' ठाकुर जी ने सहज, सगर्व कहा, 'सर, ये चेले नहीं, शंकर के गण हैं। शंकर से अलग होते ही सब शंकर-रूप हो जाते हैं।'

Monday, December 27, 2010

और एक स्कूल का अंत हो गया


मैंने इसे विजय कुमार ठाकुर के निधन (२७.१२.२००६) पर प्रेमकुमार मणि की पत्रिका 'जन विकल्प ' के लिए लिखा था. आज ठाकुर जी की याद में श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत कर रहा हूँ -

विजय कुमार ठाकुर के असामयिक निधन से बिहार के इतिहास-जगत् को जो क्षति पहुंची है उसकी भरपाई दूर-दूर तक असंभव प्रतीत होती है। खासकर पटना विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग तो उनके बगैर वर्षों तक बेजान ही रहेगा। ऐसा लगता है मानों इतिहास विभाग से इतिहास निकल गया और विभाग शेष रह गया। वे एक प्रतिबद्ध शिक्षक, प्रतिबद्ध इतिहासकार और छात्रों के सच्चे मार्गदर्शक थे। इन सब के ऊपर वे एक बेहतर मनुष्य थे। उनके जाने से एक साथ इतने सारे पदों की रिक्ति हो गई। भविष्य का कोई अकेला आदमी इन तमाम रिक्तियों को भर सकेगा, संदेह है।

ठाकुर जी को इतिहास विरासत में प्राप्त हुआ था। सन् 52 में इनका जन्म उपेन्द्रनाथ ठाकुर के घर हुआ जो स्वयं प्राचीन इतिहास, संस्कृत और पालि के विद्वान थे। रामकृष्ण मिशन, देवघर से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सायंस कॉलेज, पटना में उन्होंने दाखिला लिया। इतिहास को शायद यह मंजूर न था, फलतः बी.ए. में वे बी.एन. कॉलेज आ गये, जहां इतिहास को उन्होंने अपना विषय बनाया। इतिहास विभाग से उन्होंने 72-74 सत्र में एम. ए. किया और मार्च 1975 में उसी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए। इसी दौरान राधाकृष्ण चौधरी के निर्देशन में भागलपुर विश्वविद्यालय से ‘अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया’ विषय पर अपना शोधकार्य पूरा किया। इनके शोध-निर्देशक बिहार में मार्क्सवादी इतिहास लेखन की पहली पीढ़ी के इतिहासकार थे।

प्रो. ठाकुर के लेखन/प्रकाशन की शुरुआत सन् 81 में उनकी पुस्तक अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया के प्रकाशन से मानी जा सकती है। इस पुस्तक के बाद उन्होंने भारतीय इतिहास लेखन के सबसे विवादास्पद विषय, अर्थात् सामंतवाद को चुना और उससे जुड़ी विभिन्न धाराओं की पड़ताल प्रस्तुत करते हुए सन् 89 में ‘हिस्ट्रीयॉग्राफी ऑफ इंडियन फ्यूडलिज्म’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। सन् 93 में ‘सोशल डायमेंशन्स ऑफ टेक्नॉलॉजी: आयरन इन अर्ली इंडिया’ प्रकाश में आई। 2003 में ‘पीपुल्स हिस्ट्री शृंखला’ के तहत इरफान हबीब के साथ ‘दि वेदिक एज ’ पुस्तक लिखी जो वेदकालीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को समझने के लिए एक जरूरी किताब साबित हुई। विगत वर्ष यानी सन् 2006 में ‘सोशल बैकग्राउंड ऑफ बुद्धिज्म ’ छपकर आई जिसमें बौद्ध-धर्म से संबंधित अद्यतन जानकारियों एवं अवधारणाओं को उद्घाटित करने की कोशिश थी। आपने कुछ महत्त्वपूर्ण किताबों का संपादन भी किया है जिनमें ‘टाउंस इन प्री मॉडर्न इंडिया’, ‘पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री’-खंड 1, ‘सायंस, टेक्नॉलॉजी एंड मेडिसीन इन इंडियन हिस्ट्री’ आदि प्रमुख है। ‘पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री’ का दूसरा एवं तीसरा खंड प्रेस में है। इनके अलावे सैकड़ों शोध-आलेख विभिन्न पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित हैं।

