मदन कश्यप |
Tuesday, August 31, 2010
आलोचक का भूत
Monday, August 30, 2010
और वह सड़क समझौता बन गयी
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अनिल विभाकर |
उन्हीं दिनों नवल जी की पुस्तक ‘कविता की मुक्ति’ हाथ लगी। उससे पहले ‘हिन्दी आलोचना का विकास’ पढ़ चुका था। ‘कविता की मुक्ति’ पढ़ते-पढ़ते धूमिल पर लिखने की मेरी इच्छा हुई। मैंने एक लेख लिखा भी। हाल ही में परिचित बने युवा आलोचक भृगुनन्दन त्रिपाठी ने उसे माँगकर देखा। कहना होगा कि भृगुनन्दन त्रिपाठी नये लड़कों को तरजीह देते थे अथवा यों कहें कि उनके लिए वे सुलभ बने रहने की भरसक कोशिश करते थे। पटने की साहित्यिक संस्कृति में तब नवल जी का ‘विरोधी’ होना भी ध्यानाकर्षण का कारण होता था। खैर, त्रिपाठी जी ने मेरा लेख पढ़कर कहा, ‘राजू जी, आपका लेख पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है मानो नेमिचन्द्र जैन को पढ़ रहा हूँ।’ मेरे पल्ले बात कुछ पड़ी नहीं क्योंकि एक तो नेमिचन्द्र को मैंने पढ़ा नहीं था और दूसरे मेरे दिमाग में उनकी छवि नाटक की दुनिया के एक आदमी की बन चुकी थी। फिर भी मैं अपनी तुलना नेमिचन्द्र जैन से होते देखकर फूले न समा रहा था। त्रिपाठी जी एवं कर्मेन्दु शिशिर (तब दोनों में काफी आत्मीयता थी। रहते भी आस-पास ही थे।) दोनों ही ने मेरे इस लेख को ‘साक्षात्कार’ में छपवाने की बात कही। इसी बीच ‘साक्षात्कार’ के संपादक हरि भटनागर किसी सिलसिले में पटना आये और उनका कहानी-पाठ भी आयोजित हुआ। शायद भीड़-भाड़ या किसी और सम्भव कारण से मेरा यह लेख भटनागर जी को देना सम्भव न हो सका। कई दिनों के बाद जब मैंने फिर चर्चा की तो त्रिपाठी जी ने कहा, ‘राजू जी, दरअसल उस लेख में इतिहास प्रधान हो गया है और साहित्य गवाक्ष होकर रह गया है ।’ मुझ जैसे इतिहास के विद्यार्थी पर साहित्य का ‘गवाक्ष’ भारी पड़ गया और उसके बाद से मैं अपने ही राजमार्ग पर निर्भय हो चलने लगा।
धूमिल वाले लेख को लेकर मैं दैनिक हिन्दुस्तान के दफ्तर पहुंचा । हिन्दुस्तान में साहित्य का एक पेज निकलता था जिसका संपादन अनिल विभाकर करते थे। वे मेरा लेख देखकर थोड़ा मुस्कराए और बोले ‘इन लोगों को जहां जाना था वहां पहुंच चुके। अब लिखने से क्या होगा।’ मुझे यह बात समझ में न आई। कई बार उन्हें अपने लेख की याद दिलाई लकिन अपने इरादे से हिल न रहे थे। इनकी कही बात का गूढ़ार्थ अब जाकर कुछ-कुछ खुलने लगा था। मुझे एक तरकीब सूझी। उसका इस्तेमाल करने में कोई दोश न दिखा। दरअसल मेरे पास रेडियो से समीक्षा हेतु प्रदत्त पुस्तक ‘शहर से गुजरते हुए’ पड़ी थी। उस संग्रह में उनकी भी एक कविता थी। एक दिन मैंने चर्चा के दौरान कहा कि बहरहाल ‘शहर से गुजरते हुए’ की समीक्षा रेडियो के लिए लिख रहा हूं। उसमें आपकी भी एक कविता है। बडी ही निर्दोष कविता है, अच्छी है। फिर क्या था। उनका दिल कविता की उष्मा से हिमनद की तरह पिघलने लगा। अपने खास अंदाज में बिहंसते हुए बोले, ‘आपका लेख ब्रोमाइड करके काफी दिनों से रखा हुआ है। इस हफ्ते निकल जायेगा।’ वाकई अब लेख प्रकाशित था। शीर्षक था ‘और वह सड़क समझौता बन गयी’ (प्रकाशन तिथिः 8 नवंबर’ 93)।
धूमिल वाले लेख को लेकर मैं दैनिक हिन्दुस्तान के दफ्तर पहुंचा । हिन्दुस्तान में साहित्य का एक पेज निकलता था जिसका संपादन अनिल विभाकर करते थे। वे मेरा लेख देखकर थोड़ा मुस्कराए और बोले ‘इन लोगों को जहां जाना था वहां पहुंच चुके। अब लिखने से क्या होगा।’ मुझे यह बात समझ में न आई। कई बार उन्हें अपने लेख की याद दिलाई लकिन अपने इरादे से हिल न रहे थे। इनकी कही बात का गूढ़ार्थ अब जाकर कुछ-कुछ खुलने लगा था। मुझे एक तरकीब सूझी। उसका इस्तेमाल करने में कोई दोश न दिखा। दरअसल मेरे पास रेडियो से समीक्षा हेतु प्रदत्त पुस्तक ‘शहर से गुजरते हुए’ पड़ी थी। उस संग्रह में उनकी भी एक कविता थी। एक दिन मैंने चर्चा के दौरान कहा कि बहरहाल ‘शहर से गुजरते हुए’ की समीक्षा रेडियो के लिए लिख रहा हूं। उसमें आपकी भी एक कविता है। बडी ही निर्दोष कविता है, अच्छी है। फिर क्या था। उनका दिल कविता की उष्मा से हिमनद की तरह पिघलने लगा। अपने खास अंदाज में बिहंसते हुए बोले, ‘आपका लेख ब्रोमाइड करके काफी दिनों से रखा हुआ है। इस हफ्ते निकल जायेगा।’ वाकई अब लेख प्रकाशित था। शीर्षक था ‘और वह सड़क समझौता बन गयी’ (प्रकाशन तिथिः 8 नवंबर’ 93)।
