राजेंद्र यादव |
पंकज बिष्ट |
अपने संस्मरण का यह टुकड़ा मैंने प्रकाशनार्थ पटना में जनशक्ति (सी. पी. आई. का साप्ताहिक मुखपत्र) के उपेन्द्रनाथ मिश्र और दिल्ली में ‘साखी’ के प्रेम भारद्वाज को दिया। दोनों ही ने अपने-अपने कारणों से इसे प्रकाशित करना मुनासिब नहीं समझा। मिश्र जी ने तो चालाकी भरी चुप्पी साध ली। किंतु भारद्वाज जी ने कहा कि आलोक धन्वा वाले प्रसंग को मैं हटा लूं। ऐसा करना मेरे लिए लगभग असंभव है, अतएव मैं पूरा पाठ यहां किस्तों में प्रस्तुत कर रहा हूं। फिलहाल इसकी पहली किस्त पढ़ें।
कउन बात अइसन अँतड़ी में...
लगभग बीस साल पहले (शायद सन् 91) मैंने पंकज बिष्ट का उपन्यास लेकिन दरवाजा पढ़ा था; बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि इस उपन्यास से मैंने पंकज बिष्ट को जाना। आज उस पूरे उपन्यास में से इतना भर याद रह गया है कि एक ‘नवोदित’ रचनाकार ‘कपिल’ का लेख पत्र-पत्रिकाओं में नहीं छपता तो मित्रों की सलाह अथवा स्वयं की बुद्धि से (यह भी याद नहीं) लिंग परिवर्तन कर अपना नाम ‘कपिला’ कर लेता है तो न सिर्फ उसका लेख ‘छपने लायक’ या ‘स्तरीय’ हो जाता है बल्कि पत्रों के माध्यम से संपादक उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने की ‘अंतिम इच्छा’ भी प्रकट करते हैं। ठीक जैसे कई दिग्गज और धाकड़ साहित्यकारों (संपादक राजेन्द्र यादव समेत) ने स्नोवा बार्नो के प्रसंग में रुचि एवं तत्परता दिखाई। (प्रसंगवश, मुझे गुजराती भाषा के कथाकार पीताम्बर पटेल की कहानी ‘आत्मा का सौंदर्य’ याद आ रही है जिसमें पूर्णिमा पत्रिका का संपादक नरेन्द्र शर्मा, कवयित्री श्रीलेखा के काव्य एवं देह-सौंदर्य के ‘प्रशंसक’ व ‘उपासक’ बन चुके हैं और ‘व्यक्तिगत रूप से मिलने’ या कि ‘उसके घर ठहरने’ की अदम्य ‘लालसा’ प्रकट करते हैं। लेकिन मिलते ही कवयित्री की ‘कुरूपता’ की वजह से उनकी सौंदर्योपासक चेतना काफूर हो जाती है)। लेकिन दरवाजा का वह प्रसंग अगर आज भी याद है तो उसका श्रेय ‘साहित्य की राजनीति’ को है न कि मेरी बौद्धिक क्षमता का तकाजा है यह। वैसे देश और समाज में, जहाँ साहित्यकार ‘न लिख पाने का संकट’ से परेशान थे और लगातार गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे थे, मैं ‘न छपने का संकट’ से जूझ रहा था। (यह समस्या कमोबेश आज भी बरकरार है। ये तो मित्र लोग हैं जो यदा कदा छापते रहते हैं। मैं आभारी हूँ कुमार मुकुल, मधुकर सिंह एवं प्रेमकुमार मणि का जो आग्रह कर मुझसे लिखवाते हैं। मैं आभारी हूं सुलभ जी का जिन्होंने कभी काट-छांट नहीं की।) कभी मैंने राजेन्द्र यादव जी को हंस के लिए, यह ध्यान में रखते हुए, कि प्रेमचंद कभी इसके संस्थापक रहे थे, ‘प्रेमचंद: सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद’ (यह लेख लगभग दस साल बाद रामसुजान अमर के सदुद्योग से सहमत मुक्तनाद के प्रेमचंद विशेषांक में छपा।) शीर्षक से एक लेख भेजा था। आश्वस्त था कि छपना ही छपना है, लेकिन जवाब आया कि ‘लेख अच्छा है, लेकिन फिलहाल उपयोग सम्भव नहीं है।’ एक धक्का-सा लगा और गुस्सा भी आया कि ‘साहब! अगर लेख अच्छा है तो न छापना कौन-सी अक्लमंदी का काम हुआ? ’ निराला याद आए। आसंपादकों के बारे में उनके अनुभव काम आये। मगही के गीतकार मथुराप्रसाद नवीन याद आए-‘कउन बात अइसन अँतड़ी में दाँत कहे में कोथा, कि कवि जी कलम हो गेलो भोथा’।
ऐसी है यह दांव पेंच की साहित्यिक दुनिया.....जारी रहिये.
ReplyDeleteवाह , अच्छा लगा , कि कवि जी कलम हो गेलो भोथा....
ReplyDeleteaaj anandolan k dour me koi aur ummeed ki bhi nahi ja sakti. do raste he, ya to apni kalam se sampadakon ki baat likhiye aur khub naam, dam kamaiye, ya fir ekla chalo, sach kaho, vo vakt bhi aayega, jab hamari baat bhi suni jayegi, lage rahiye, badhai,
ReplyDeleteYeh duniya agar mil bhi jaye to kya he
sahiya ki rajniti avsarvadi ho gayi he,
ReplyDeletedo raste he, usi jamat me shamil ho jaiye aur khoob naam daam kamaiye, ya fir ekla chalo ki tarj par behtar duniya ki kosis me lage rahiye,
vese bhi
Yeh duniya agar mil bhi jaaye to kya he.
RAJU BHAI BISTRIT COMMENT PURA PADH LENE KE BAD.ABHI AGLE POST KE INAJAR MAI _____ .
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