विजय कुमार ठाकुर महज पुस्तकों की दुनिया तक अपने को सीमित छोड़ देनेवाले लेखक न थे वरन् विभिन्न मोर्चों एवं संगठनों के माध्यम से सक्रिय भागीदारी भी निभाते थे। सन् 91 में जब मैं पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का छात्र था, उन्होंने अपने संरक्षण में विभाग के अन्य छात्रों को संगठित कर ‘इतिहास विचार मंच’ की स्थापना की थी। इस मंच की स्थापना में मेरे सहपाठी श्री अशोक कुमार का भी अपूर्व योगदान था। इस मंच से ‘प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था’ एवं ‘सबाल्टर्न स्टडीज’ जैसे अकादमिक महत्त्व के विषयों पर व्याख्यान आयोजित हुए थे।

देश में इतिहास की सबसे बड़ी संस्था ‘इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस’ में बिहार की भागीदारी को निर्णायक बनाने में ठाकुर जी का योगदान प्रशंसनीय रहा। यह उनके निजी प्रयास व नेतृत्त्व-कौशल का नतीजा था कि बिहार से सैकड़ों इतिहासकार (विशेषकर युवा) हिस्ट्री कांगेस में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाते थे। ठाकुर जी 1975 से इसके सक्रिय सदस्य थे। वे कार्यकारिणी सदस्य भी थे। सन् 92-95 के बीच वे संयुक्त सचिव रहे। सन् 1997 में, अर्थात् बंगलौर अधिवेशन (58 वें) में प्रभागाध्यक्ष (सेक्शनल प्रेसीडेंट, प्राचीन भारतीय इतिहास) रह चुके थे। सन् 2004 में वे आगामी तीन वर्षों के लिए जेनरल सेक्रेटरी चुने गये किंतु खराब स्वास्थ्य के कारण नवम्बर, 2005 में उन्होंने इस्तीफा दे डाला। इसके अतिरिक्त वे आंध्र इतिहास परिषद् तथा बंग इतिहास परिषद् के भी प्रभागाध्यक्ष रह चुके थे। ओरिएंटल कांफ्रेंस, 2006 (श्रीनगर) में भी वे प्राचीन भारत के प्रभागाध्यक्ष हुए। इधर वे प्राध्यापक से प्रति-कुलपति हो गये थे।

छात्रों के बीच ठाकुर जी काफी लोकप्रिय थे। वे बोलते इतना बढ़िया थे कि एम. ए. के दौरान अशोक जी ने उनके सारे लेक्चर टेप कर लिए थे जिसका ‘इतिहास-समग्र’ पुस्तक लिखते हुए भरपूर इस्तेमाल भी किया। ठाकुर जी हिंदी-अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में घंटों बोलने की सामर्थ्य रखते थे। उनकी हिन्दी भी शायद ही अशुद्ध होती थी। कक्षा में छात्र उनके अद्यतन ज्ञान एवं भाषा का आतंक महसूस करते। आवाज भी बहुत ‘लाउड’ थी। बदमाश से बदमाश छात्र उनको अपने समक्ष पाकर पिद्दी बन जाते, मानों अंगुलिमाल डाकू को अचानक बुद्ध का सामना करना पड़ गया हो। ‘इस्ट एंड वेस्ट’ कोचिंग संस्थान के आरंभिक दिनों में, ‘मार्क्स’ की उपाधि से मशहूर हो गये थे। वे एक चलता-फिरता स्कूल थे। उनके निधन से उस स्कूल में ताले लटक गये।