Saturday, August 28, 2010
अखबार में यह सब चलता है
जनशक्ति के बाद हिन्दुस्तान का दौर आरंभ होता है। दरअसल उन दिनों मैं सुलभ जी के नियमित संपर्क में बना रहता था। एक दिन उन्होंने हिन्दुस्तान के नागेन्द्र जी से मिलाया। वे स्वभाव से उदार और मिलनसार थे। नागेन्द्र मुझसे सांस्कृतिक घटनाओं की रिपोर्टिंग कराने लगे। मुझे भी अच्छा लगने लगा। गोष्ठियों में तो जाया ही करता था अब उसकी रिपोर्टिंग कर देने से कुछ पैसे भी मिलने लगे थे। एक छात्र को इससे ज्यादा भला और क्या चाहिए था ! मैं काफी खुश था। इन्हीं दिनों प्रगतिशील लेखक संघ, पटना ने एक गोष्ठी आयोजित की जिसका विषय था ‘मार्क्सवादी इतिहास लेखन के अतिरेक।’ इसके मुख्य वक्ता रामशरण शर्मा थे। अपूर्वानंद के आग्रह पर मेरे बड़े भाई अखिलेश कुमार ने भी अपने विचार रखे। और फिर मुझे भी कुछ कुछ बोलने का मौका मिला था। कुल मिलाकर इस गोष्ठी में तीन ही वक्ता थे। मैंने जो रिपोर्टिंग की थी या जो छपी उसमें उक्त तीनों नाम थे। इस रपट से नवल जी खासे नाराज हुए थे। उन्होंने मुझ पर भाई-भतीजावाद करने का आरोप भी लगाया था। सफाई में मैंने नवल जी को इतना ही कहा था कि ‘मैंने तथ्य की रिपोर्टिंग की है। तीन वक्ता थे और तीनों के नाम दर्ज हैं, इसलिए कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है।’ वे मुझसे असंतुष्ट थे ही इसलिए हिन्दुस्तान के संपादक को मेरी भर्त्सना (लगभग गाली) करते हुए पत्र लिख डाला। उक्त पत्र को दिखाते हुए नागेन्द्र ने कहा था -‘देखो, बिहार में कैसे-कैसे लोग (हालाँकि उन्होंने अपशब्द का प्रयोग किया था) होते हैं।’ मैं बेहद शर्मिंदा था।
सम्भवतः इसी साल अर्थात् सन् 91 में आकाशवाणी, पटना की तरफ से एक काव्य-संध्या आयोजित की गई थी जिसमें केदारनाथ सिंह समेत देश के कोने-कोने से हिन्दी के कवि पधारे थे। चूँकि साहित्य, और विशेषकर कविता से मेरा खास अनुराग (कभी-कभी डा. विजय कुमार ठाकुर मेरे साहित्य-प्रेम को देखते हुए हिन्दी, एम. ए. मे दाखिला ले लेने तक की बात तक कह डालते थे। वे अक्सर कहते कि तुम बेकार इतिहास में आ गये हो, तुम्हें तो हिन्दी विभाग में होना चाहिए था।) था, इसलिए इसकी रिपोर्टिंग के लिए मैंने विशेष तैयारी कर रखी थी। साथ ही यह भी अनुमान लगा रहा था कि यह ‘पीस’ कई कॉलमों में छपेगा और इसके अच्छे पैसे बनेंगे। मैंने अपनी तरफ से कोई कमी न छोड़ी थी। किन्तु जब छपने की बारी आयी तो नागेन्द्र जी ने बताया कि सम्पादक का उन पर दबाव है कि उक्त काव्य-गोष्ठी की रिपोर्टिंग वे खुद करें। इसलिए सम्भवतः नौकरी के दबाव में रिपोर्टिंग उन्हें अपने नाम करनी पड़ी। हालाँकि उन्होंने कह रखा था कि ‘राजू , बुरा मत मानना, अखबार में यह सब चलता है।’ अलबत्ता, मुझे मेरे नाम से न छपने के साथ-साथ पैसे न मिलने का भी दुःख था। यह सच है कि हिन्दुस्तान में रिपोर्टिंग मैंने पैसे को ध्यान में रखकर ही शुरू की थी। पत्रकारिता के ‘ग्लैमर’ को लेकर मैंने जो कुछ सोचना शुरू किया था उसको एक झटका लगा। इस घटना के बाद मुझे लगने लगा कि लिखने-पढ़नेवाले लोगों के लिए कम से कम अखबार की नौकरी से परहेज करना चाहिए।
