Monday, May 21, 2018

विजय ठाकुर को याद करना मनुष्यता के पक्ष में होना है


विजय ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात जानकी प्रकाशन में हुई थी। संभवतः 90 में, तब मैं उनका छात्र नहीं बना था। दरअसल विजय ठाकुर उन दिनों पीजेन्ट्स इन इन्डियन हिस्ट्री की योजना पर काम कर रहे थे। मेरे बड़े भाई डॉक्टर अखिलेश कुमार को इस मुताल्लिक एक आलेख देना था। आलेख का शीर्षक फ़िलहाल ठीक-ठीक याद नहीं। 'सोशल बैंडिटरी' के किसी पहलू से सम्बंधित था। या शायद 'सोशियो- एकेनौमिक आस्पेक्ट्स ऑफ द प्रॉब्लेम ऑफ डकैती इन कोलोनियल बिहार' शीर्षक रहा होगा। इस लेख को मुझे जानकी प्रकाशन में विजय कुमार ठाकुर को सौंप देना था। वे मुझे वहां पाजामा कुर्ता में बैठे मिले थे। नाक पर मोटे फ्रेम का चश्मा चढ़ाये, सिगरेट का धुआं उड़ाते। वे आजीवन ज़माने के ग़मों को इसी अंदाज में उड़ाते रहे।

 इस किताब को तीन खण्डों में लाने की योजना थी। उनके जीवनकाल में उक्त पुस्तक का पहला खण्ड ही आना संभव हो सका। डॉक्टर ठाकुर के साथ अशोक अंशुमान उस पहले खण्ड के संपादक हुए। बाकी के खण्डों का क्या भविष्य है, अशोक अंशुमान ही बता सकते हैं। भाई साहब का आलेख भी प्रकाशित होने से रह गया क्योंकि उसे दूसरे या तीसरे खण्ड में आना था। कभी-कभी सोचता हूँ, इतिहास में संयोग की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है!

प्रोफ़ेसर विजय कुमार ठाकुर बहुतेरों के शिक्षक हो सकते हैं, और उनके चेले भारत में कहीं भी देखे जा सकते हैं. एक चेला मैं भी रहा. लेकिन मैं उनके इतिहास-ज्ञान से ज्यादा उनकी मनुष्यता का कायल रहा. सोचता था, ज्ञान तो पोथियों में मिल जाया करता है; मनुष्यता अन्यत्र दुर्लभ है. एम.ए. में दाखिला लिए दो-चार दिन ही हुए थे कि एक दिन अचानक श्री ठाकुर ने सौ रुपये का नोट थमाया. कहा, ‘जरा सिगरेट का एक पैकेट ला देना.’ शीघ्र ही मैंने सिगरेट और रेजगारी डिपार्टमेंट के चपरासी (रामजी सिंह) के माध्यम से भिजवा दी. फिर मेरे मार्क्सवादी मन ने सोचा, ‘एक आदमी इतने पैसे का धुआं उडाए और मेरे पास जूते भी न हों?’ चपरासी से मैंने फिर सारी रेजगारी मंगवा ली और कुछ मिलकर 100 का जूता ले लिया. दूसरे दिन क्लास में मैंने कहा, ‘सर, आपके पैसों से मैंने जूते ले लिए.’ ‘अरे, उतने में जूता कैसे आ सकता है ?’ मैंने तपाक से कहा, ‘एकदम लंगा नहीं हूँ, कुछ मेरे पास भी थे. और वैसे भी, 100 से ऊपर के जूते मुझे मुकुट लगते हैं !’ वे निष्कपट देर तक हँसते रहे.

 बात सन 93-94 की है. मैं, अशोक कुमार और अशोक अंशुमान, विजय ठाकुर के साथ कहीं से लौट रहे थे. संभवतः हाजीपुर से. कहने की जरूरत नहीं कि हम सबने यथोचित मात्रा में शराब पी रखी थी. गंगा सेतु पर पहुंचकर डाक्टर ठाकुर ने गाड़ी रुकवाई. नशे की हालत में विजय ठाकुर बच्चा हो जाते थे बल्कि कहिए कि उन्होंने अपने अन्दर के बच्चे को बचाकर रखा था जो आवश्यक खुराक पाकर खिलंदड़ा हो उठता. रात्रि के आठ –नौ बजे थे. ठाकुर जी की ओर से प्रस्ताव आया कि हम सब एकसाथ बीच गंगा में मूत्र-त्याग करेंगे. अशोक अंशुमान साहब ने ऐसा करने से मना कर दिया तो ठाकुर जी का फरमान जारी हुआ कि उसकी टोपी गंगा में फेंक दो. यह सुन अशोक अंशुमान आत्मरक्षा में भाग खड़े हुए. हमदोनों ने उनका पीछा किया. दूर अँधेरे में जाने पर वे कुछ बुदबुदाए जिसका सार था-‘अब तो बख़्श दो’. इस तरह अँधेरे ने उनके सिरस्त्राण (टोपी) की प्राण-रक्षा की.
  ये चेले नहीं, शंकर के गण हैं
93-94 की बात है। हमलोग यानि विजय ठाकुर, ब्रजकुमार पांडे, मैं और अशोक कुमार कार में संभवतः प्रभाकर प्रसाद सिंह के दयालपुर स्थित कॉलेज से लौट रहे थे। ठाकुर जी और पांडेय जी के बीच नागार्जुन और अपूर्वानंद के मसले को लेकर रास्ते भर बातचीत चलती रही थी। मुझ वाचाल को चुप रहना असह्य हो रहा था। अतः पांडेय जी को संबोधित कर मैंने कहा, 'आपलोग जो इतनी देर से इस विषय पर बहस कर रहे हैं, नागार्जुन की कोई कविता याद भी है क्या?' मेरे इस अवांछित और अप्रत्याशित प्रश्न से दोनों भीतर तक आहत हो गये लेकिन बोले कुछ नहीं। उसके बाद भी दोनों घंटों तक चुप रहे। जब हमलोग पटना में बहादुरपुर गुमटी के पास पहुंचे तो फिर मैंने कुछ कह दिया। क्या कहा इसका स्मरण नहीं है। किंतु इस बार विजय ठाकुर का संचित गुस्सा फूट पड़ा। उन्होंने मुझे भयानक डांट पिलाई। मुझे परिणाम का पहले से पता था, इसलिए चुप ही रहा। ठाकुर जी जब गुस्सा होते तो रौद्र रूप धारण कर लेते!

ठाकुर जी को अपने चेलों की और उनके चेलों को अपने 'ठाकुरजी' की बखूबी समझ थी। दूसरे शिक्षक इस 'ट्यूनिंग' को समझ पाने में असमर्थ होते। संभवतः 95 की बात है जब हमलोग कलकत्ता हिस्ट्री कांग्रेस से लौट रहे थे। इतिहास शिक्षक ओमप्रकाश बाबू भी साथ थे। विजय ठाकुर के चेलों को देख उनकी भी हसरत जगी। कहा, 'विजय, तुम अपने कुछ चेलों को मुझे दे दो।' ठाकुर जी ने सहज, सगर्व कहा, 'सर, ये चेले नहीं, शंकर के गण हैं। शंकर से अलग होते ही सब शंकर-रूप हो जाते हैं।'

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