विभाग से छूटते तो ‘जानकी प्रकाशन’ में आकर जम जाते। यहां विश्वविद्यालय के विद्वान शिक्षकों एवं शोध-छात्रों का मेला लग जाता। घंटा-दो-घंटा यहां नियमित बैठते। हमारी पीढ़ी ने कॉफी हाउस की सिर्फ कहानियां सुनी थीं, हकीकत में जानकी प्रकाशन का ‘कुभ’ ही देखा था। यहां इतिहासवालों की बैठक होती और ‘राजकमल प्रकाशन’ में साहित्यकारों की गोष्ठी जमती। जानकी प्रकाशन में आकर्षण का केन्द्र थे ठाकुर जी। यहीं शोधार्थी अपने आलेख व थीसिस दुरुस्त करवाते। हिस्ट्री कांग्रेस के समय यहां भीड़ अचानक बढ़ जाती। सैकड़ों लोग आते, अपना पर्चा सुनाते-दिखाते और उचित मार्गदर्शन पाते। कभी-कभी वे इतना काटते-छांटते कि लेखक का ‘मूल’ ‘निर्मूल’ हो जाता। वे नये लोगों को बहुत प्रोत्साहित करते और मान देते थे। अन्य जगहों पर लोग इसका अभाव महसूस करते। जानकी से निवृत हो घर पहुंचते तो वहां भी शाम होते-होते लोग आ घेरते। चाय-नाश्ते का दौर चलता। चाय हमेशा मैडम (पत्नी) ही बनातीं। उनके घर नौकर न पाकर मेरे मार्क्सवादी मन को बड़ा संतोष होता और अपने गुरु के बड़प्पन का अहसास करता।(नारी -मुक्ति के विमर्शकारों के लिए यहाँ थोड़ा स्पेस दे रहा हूँ ).

बहुत कम लोग जानते हैं कि विजय कुमार ठाकुर का एक कवि रूप भी था। वे समय-समय पर कविताएं भी रचा करते थे। जब कभी वे हमलोगों के बीच ‘खुलते’ तो अपनी कविताएं दिखाते और उनके प्रकाशन की योजना के बारे में सूचना देते। कविताओं के चयन का दायित्त्व उन्होंने मुझे और अशोक जी को दे रखा था। पहली बार उनकी दो कविताएं ‘लोक दायरा’ में प्रकाशित हुई थीं। इन्हीं कविताओं को दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से निकलनेवाले अखबार ‘कैंपस संधान’ में मृणाल वल्लरी ने पुनर्प्रकाशित किया था। बहुत संभव है कि साहित्य के जो अपने निकष हैं उनके आधार पर उनकी कविताओं को सिरे से खारिज कर दिया जाये लेकिन इनसे इनके मानसिक द्वन्द्व एवं अंतर्मन को समझा जा सकता है। उनके काव्य-संग्रह ‘अंतर्वेदना’ में एक संघर्षशील आदमी की बेचैनी और जिद को पकड़ा जा सकता है। बेहतर से और बेहतर बनने की कोशिश या फिर न बन पाने की टीस उनकी कविताओं से खाद-पानी पाता था। उन्होंने मिजाज कवि का पाया था। कवि विश्वरंजन उनके गहरे मित्र थे और अपने सर्वप्रिय कवि में आलोक धन्वा का नाम लेते थे।

निधन के कुछ दिनों पहले से ही वे चीजों को समेटना शुरु कर चुके थे, मानो कोई पूर्वाभास हो। रात-दिन किताबों से चिपके रहते और लाल-पीले स्केच से रंगते जाते। कुछ छूट जाने का भय सताने लगा था। अंतिम दिनों में दिल्ली से खरीदकर लाई गई रणधीर सिंह की पुस्तक ‘ दि क्राइसिस ऑफ सोशलिज्म ’ का अंतिम पाठ पढ़ रहे थे। महान लेखक ग्रीन की तरह पुस्तकें पढ़ते हुए मरना शायद सपना रहा हो। वे गये, लेकिन ‘किताबों का क्या करें’ की चिंता परिवारवालों के लिए छोड़ गए।

Monday, December 6, 2010

और नालिश क्यों नहीं की ?