सम्भवतः इसी साल अर्थात् सन् 91 में आकाशवाणी, पटना की तरफ से एक काव्य-संध्या आयोजित की गई थी जिसमें केदारनाथ सिंह समेत देश के कोने-कोने से हिन्दी के कवि पधारे थे। चूँकि साहित्य, और विशेषकर कविता से मेरा खास अनुराग (कभी-कभी डा. विजय कुमार ठाकुर मेरे साहित्य-प्रेम को देखते हुए हिन्दी, एम. ए. मे दाखिला ले लेने तक की बात तक कह डालते थे। वे अक्सर कहते कि तुम बेकार इतिहास में आ गये हो, तुम्हें तो हिन्दी विभाग में होना चाहिए था।) था, इसलिए इसकी रिपोर्टिंग के लिए मैंने विशेष तैयारी कर रखी थी। साथ ही यह भी अनुमान लगा रहा था कि यह ‘पीस’ कई कॉलमों में छपेगा और इसके अच्छे पैसे बनेंगे। मैंने अपनी तरफ से कोई कमी न छोड़ी थी। किन्तु जब छपने की बारी आयी तो नागेन्द्र जी ने बताया कि सम्पादक का उन पर दबाव है कि उक्त काव्य-गोष्ठी की रिपोर्टिंग वे खुद करें। इसलिए सम्भवतः नौकरी के दबाव में रिपोर्टिंग उन्हें अपने नाम करनी पड़ी। हालाँकि उन्होंने कह रखा था कि ‘राजू , बुरा मत मानना, अखबार में यह सब चलता है।’ अलबत्ता, मुझे मेरे नाम से न छपने के साथ-साथ पैसे न मिलने का भी दुःख था। यह सच है कि हिन्दुस्तान में रिपोर्टिंग मैंने पैसे को ध्यान में रखकर ही शुरू की थी। पत्रकारिता के ‘ग्लैमर’ को लेकर मैंने जो कुछ सोचना शुरू किया था उसको एक झटका लगा। इस घटना के बाद मुझे लगने लगा कि लिखने-पढ़नेवाले लोगों के लिए कम से कम अखबार की नौकरी से परहेज करना चाहिए।
Tuesday, August 24, 2010
और नवल जी ने लिखना बंद कर दिया
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रामशरण शर्मा |
Friday, August 20, 2010
वातायन पर दस्तक
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नंदकिशोर नवल |
Monday, August 16, 2010
कुत्ता बनना, पत्रकार न बनना
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मणिकांत ठाकुर |
अब मैं विद्युत बोर्ड कॉलोनी, शास्त्रीनगर में रहने लगा था। मित्र शैलेन्द्र ने मुझे बताया कि आत्मकथा एक ऐसा निर्भीक अखबार है जो मेरी चीजों को छाप सकता है। लेख मेरे पास थे ही इसलिए संपादक से मिलने में मैंने कोई देर न की। इस अखबार ने या कि संपादक ने अपनी ‘निर्भीकता’ साबित की और ‘साहित्य और उसका चरित्र’, ‘प्रेमचंद और उनका प्रगतिशील साहित्य’ ‘सेवासदन और नारी स्वाधीनता’ जैसे मेरे कई लेख प्रकाशित किये। इसके संपादक रामविलास झा थे। हाँ, इतना याद है कि लेख छपने पर मैंने साथ रह रहे छोटे-बड़े भाइयों के बीच टॉफियाँ बाँटी थी। आत्मकथा अखबार स्टॉलों पर कहीं दीखता न था इसलिए इसे प्राप्त करने के लिए मैं अखबार के हॉकरों की तरह सुबह-सुबह उठता और सायकिल लिए प्रेस पहुँच जाता। आत्मकथा में छपे सारे लेख मेरी फाइल में आज भी सुरक्षित हैं।
सन् 87 की बात है जब मैं जनशक्ति में लिखने-छपने की योजना बनाने लगा। वहाँ इन्द्रकांत मिश्र थे। मैं उन्हें पसंद आ गया और मुझे बेहिचक हू-ब-हू छापने लगे। यहाँ तक कि शीर्षक बदलने के ‘मौलिक अधिकार’ तक का भी वे इस्तेमाल न करते। मुझे छापते और कहते-‘तुम आग लिखते हो’। वे छापते गये क्योंकि संपादक से अधिक एक ‘विद्रोही व्यक्ति’ हो गये थे। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (पार्टी के अंदर के कुछ लोग मजाक में इसे ‘सर्कुलर पार्टी ऑफ इंडिया’ कहने लगे हैं। देखें प्रकाश लुइस की नक्सलाइट मुवमेंट पर छपी किताब ‘द नक्सलाइट मुवमेंट इन सेंट्रल बिहार,’ पृष्ठ 141, पाद टिप्पणी संख्या 32) में निष्ठापूर्वक काम करते हुए निजी जीवन में उन्होंने जो ‘असफलता’ हासिल की थी, उससे उनके तेवर बदल गये थे। एक पत्रकार होते हुए भी मुझे पत्रकार न बनने की सलाह (हिदायत कहिए) देते। कहते-‘राजू, किसी का कुत्ता बनना पत्रकार न बनना ।’ मैं जानता था, दर्द के सागर में हैं वे।
Tuesday, August 10, 2010
शब्दों की दुनिया में
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राजेंद्र यादव |
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पंकज बिष्ट |
अपने संस्मरण का यह टुकड़ा मैंने प्रकाशनार्थ पटना में जनशक्ति (सी. पी. आई. का साप्ताहिक मुखपत्र) के उपेन्द्रनाथ मिश्र और दिल्ली में ‘साखी’ के प्रेम भारद्वाज को दिया। दोनों ही ने अपने-अपने कारणों से इसे प्रकाशित करना मुनासिब नहीं समझा। मिश्र जी ने तो चालाकी भरी चुप्पी साध ली। किंतु भारद्वाज जी ने कहा कि आलोक धन्वा वाले प्रसंग को मैं हटा लूं। ऐसा करना मेरे लिए लगभग असंभव है, अतएव मैं पूरा पाठ यहां किस्तों में प्रस्तुत कर रहा हूं। फिलहाल इसकी पहली किस्त पढ़ें।
कउन बात अइसन अँतड़ी में...
