मणिकांत ठाकुर |
अब मैं विद्युत बोर्ड कॉलोनी, शास्त्रीनगर में रहने लगा था। मित्र शैलेन्द्र ने मुझे बताया कि आत्मकथा एक ऐसा निर्भीक अखबार है जो मेरी चीजों को छाप सकता है। लेख मेरे पास थे ही इसलिए संपादक से मिलने में मैंने कोई देर न की। इस अखबार ने या कि संपादक ने अपनी ‘निर्भीकता’ साबित की और ‘साहित्य और उसका चरित्र’, ‘प्रेमचंद और उनका प्रगतिशील साहित्य’ ‘सेवासदन और नारी स्वाधीनता’ जैसे मेरे कई लेख प्रकाशित किये। इसके संपादक रामविलास झा थे। हाँ, इतना याद है कि लेख छपने पर मैंने साथ रह रहे छोटे-बड़े भाइयों के बीच टॉफियाँ बाँटी थी। आत्मकथा अखबार स्टॉलों पर कहीं दीखता न था इसलिए इसे प्राप्त करने के लिए मैं अखबार के हॉकरों की तरह सुबह-सुबह उठता और सायकिल लिए प्रेस पहुँच जाता। आत्मकथा में छपे सारे लेख मेरी फाइल में आज भी सुरक्षित हैं।
सन् 87 की बात है जब मैं जनशक्ति में लिखने-छपने की योजना बनाने लगा। वहाँ इन्द्रकांत मिश्र थे। मैं उन्हें पसंद आ गया और मुझे बेहिचक हू-ब-हू छापने लगे। यहाँ तक कि शीर्षक बदलने के ‘मौलिक अधिकार’ तक का भी वे इस्तेमाल न करते। मुझे छापते और कहते-‘तुम आग लिखते हो’। वे छापते गये क्योंकि संपादक से अधिक एक ‘विद्रोही व्यक्ति’ हो गये थे। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (पार्टी के अंदर के कुछ लोग मजाक में इसे ‘सर्कुलर पार्टी ऑफ इंडिया’ कहने लगे हैं। देखें प्रकाश लुइस की नक्सलाइट मुवमेंट पर छपी किताब ‘द नक्सलाइट मुवमेंट इन सेंट्रल बिहार,’ पृष्ठ 141, पाद टिप्पणी संख्या 32) में निष्ठापूर्वक काम करते हुए निजी जीवन में उन्होंने जो ‘असफलता’ हासिल की थी, उससे उनके तेवर बदल गये थे। एक पत्रकार होते हुए भी मुझे पत्रकार न बनने की सलाह (हिदायत कहिए) देते। कहते-‘राजू, किसी का कुत्ता बनना पत्रकार न बनना ।’ मैं जानता था, दर्द के सागर में हैं वे।
वाह भाई
ReplyDeleteआप लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, हा हा हा, अच्छा है आपकी पढी गयी पोस्टों से दोबारा गुजरना
हम्म! पढ़ लिया...
ReplyDeleteजीवन में विसंगति महसूस कर लेने पर ऐसी टिप्पणियां निकलती हैं. दुनिया से तालमेल बिठाने का क्रम सदैव चलते रहना चाहिए, लेकिन बैठना नहीं चाहिए.
ReplyDeleteto phir midea ka kya hoga....
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