और इसी तीसरी कक्षा में विद्यालय के प्रधानाध्यापक जगदीश माट्सा से भेंट हुई. वे मेरे ही ग्रामीण थे. गहरे सांवले रंग के गंवई. किसान का चेहरा लिए हुए. कुरता-धोती उनका स्थायी पहनावा था. बिल्कुल छोटे कटे बाल रखते-लगभग न के बराबर. सिर पर बाल कम होने की एक वजह तो खुद उनकी वृद्धावस्था थी. उसी साल वे अपने कार्यभार से मुक्त भी हुए थे इसलिए उम्र हो चुकी थी. दूसरी कि उन दिनों बढ़े बाल तनिक पसंद न किये जाते थे. रहन–सहन से सादगी झलकती. ऐसी कि उन्हें देखकर शायद ही किसी को विश्वास होता कि वे शिक्षक हैं. लेकिन मुँह खोलने के बाद किसी को फिर परिचय की दरकार भी नहीं रह जाती होगी. गांव के विद्यालय में और एक ग्रामीण होने के बावजूद उनकी भाषा शुद्ध और समृद्ध होती. विद्यालय परिसर में मैंने उन्हें कभी क्षेत्रीय भाषा में या बेजरूरत बात करते नहीं सुना. वे उर्दू-बहुल/मिश्रित हिंदी का प्रयोग करते. शायद इसी वजह से उनकी भाषा मुझे खींचती और वे मुझे अच्छे लगते. कुल मिलाकर उनके व्यक्तित्व की जो तस्वीर बनती वह मेरे बालमन पर अपना असर छोडना आरंभ कर चुकी थी. आज भी उनके द्वारा शायद सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द ‘नालिस’ याद है. याद है कि जब छात्र आपस में झगड़ा करते और उनमें से कोई अगर उनके पास पहुंचकर शिकायत कर देता तो बादवाले को मार खानी ही पड़ जाती. अगर उस बच्चे की गलती न भी होती और वह अपने पक्ष में सफाई पेश करने में सफल भी हो जाता तो भी वे अपना पहला और अंतिम सवाल करते कि फिर नालिस क्यों नहीं की? शायद वे यह मानकर चलते थे कि नालिश न करना अपने आप में एक जुर्म है और इसीलिए उसकी सजा तो अवश्य ही मुक़र्रर होनी चाहिए.

वे स्वभाव से काफी सख्त, अनुशासनप्रिय व एक संयत इंसान थे. हम छात्रों के साथ कभी अवांछित नहीं बोलते. उनके बैठने की जगह के पास एक दराज वाला टेबल होता और बगैर हाथ की एक कुर्सी होती. उसी टेबल पर शिक्षकोपस्थिति व छात्रोपस्थिति पंजी रखी होती. उनके ठीक दाहिनी ओर दरवाजा होता जिसकी ओट में वे बार–बार खैनी की पीक दांतों के बीच से पिच आवाज के साथ फेंकते. थोड़े दिनों तक मैंने भी इस आदत का आज्ञा की तरह पालन किया था.

वे विद्यालय आते तो अपने साथ कपड़े का सिला एक झोला अवश्य लाते. आने में कभी विलम्ब कर देते या कोई शिक्षक ही उनसे पहले पहुँच चुके होते तो हम छात्रों में से कोई उनके घर जाता और ऑफिस की चाबी ले आता और उस कमरे को खोल बैठने आदि के लिए लकड़ी का तख्ता निकल लेते. पूरे विद्यालय परिसर में झाड़ू आदि लगाने का काम भी हमी छात्रों के जिम्मे था. प्रायः प्रत्येक शनिवार को छात्र बगल के घर से गोबर चुरा /उठा लाते और छात्राओं के जिम्मे फर्श लीपना होता. इन कार्यों की देखरेख का जिम्मा मुझ जैसे मोनिटरों को लेना होता.

सबसे नायाब था उनका पढने का तरीका. वे हमें हिंदी पढ़ाते. पाठ्य-पुस्तक की रीडिंग पर एकमात्र जोर होता. यानि हमलोग रोजाना ही उनकी घंटी में हिंदी की किताब निकालते और क्रमशः खड़े होकर बोलकर पढ़ते. बीच-बीच में वे शब्द के हिज्जे भी पूछते चलते. किताब पढ़ रहे छात्र से अगर किसी शब्द का सही-सही उच्चारण नहीं हो पाता था तो बगल (आगे-पीछे) के छात्र से पूछा जाता. अगल-बगल के छात्र भी जब सही उच्चारण कर पाने में असमर्थ साबित होते तो उनका फरमान जारी होता कि जिसे मालूम है वह उच्चारण करे. जो छात्र बता देता वह सबकी पीठ पर एक-एक मुक्का लगाता. मेरी भाषा अन्य छात्रों की तुलना में बेहतर थी इसलिए मुक्का लगाने का सुख ज्यादातर मुझे ही हासिल होता. याद नहीं कि उच्चारण-दोष की वजह से मुझे मार लगी हो. अलबत्ता मथुरा रजक से सम्बंधित एक घटना की याद अवश्य ही अबतक बनी हुई है. कहना न होगा कि उसकी हिंदी बहुत ही गड़बड थी. एक अनुच्छेद पढने में उसने बीसेक गलतियाँ की थीं और मैंने कुछ इतने ही मुक्के लगाये थे. जहाँतक याद है, वह बीमार हो गया था और कई दिनों तक विद्यालय नहीं आ सका था.