लगभग बीस साल पहले (शायद सन् 91) मैंने पंकज बिष्ट का उपन्यास लेकिन दरवाजा पढ़ा था; बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि इस उपन्यास से मैंने पंकज बिष्ट को जाना। आज उस पूरे उपन्यास में से इतना भर याद रह गया है कि एक ‘नवोदित’ रचनाकार ‘कपिल’ का लेख पत्र-पत्रिकाओं में नहीं छपता तो मित्रों की सलाह अथवा स्वयं की बुद्धि से (यह भी याद नहीं) लिंग परिवर्तन कर अपना नाम ‘कपिला’ कर लेता है तो न सिर्फ उसका लेख ‘छपने लायक’ या ‘स्तरीय’ हो जाता है बल्कि पत्रों के माध्यम से संपादक उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने की ‘अंतिम इच्छा’ भी प्रकट करते हैं। ठीक जैसे कई दिग्गज और धाकड़ साहित्यकारों (संपादक राजेन्द्र यादव समेत) ने स्नोवा बार्नो के प्रसंग में रुचि एवं तत्परता दिखाई। (प्रसंगवश, मुझे गुजराती भाषा के कथाकार पीताम्बर पटेल की कहानी ‘आत्मा का सौंदर्य’ याद आ रही है जिसमें पूर्णिमा पत्रिका का संपादक नरेन्द्र शर्मा, कवयित्री श्रीलेखा के काव्य एवं देह-सौंदर्य के ‘प्रशंसक’ व ‘उपासक’ बन चुके हैं और ‘व्यक्तिगत रूप से मिलने’ या कि ‘उसके घर ठहरने’ की अदम्य ‘लालसा’ प्रकट करते हैं। लेकिन मिलते ही कवयित्री की ‘कुरूपता’ की वजह से उनकी सौंदर्योपासक चेतना काफूर हो जाती है)। लेकिन दरवाजा का वह प्रसंग अगर आज भी याद है तो उसका श्रेय ‘साहित्य की राजनीति’ को है न कि मेरी बौद्धिक क्षमता का तकाजा है यह। वैसे देश और समाज में, जहाँ साहित्यकार ‘न लिख पाने का संकट’ से परेशान थे और लगातार गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे थे, मैं ‘न छपने का संकट’ से जूझ रहा था। (यह समस्या कमोबेश आज भी बरकरार है। ये तो मित्र लोग हैं जो यदा कदा छापते रहते हैं। मैं आभारी हूँ कुमार मुकुल, मधुकर सिंह एवं प्रेमकुमार मणि का जो आग्रह कर मुझसे लिखवाते हैं। मैं आभारी हूं सुलभ जी का जिन्होंने कभी काट-छांट नहीं की।) कभी मैंने राजेन्द्र यादव जी को हंस के लिए, यह ध्यान में रखते हुए, कि प्रेमचंद कभी इसके संस्थापक रहे थे, ‘प्रेमचंद: सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद’ (यह लेख लगभग दस साल बाद रामसुजान अमर के सदुद्योग से सहमत मुक्तनाद के प्रेमचंद विशेषांक में छपा।) शीर्षक से एक लेख भेजा था। आश्वस्त था कि छपना ही छपना है, लेकिन जवाब आया कि ‘लेख अच्छा है, लेकिन फिलहाल उपयोग सम्भव नहीं है।’ एक धक्का-सा लगा और गुस्सा भी आया कि ‘साहब! अगर लेख अच्छा है तो न छापना कौन-सी अक्लमंदी का काम हुआ? ’ निराला याद आए। आसंपादकों के बारे में उनके अनुभव काम आये। मगही के गीतकार मथुराप्रसाद नवीन याद आए-‘कउन बात अइसन अँतड़ी में दाँत कहे में कोथा, कि कवि जी कलम हो गेलो भोथा’।
Sunday, August 8, 2010
‘म’ से मनोज यानी मार्क्सवाद!
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मनोज कुमार झा |
मेरे एक मित्र थे-राजेन्द्र जी। वे वामपंथी झुकाव वाले व्यक्ति थे। सरल एवं सहज। उनसे मेरी बातचीत होती और मैं मार्क्सवाद की वकालत करता तो कहते-‘आपकी ही तरह बात करनेवाले एक मनोज कुमार झा हैं जिनसे आपको मिलना चाहिए। वे पढ़ने-लिखनेवाले आदमी हैं।’ मैंने मुकुल जी से भी इस बात की चर्चा की। वैसे मुकुल जी को और भी किसी स्रोत से पता चला। चूंकि मनोज जी हमलोगों के पड़ोस में ही रहते थे, इसलिए एक दिन उनके आवास पर खोजने पहुंच गये। उनसे मुलाकात तो नहीं हो सकी लेकिन ठिकाने का अंदाजा हो गया और अब कभी भी मिला जा सकता था। लेकिन मुकुल जी को भला चैन कहां! मेरी अनुपस्थिति में ही एक-आध बैठक जमा चुके थे।
मनोज जी से मेरा परिचय बढ़ा और हमलोग परस्पर एक-दूसरे के यहां आने-जाने लगे। मेरे घर के बच्चे उन्हें ‘मार्क्स बाबा’ कहते। मैं भी अपने घर में उन्हें इसी नाम से पुकारता। वे आते तो तरह-तरह की बातें होतीं। उनकी नई-नई शादी हुई थी। उसकी सी. डी. दिखाई। प्रेम-विवाह था शायद। शायद इसलिए कि जिस तरीके से वे अपनी शादी की चर्चा करते उसमें ’प्रेम’ से ज्यादा ‘विचार’ पर जोर होता। अतएव मैं इसे ‘वैचारिक विवाह’ कहता। शादी से पहले वे दोनों मार्क्सवाद जैसे अनेक गंभीर विषयों पर अनेक बहसें निबटा चुके थे। हालांकि जब मैं उनकी पत्नी से मिला तो किसी ‘विचार-परिपक्व’ आदमी की गंध नहीं मिली। वैसे वे इस तथ्यहीन बात का प्रचार अवश्य करतीं कि ‘मैं उन्हें अपनी कविताएं सुनाया करता हूं।’ इस ‘प्रचार’ की जानकारी मुझे मनोज जी के एक आत्मीय मित्र ने दी।