Monday, November 22, 2010

बुद्ध और बहनजी

इन्हीं दिनों राजेन्द्र प्रसाद नाम के एक शिक्षक आए जो हमें इतिहास पढ़ाते. जैसाकि उन दिनों हमलोगों को बताया गया, उनका घर पावापुरी था. इस बात की भी हल्की स्मृति अबतक बनी है कि उन्होंने इसका सम्बन्ध गौतम बुद्ध के जीवन से जोड़ा था. वे हमें बुद्ध से सम्बंधित कथा–कहानियाँ सुनाते. बाद के दिनों में वे हमारे ही गांव के एक व्यक्ति के यहाँ रहने भी लगे. बाहर से आनेवाले शिक्षक अक्सर गांव के किसी आदमी के यहाँ ही रहते. उनदिनों तो इस बात का कभी ख्याल नहीं आया लेकिन अब जाकर ध्यान देता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे शिक्षक अपनी ही जाति के ग्रामीण के यहाँ रहना पसंद करते थे. ऐसा संभव नहीं होने पर ही वे दूसरे विकल्प की तलाश करते या उसे स्वीकार करते होते. एक और शिक्षक थे जो बगल के गांव (मसौढी-पटना सड़क पर स्थित धनरुआ) से आते. वे सायकिल से आते इसलिए हमलोग उन्हें सायकिल वाला माट्सा कहते. शायद इसलिए भी कि सायकिल होना भी उन दिनों महत्व की बात रही होगी. जहां तक मुझे याद है, मैं चौथी–पांचवीं में पढ़ता होऊंगा कि मेरे फूफा के भाई सायकिल से आए थे और गांव के ही एक व्यक्ति के दरवाजे पर छोड़ आए थे. उसे लाने के लिए हम दो भाइयों को जब कहा गया तो तनिक प्रसन्न न हुए थे. ये और बात है कि उसे घर तक लाने में जो परेशानी और फजीहत का सामना करना पड़ा था उससे खुशी थोड़ी कम हो चली थी. उसी दिन जाकर यह ज्ञान हुआ कि अगर आप सायकिल चलाना नहीं जानते हैं तो उसे केवल साथ लिए चलना भी आसान काम नहीं होता. अब मैं तीसरी कक्षा में था जब स्कूली जीवन में थोड़ी हलचल महसूस की. स्कूल के वातावरण में यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल–फैला दी गई कि शीघ्र ही एक मास्टरनी साहब (साहिबा कहना तब शायद हमारे शिक्षक भी नहीं जानते होंगे. हालाँकि इसे बहुत भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता) हमलोगों को पढ़ाने हेतु आ रही हैं. बस अब क्या था बच्चों–शिक्षकों को चर्चा का स्थायी विषय हाथ लग गया. सच पूछिए तो मैं थोड़ा डरा–सा महसूस करने लगा था. औरतें भी शिक्षक हो सकती हैं यह मेरी कल्पना में अबतक बिल्कुल भी नहीं था. उनसे कैसे पढ़ा जाया जायेगा. कैसे बात की जायेगी–ऐसे तब के महत्वपूर्ण सवाल मेरे दिमाग में उठने लगे और कहूँ कि उस बदले माहौल के लिए साहस बटोरने का काम भी शुरू कर दिया था. मेरी इस समस्या को हमारे शिक्षकों ने आसान बनाया. उन्होंने कुछ आवश्यक ट्रेनिंग और हिदायतें हमें दीं. पहली हिदायत तो यही थी कि हमलोग उन्हें मास्टरनी साहब नहीं बल्कि बहनजी कहेंगे. हम सभी इसकी आवश्यक तैयारी में लग गये. लेकिन शिक्षक को बहनजी कहने की मनःस्थिति में होना हमारे लिए इतना आसान नहीं था. पितृसत्तात्मक समाज के मूल्यों से संचालित हमारा मन-मस्तिष्क बीच–बीच में अड़ जाता और मुँह से बहनजी की बजाय मास्टर साहब ही निकल आता. बहनजी कहते मैं झेंप भी महसूस करता. लेकिन धीरे–धीरे स्थिति सामान्य होती गई. हमलोगों ने इसे जितना हौवा बना लिया था या जितना मैं डरा हुआ था वैसी कोई बात नहीं हुई. इसमें शायद इस बात का भी योग हो कि वे मेरे ही ग्रामीण थीं और उनके परिवार का एक छात्र मेरा सहपाठी था. उनके आए कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन अचानक हमलोग पांच–छह बच्चों को उनके घर जाने हेतु चुना गया. हालाँकि चुनाव में शरीर और उसके वजन का खासा ख्याल रखा गया था फिर भी बात समझ में न आ सकी थी, घर जाकर ही हमलोगों को पाता चला कि ढेंकी चलाकर चूड़ा कूटना है. इसके लिए निश्चय ही अपेक्षाकृत भारी शरीरवाले बच्चों की जरूरत थी. हमलोगों ने मजे में इस काम को अंजाम दिया और वहीँ से सीधे घर चले आए. आज शायद शिक्षक बच्चों से अपना काम करना उतना आसान नहीं समझ सकते.

Saturday, November 20, 2010

पटनावाला माट्सा

दूसरी कक्षा में गया तो एक और शिक्षक से नाता जुड़ा. दरअसल वे नए–नए विद्यालय में आए थे. वैसे उनका नाम सूर्यदेव पासवान था लेकिन हम बच्चे उन्हें नयका माट्सा (मास्टर साहब का संक्षिप्त रूप) या पटनावाला माट्सा कहते. वे गहरे काले रंग के थे. लेकिन थे सफाई पसंद. उनके वस्त्र झक झक सफ़ेद होते. प्रायः प्रत्येक शनिवार को वे प्रार्थना से पहले पी.टी. की घंटी में प्रत्येक छात्र का बारीकी से अध्ययन करते. कौन स्नान करके आया है या नहीं इसकी पूरी खबर ली जाती. एक-एक बच्चे के नाख़ून देखे जाते कि वे कायदे से काटे गए हैं अथवा नहीं. जो पकड़ में जाते उनकी पिटाई तय थी. वे खुद भी अपनी सफाई का ध्यान रखते. उनके बाल कायदे से कटे हुए होते. कानों के आसपास के पके बाल अच्छे लगते. कभी कभी विद्यालय गमकउआ जरदा का पान खाये आते. उनके वास्ते हमलोग कभी मटर की फलियां तोड़कर लाते तो कभी चना-खेसारी का साग काटते. कभीकभी सत्तू की भी मांग भी रखते. पटना जैसे शहर में तब इन चीजों को और भी मूल्यवान समझा जाता रहा होगा. कोर्स की किताबों के साथसाथ वे हमें कहानियाँ भी सुनाते. अधिकतर कहानियां रामायणमहाभारत से होतीं. इन कहानियों को सुन मेरा मन रोमांचित हो उठता. त्याग और वीरता की कहानियाँ सुनते हुए ऐसे भाव सहज ही पैदा होने लगते. मेरे व्यक्तित्व को गढ़ने में निश्चय ही उनका और उनकी कहानियों का योगदान है. पटने में वे एक बार दूर से दिखे तो पहचान में नहीं रहे थे. बुढ़ापे की वजह से चेहरा बदल गया था और कपड़ों की वह चमक भी जाती रही थी. हाँ जब उनको याद करता हूँ तो एक और रूप ध्यान में आता है. वे कुछ दिनों तक विद्यालय धोती की जगह लुंगी में आया करते थे. उन दिनों तो इस विशिष्टता के बारे में सोंच नहीं पाया था लेकिन अब उसका अर्थ समझ में आता है. दरअसल उन्होंने परिवार नियोजन कराया था. इंदिरा गाँधी के शासन का यह अंधा दौर था जब बड़ी संख्या में लोगों का उनकी इच्छा के विरुद्ध बंध्याकरण कर दिया जाता था. थोड़ दिनों तक हम बच्चे भी अकेले निकलने में डर महसूस करते. इस अभियान की यह बुरी याद अबतक बनी हुई है.