मनोज जी खूब पढ़ते और खूब बोलते। इन बातों में सर्वहारा वर्ग की चिंता मुख्य रूप से शामिल रहती। बातचीत से लगा कि वे एक स्पष्ट समझवाले इंसान हैं लेकिन ‘आत्मरति’ के शिकार। और सामनेवाले व्यक्ति का मूल्यांकन करने में मार्क्सवादी कट्टरता से काम लेते हैं। कालक्रम से मैंने पाया कि उनके कुछ मित्र उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखते। राम प्रवेश जी तो उनका नाम तक नहीं सुनना चाहते। वैसे राम प्रवेश जी को मैंने आज तक किसी की तारीफ करते नहीं सुना। हालांकि कई दूसरे लोगों के मुख से भी सुना कि ‘मनोज जी अगर पूरब जाने की बात कहें तो आप पश्चिम के रास्ते में उन्हें खोजें और अगर उत्तर कहें तो दक्षिण की दिशा में।’
दशहरे का अवसर था। मनोज जी मेरे घर पधारे थे। मेरा साला मोती भी आ धमका। बातचीत के क्रम में उसने मनोज जी से पूछा-‘मेला देखने नहीं जाइएगा क्या ?’ मनोज जी का उत्तर छोटा और सरल नहीं था। वे बाजारवाद के विरुद्ध लगभग आध घंटे तक बोलते रहे। निष्कर्ष था कि ‘अभी बाजार में एक से एक बहेलिया छूट्टा घूम रहा है। सबकी निगाह आपकी जेब पर है। बाजार में प्रवेश करते ही आप लूट लिए जाएंगे।’ मोती को तब इन बातों से बहुत मतलब नहीं था। अतएव मनोज की इन बातों में उसे दम नजर नहीं आया। घूमने निकल गया। अलबत्त मैं कहीं नहीं गया। लेकिन इसे मनोज जी का प्रभाव नहीं कहा जा सकता। यह शुरू से ही मेरी आदत का एक हिस्सा है। मोती लौटा तो काफी खुश-खुश लग रहा था। उसके चेहरे पर खुशी खिलते देख मेरे अंदर जिज्ञासा पैदा होने लगी। वैसे वह आते ही बोला, ‘आज तो गजब हो गया।’ बताया कि ‘जैसे ही सड़क पर निकला कि ‘‘बहेलिए’’ से भेंट हो गई।’ ‘कौन था ?’ ‘किस बहेलिए की बात कर रहे हो ?’ ‘वही, वही। मार्क्स बाबा।’ मैं किंचित् मुस्कुराया। ‘मार्क्स बाबा’ अब जब कभी मुझसे मिलने आते, मोती झट कह उठता-‘बहेलिया आया है।’
मनोज जी की आय बढ़ चली थी। इसका असर उनकी बातचीत पर पकट होने लगा। वे रह-रह सायकिल की अनुपयोगिता साबित करते। मोटरसायकिल की अनिवार्यता पर जगह-जगह ‘विमर्श’ भी करने लगे। मुझसे कहते, ‘बाइक नहीं है इसलिए पत्नी को थियेटर आदि जगहों पर ले जाना संभव नहीं होता। रिक्शा आदि में बहुत खर्च हो जाता है।’ मैं हां, हूं करता और चुप लगा जाता। मुझे लगता, यह इनका निजी मामला है, भला मुझे क्यों सुना रहे हैं? कुछ ही दिनों बाद उन्होंने बाइक खरीदी। कभी-कभी आवश्यकतानुसार मुझे भी बिठाते। हां, इससे उनकी पत्नी की सांस्कृतिक गतिविधियों में सहभागिता बढते विशेष नहीं पाया।
किसी दिन मनोज जी के ससुर उनके घर आए। वे सी.पी.आई.के पुराने काडर हैं। साथ में संभवतः गांव के मुखिया जी भी थे। मनोज जी के घर में बिछावन के रूप में सुजनी (पुराने कपड़ों को सिलकर तैयार किया गया बिछावन) बिछी थी। उनके ससुर को, चूंकि एक आदमी साथ थे, अच्छा नहीं लगा। इसलिए अपनी बेटी से उन्होंने बिछावन को बदल देने का आग्रह किया। मार्क्सवादी बेटी को यह बात बुरी लग गई और उन्होंने टके-सा जवाब दे दिया ‘यहां रहना है तो इसी बिछावन के साथ रहना होगा।’ मनोज जी ने मुझे यह घटना सप्रसंग सुनायी। बयान करते हुए जता रहे थे कि ‘देखिए उनकी पत्नी ने अपने पिता के साथ भी एक कम्युनिस्ट की तरह सलूक किया। कि वाह! इसे कहते हैं मार्क्सवादी स्टैंड! मुझे अंदर-अंदर काफी देर तक हंसी आती रही। कुछ दिन पहले ही उन्होंने सोलह हजार रुपये में बाजार की अत्याधुनिक रंगीन टी.वी. खरीदी थी।
तब मैं पटने के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाया करता था। स्कूल के मालिक से सीधी टक्कर हो गई। फलतः मुझे विद्यालय छोड़ देने के लिए कहा गया। मैंने इसका विरोध किया। मैं कहता रहा कि विद्यालय एक सार्वजनिक संस्था है, अतएव सिर्फ मालिक के मना कर देने से मैं विद्यालय छोड़ने को राजी न था। मेरी इस लड़ाई में कुमार मुकुल भी साथ थे। मनोज जी ने कहा, ‘आप विद्यालय छोड़ दीजिए और निजी विद्यालय के शिक्षकों का एक संगठन तैयार कीजिए। आपको संगठन का काम करना है। खाने-पीने की आपकी समस्या शिक्षक हल करेंगे।’ मेरी इस लड़ाई में एक-दो को छोड़, शिक्षकों की भूमिका तनिक उत्साहित करनेवाली नहीं थी। मेरी इस हरकत से विद्यालय प्रबंधन को मुझे फिर से रखना पड़ा। मनोज जी लड़ाई के मेरे तरीके से खुश नहीं थे। वे कहते, ‘यह तो हीरोइज्म है, मार्क्सवादी तरीका नहीं है। संयोग कहिए कि कुछ ही दिनों बाद मनोज जी को भी इसी तरह की घटना का शिकार होना पड़ा। मुझसे कहा भी नहीं। अगल-बगल से पता चला तो मैंने उनसे कहा कि ‘हमलोग दस-बीस की संख्या में निदेशक के पास चलें। मनोज जी ने मेरी बातों में कोई रुचि नहीं दिखायी। मेरे सामने इस प्रसंग से कन्नी काटते। उनके निकटतम मित्रों ने बताया कि उनकी मानसिक हालत कुछ ठीक नहीं है। उन्हीं विश्वस्त मित्रों के सदुद्योग से वे किसी मनोचिकित्सक तक पहुंच सके। लंबे समय तक दवा खानी पड़ी। वे अवसाद के शिकार हो चले थे। सहसा विश्वास नहीं होता कि मनोज जी का मार्क्सवादी दिमाग अवसादग्रस्त भी हो सकता है।
Friday, August 6, 2010
क्रांति ड्रामा करने गयी है

1984 में मैट्रिक की परीक्षा पास कर मैं पटना के सैदपुर छात्रावास में अपने बड़े भाई (अखिलेश कुमार) के साथ रहने लगा। कथाकार हंसकुमार पांडेय भी तब साथ रहा करते थे। पांडेय जी कहानियों में ही नहीं, सामान्य बातचीत में भी कथा बुनते नजर आते। वे दोनों जब आपस की बातचीत शुरू कर देते तो पटने की साहित्यिक मंडली के नायकों-खलनायकों की जानकारी सहज ही सुलभ होने लगती। कुछ चरित्र तो ऐसे थे जो बातचीत के क्रम में बार-बार आते। नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, आलोक धन्वा, तरुण कुमार एवं अपूर्वानंद का नाम मैंने उन्हीं दिनों जान-सुन रखा था। आलोक धन्वा का नाम वे खास अंदाज और संदर्भ में लेते।
पांडेय जी ने एक दिन किसी स्टडी सर्किल की एक कथा सुनायी। आलोक धन्वा अपनी या किसी और की कविता का पाठ कर रहे थे। कविता शायद कुछ इस तरह शुरू होती थी-‘कुल्हाड़ी फेंक के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी फेंक के मारो।’ तभी आलोचकीय बुद्धि से लैस एक वकील उठ खड़ा हुआ और कहने लगा-‘कॉमरेड, आपने तो भारी भूल कर दी। कुल्हाड़ी थाम के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी थाम के मारो ।’ आलोचना का सार यह था कि कुल्हाडी़ फेंककर मारने पर हथियार वर्ग-शत्रु के हाथ लग सकता है जो क्रांति के साथ गद्दारी है। मेरी छोटी बुद्धि तब इसे समझ न पायी थी, लेकिन आलोक धन्वा मेरे लिए एक अद्भुत जिज्ञासा की चीज बन चुके थे। उनकी कविताओं से पहली बार मेरा सीधा परिचय हंस के माध्यम से हुआ। उनकी कविताएं मुझे दूर तक आकर्षित करतीं। मिलने की चाह तेज होती गई और अंततः भिखना पहाड़ी स्थित उनके आवास पर पहुंच ही गया। पहली बातचीत कैसे शुरू हुई थी, मुझे आज कुछ भी याद नहीं है-सिर्फ इतना कि लगभग घंटा भर वे बोलते रहे थे। बातचीत के क्रम में उन्होंने घर की दीवार पर सटे पोस्टर ‘हैंड्स ऑफ क्यूबा’ की भी चर्चा की। आलोक की जब भी याद आती है, ‘हैंड्स ऑफ क्यूबा’ भी मूर्त हो उठता है।
धीरे-धीरे आलोक धन्वा मेरी जरूरत बनने लगे। महीने-दो-महीने पर उनसे अवश्य मिल लेता। उनसे जब भी मिला, बोलता हुआ ही पाया। हालांकि बीच-बीच में कह डालते कि डॉक्टर ने थोड़ा कम बोलने को कहा है, लेकिन इस हिदायत पर अमल मुझ जैसे श्रोता को ही करना पड़ता। वे एक अति संवेदनशील वक्ता थे। श्रोता के मनोभावों का खास ख्याल रखते थे। दूसरों की मौजूदगी में प्रायः ही कहते, ‘राजू समाजशास्त्र के विद्वान हैं।’ मेरे लिए यह शायद सांत्वना पुरस्कार की तरह होता। मेरा भी कद कुछ-कुछ बड़ा हो जाता। अचानक विद्यार्थी से विद्वान हो जाता। इससे ज्यादा किसी को भला क्या चाहिए ! बातचीत का विषय काफी विस्तृत और आत्मीय होता। देश-दुनिया की बात करते-करते वे अपने बारे में, स्वास्थ्य के बारे में, और यहां तक कि अपने कमरे के बारे में भी घंटों बोल जाते। यह भी कि उस कमरे को अब छोड़ा नहीं जा सकता, चाहे कितना भी महंगा क्यों न हो। उस फ्लैट का ऐतिहासिक महत्त्व जो हो चला था। फणीश्वरनाथ रेणु और भगवत रावत सरीखे लोगों की यादें जुड़ी थीं उससे। निजी जिंदगी से जुड़ी कहानियों का अक्सर वह एक लोक रचते और बताते कि मिर्जापुर में कभी उनकी भी एक छोटी-सी जमींदारी हुआ करती थी। इन कहानियों में उनके पिताजी सदैव दोनाली बंदूक रखते, लेकिन कभी किसी की हत्या नहीं की। ‘मिर्जापुर की जमींदारी’ की चर्चा उनके वकील भाई भी करते।