Saturday, October 30, 2010

मेरे गुरुजन-याद बाकी है जिनकी

स्कूल में मेरा दाखिला कब और किन हालात में हुआ, मुझे कुछ भी याद नहीं। हां, इतना अवश्य याद है कि मेरे विद्यालय में कुल दो कमरे थे। एक कमरे में कार्यालय होता और तीसरी कक्षा के छात्र होते। तीसरी कक्षा हमारे तब के प्राथमिक विद्यालय की सबसे ऊंची कक्षा थी, शायद इसी वजह से इसके छात्रों को इसमें बैठने का अधिकारी समझा जाता रहा होगा। दूसरे कमरे में दूसरी जमात के विद्यार्थी बैठते। और बाकी के हम सब-यानी पहली जमात के बच्चे बरामदे पर होते। तब तो नहीं, लेकिन अब समझ में आता है कि ऐसी व्यवस्था छात्रों की हायरार्की को ध्यान में रखकर ही लागू की गई होगी। इसके अलावा दो अर्धनिर्मित कमरे और भी थे जिनका इस्तेमाल छात्राओं के पेशाबघर के रूप में होता। हम छोटे बच्चे इसे ‘ऑफ साइड’ (अपने मूल में शायद यह ‘आउटसाइड’ रहा होगा) कहते। किसी को भी अगर पेशाब करने जाने की अनुमति लेनी होती तो पूछता ‘क्या मैं ऑफ साइड जाऊं श्रीमान ?’

विद्यालय की दिनचर्या प्रार्थना की घंटी से होती। यह घंटी लगातार बजती जिसे हमलोग ‘टुनटुनिया’ कहते। पहली टुनटुनिया का मतलब होता कि हमलोगों को प्रार्थना के लिए तैयार हो जाना चाहिए। हम सब प्रार्थना करते लेकिन ध्यान कहीं और ही होता। प्रार्थना जैसे ही खत्म होती कि हम सारे ही बच्चे ऑफिस की तरफ दौड़ पड़ते और पटरा लूटने में लग जाते। हम बच्चे इसी पर बैठते। जिसके पास यह होता वह गौरवान्वित महसूस करता और जो इससे वंचित रह जाता वह उदास मन से अपना बोरा बिछाकर या वह भी नहीं रहने पर खालिस जमीन पर बैठता। तब कहीं जाकर पहली घंटी लगती और वर्ग में शिक्षक आते। कभी-कभी शिक्षकों के आने में देर हो जाती तो पूरी व्यवस्था क्लास के मॉनिटरों को देखनी पड़ती। ये मॉनिटर शिक्षक की अनुपस्थिति में पूरे के पूरे शिक्षक हो जाते। बच्चों के बीच उनका एक शिक्षक की ही तरह मान भी होता। कभी कोई अगर मॉनिटर की हुक्मउदूली की कोशिश करता तो काफी सख्त मार लगती।

जबतक मैं पहली कक्षा में रहा, एक ही शिक्षक से वास्ता रहा- और वे थे शिवन पाठक। वे मेरी बगल के गांव (मटौढ़ा) से आते थे। वे गोरे रंग के दुबले-पतले आदमी थे। उम्रदराज भी थे। उनके नकली दांतों की चमक आज भी मुझे हतप्रभ कर जाती है। वे विद्यालय भी पीतल की मूठवाली लाठी लेकर आते। उसी लाठी से हम सबके सिर पर ठक-ठक हमला करते। हम बच्चों ने इसीलिए उनका नाम ठुकरहवा मास्टर साहब या पंडिजी रख छोड़ा था। वे जाति से पंडित अर्थात् ब्राह्मण थे। वे लगभग पूरे ही दिन बरामदे पर घूम रहे होते और देखते जाते कि कोई चुप तो नहीं लगा रखी है। हमलोगों के जिम्मे एक से लेकर चालीस तक का पहाड़ा होता। इसे लगातार ऊंचे स्वर में बोलना पड़ता। आवाज में तनिक भी उतार-चढ़ाव वे बर्दाश्त न करते। आवाज मद्धिम पड़ी नहीं कि उनकी लाठी बगैर किसी पूर्व-सूचना के हमारे सिर से स्नेह दिखा रही होती। नतीजतन, चालीस तक का पहाड़ा हमलोगों की जुबान पर होता। टिफिन के बाद वाले समय में हमलोग आरोही-अवरोही क्रम में गिनती दुहराते। पहली बार में सीधा एक से सौ तक और फिर सौ से चलकर एक तक पहुंचते। ठीक जैसे लौटकर ‘बुद्धू घर को आये।’ लेकिन इसे बुद्धू नहीं, बल्कि बुद्धिमान बनने का एक आवश्यक उपक्रम की तरह समझा जाता। आज मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया नीरस और उबाउ भले थी, लेकिन थी बड़े ही काम की।