जब मैं स्वरूप विद्या निकेतन में हिंदी शिक्षक के रूप में काम कर रहा था तभी एक दिन मिर्जापुर से एक सज्जन वहां पधारे। पूछने पर पता चला कि वे पेशे से वकील हैं और यह भी कि उनकी एक जमींदारी भी है। अनायास ही मैंने पूछ डाला कि कहीं आप मेरे शहर के चर्चित कवि आलोक धन्वा के भाई तो नहीं ? लगभग चौंकते हुए उन्होंने पूछा-‘क्यों ?’ मैंने कहा, ‘मिर्जापुर में एक छोटी-सी जमींदारी उनकी भी हुआ करती थी।’ वे मुझे आश्चर्य और विस्मय से घूरने लगे।
आलोक धन्वा एक ‘स्वास्थ्य-सजग-जनवादी’ कवि थे। घर से बाहर भी वे हमेशा अपना ही पानी पीते। मैंने पानी की इनकी बोतल तब देखी थी, जब पटने की ‘स्वास्थ्य-संस्कृति’ के लिए यह लगभग ‘हास्य-विनोद’ की चीज थी। अब तो अधिकतर लोग उनके अनुयायी हो चले हैं। जनवाद बढ़ा-फैला-सा लगता है। पीने के पानी के बारे में वे मुझसे भी पूछते। जब मैं कहता कि ‘चापाकल का पानी पीता हूं’ तो वे अचरजभरी निगाहों से देखते और समान प्रश्न को दुहराते, ‘आप हैंडपंप चला लेते हैं ?’ मैं ‘हां’ में जवाब देकर मन ही मन मजदूरिनों पर लिखी उनकी कविताओं पर पुनर्विचार की मुद्रा में आ जाता। बातचीत में कभी-कभी वे अधिक समय लगा देते तो बीच में बाथरूम (यूरिनल) की दरकार हो आती। पूछने पर रेडीमेड जवाब देते-‘इस्तेमाल के लायक नहीं है।’ यह सच भी हो सकता था लेकिन मुझे लगता है कि वे ‘सफाई-पसंद’ आदमी हैं, अतएव ‘परहेज’ रखते हैं। वे जब भी किचेन जाते, एप्रन जरूर लटका लेते। वे अपने घर में उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी उपन्यास के नायकों की तरह रहते।
सन् 1991 में मैं एम. ए. (इतिहास) में दाखिला ले चुका था। विजय कुमार ठाकुर के संरक्षण में अशोक जी ने इतिहास विचार मंच की स्थापना की, जिसका मुझे संयोजक बनाया गया। इस संस्था का प्रमुख काम अकादमिक महत्त्व के विषयों पर लेक्चर आयोजित करना था। इसी सिलसिले में हमलोग एक दिन आलोक धन्वा से जा मिले और ‘प्राचीन भारत में जाति-व्यवस्था’ विषय पर अपनी बात रखने के लिए उनसे आग्रह किया। लगभग आध घंटे तक वे तफसील में बताते रहे कि किन-किन महत्त्वपूर्ण गोष्ठियों की उन्होंने अध्यक्षता की है। इस बात को भी रेखांकित किया कि कैसे आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा ने उनसे एक बार किसी गोष्ठी की अध्यक्षता करवायी थी, जब वे महज इंटर के छात्र थे। लगभग आध घंटे की अपनी विरुद्गाथा से निवृत हो उन्होंने बदली हुई भंगिमा में कहना शुरू किया ‘राजू भाई, अगर कोई जाति-पांति की बात करता हो तो वैसे लोगों पर थूक दीजिए।’ मैंने हल्का प्रतिवाद करने की कोशिश की-‘आलोक जी, मैं जाति की राजनीति करने की कोई मंशा नहीं रखता। मेरा उद्येश्य तो समस्या का समाजशास्त्रीय अध्ययन भर है।’ पर वे कहां माननेवाले थे। जब वे अपनी रौ में होते तो सामनेवाले की शायद ही सुनते थे। फिर वे अपने मूल कथन को ही दुहराने लगे। मैं तो लिहाजवश चुप ही रहा किंतु अशोक जी ने अपना मुखर मौन तोड़ा। कहने लगे, ‘आलोक जी, सच्चाई यह है कि जाति-पांति का नाम लेनेवाले हर आदमी पर अगर इसी तरह थूकते रहे तो आप डिहाइड्रेशन के शिकार हो जायेंगे और दैवयोग से अगर बच भी गये तो अपने ही थूक के अंबार में डूबे जीवन की भीख मांगते नजर आयेंगे। वैसे, इसकी कम ही संभावना है कि ऐसा करने को आप बचे भी रहें।’
आलोक धन्वा एक लंबे समय से एकाकीपन में जीते आ रहे थे। शादी नहीं की थी। इस लायक किसी को समझा नहीं था शायद। या फिर कोई और ही कारण हो सकता है। कभी-कभी वे शारीरिक दुर्बलताओं का भी जिक्र किया करते। किंतु इन दिनों शादी को लेकर कुछ-कुछ गंभीर होने लगे थे। ‘छतों पर लड़कियां’ कविता का ठीक यही समय है। एक दिन वे खाने-पीने की दिक्कतों की बात करने लगे। मैंने सलाह दी, ‘कोई नौकर क्यों नहीं रख लेते ?’ इसपर वे बोल उठे-‘नौकर बहुत महंगा हो गया है। खाता भी बहुत है। उतने खर्च में तो एक बीबी भी रखी जा सकती है।’ वे जानते थे कि मेरी शादी हो चुकी है, इसलिए पूछ बैठे-‘राजू भाई, आपकी कोई बड़ी साली है ?’ मैंने मजाक के लहजे में कहा, सर, मेरी पत्नी बहनों में सबसे बड़ी है। अफसोस!’ ‘कोई बात नहीं, इधर-उधर ही देखिए’, वे कहने लगे। आगे उन्होंने अंतिम सत्य की तरह जोड़ते हुए कहा, ‘आप तो मेरी जाति जानते हैं न राजू भाई ? आप भूमिहार हैं न! मैं भी वही हूं!!’
एक दिन अखबार से मालूम हुआ, ‘छत की लड़की’ उनके आंगन में दाखिल हो चुकी है, अर्थात् उन्होंने शादी कर ली है। हमलागों के लिए यह खबर बहुत रोमांचक थी। मैं तब अशोक जी के साथ सुनील जी के मकान में (लालबाग मोहल्ले में) रहा करता था। मैं, अशोक जी और सैदपुर छात्रावास के दिनों के (संभवतः 1984) पुराने परिचित सियाराम शर्मा (तब सियाराम शर्मा ‘व्यथित’) तीनों साथ-साथ आलोक धन्वा को शादी की बधाई देने पहुंचे। तीनों का बारी-बारी से पत्नी से परिचय कराया। अशोक जी के परिचय में उन्होंने ठीक-ठीक कौन-सा वाक्य कहा था, फिलहाल मुझे याद नहीं है। मेरा परिचय देते उन्होंने बताया-‘आप राजू भाई हैं, मेरे पुराने प्रेमी और प्रशंसक।’ यह भी जोड़ा कि ‘ये मेरे एकांत के दिनों के साथी रहे हैं और समाजशास्त्र के विद्वान हैं।’ फिर व्यथित जी का परिचय दिया, ‘आप हिंदी के विद्वान और साहित्य के गंभीर आलोचक हैं।’ तब सियाराम जी की आलोचना-पुस्तिका कविता का तीसरा संसार ,पहल पत्रिका से प्रकाशित होकर आ चुकी थी। इसमें आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल एवं कुमार विकल की कविताओं की समीक्षा थी। हालांकि अपने साथ गोरख पाण्डेय को पाकर आलोक धन्वा, सियाराम जी से थोड़ा नाराज भी थे। कवियों की जमात में ‘गीतकार’ को शामिल करना आलोक को अच्छा न लगा था। खैर, अब आलोक अपनी पत्नी का परिचय देनेवाले थे। उन्होंने अभिनय की मुद्रा बनाते कहा, ‘आप हैं क्रांति भट्ट। बैट (बिहार आर्ट थियेटर) की प्रख्यात अदाकारा। और फिलहाल ये कंप्यूटर से खेल रही हैं।’ हमलोगों को काफी देर की मगजमारी के बाद मुश्किल से मालूम हुआ कि स्थानीय आज अखबार के कंप्यूटर विभाग में नौकरी करती हैं।
शादी के बाद जब कभी आलोक धन्वा से मिलने जाता तो वे काफी व्यस्त हो जाते। खिड़कियों-दरवाजों के परदे दुरुस्त करते और कहते जाते-‘राजू भाई, अब मैं पारिवारिक हो गया हूं न !’ मेरे मन को थोड़ा विनोद सूझता और मन ही मन बोलता, आलोक धन्वा ने ‘पारिवारिक’ होने में इतना समय लिया है, पता नहीं ‘सामाजिक’ बन पायेंगे भी या नहीं। साथ बैठी होने पर पत्नी को अक्सर ‘बच्ची’ कह संबोधित करते। बातचीत के क्रम में सहज ही कह जाते, ‘क्रांति तो मेरी बेटी के समान है, बच्ची है।’ पत्नी को ‘बेटी’ बनना पसंद न था और आलोक धन्वा थे कि उसे बेटी बनाकर पिता का असीमित अधिकार हासिल कर लेना चाहते थे। वे क्रांति की सामान्य दिनचर्या की छोटी-से-छोटी चीज में दखल देते और अपनी बात पास करवाना चाहते। मसलन, उसे कब दही खाना चाहिए और कब नहीं, इस तक का भी वे ‘ख्याल’ रखते। क्रांति का नाटक के लिए घर से बाहर निकलना अब उन्हें अखरता था। एक दिन वे मुझसे कहने लगे, ‘राजू भाई! क्रांति, रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जा रही है। आप तो जानते हैं कि रघुवीर सहाय की कविताओं में अद्भुत नाटकीयता है। उसका निर्वाह क्रांति से संभव न हो सकेगा। इसलिए मैंने तो कह रखा है कि रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जाओगी, तो मेरे सीने से होकर गुजरना पड़ेगा। मैं हिंदी कविता का अपमान सहन करने के लिए जीवित नहीं रह सकता।’ एकबारगी मेरी आंखों के सामने ‘कुलीनता की हिंसा’ का बिंब जीवित हो उठा। क्रांति तो गईं, किंतु आलोक ‘जीवित’ रह गये।
व्यथित जी जब कभी पटना आते और हमलोग मिल-बैठते तो आलोक धन्वा की चर्चा अवश्य होती। आलोक की कविताओं से व बेहद प्रभावित थे। वे जब बात करने लगते तो निर्दोष बच्चों-सी ललक दिख पड़ती उनमें। मैं कभी कहता भी कि ‘आपने आलोक धन्वा की सिर्फ कविताएं पढ़ी हैं, जीवन नहीं देखा है,’ तो हल्के-से प्रतिवाद के साथ बच निकलने की कोशिश करते। मुझे लगता वे अपना विश्वास नहीं तोड़ना चाहते और मैं चुप लगा जाता। लेकिन यथार्थ तो परछाई की तरह है। उससे बहुत दिनों तक बचा तो नहीं जा सकता न। एक दिन की बात है कि अशोक जी को साथ लेकर व्यथित जी, आलोक धन्वा से मिलने चले गये। वहां से लौटे तो बहुत ही उदास और अशांत थे। पूछने पर बताया कि ‘क्रांति के साथ निभ नहीं रही है। वे (क्रांति) गुस्से में लगातार चीख के साथ बरतनें तोड़ी जा रही थीं।’ मैं यह सब सुनकर बहुत उदास और दुखी नहीं हुआ। ऐसी स्थिति की आशंका मुझे पहले ही से थी। एकांत के क्षणों में आलोक धन्वा कहने लगे थे, ‘राजू भाई, मैंने दरवाजा खुला छोड़ रखा है। क्रांति जिस दरवाजे से होकर आयी है, जा भी सकती है।’ मैं सोचता, लोग ठीक ही कहते हैं कि कवि ‘अव्यावहारिक’ जीव होता है। व्यथित जी इस घटना के बाद खासे डरे लग रहे थे। वे भी अपनी शादी को लेकर गंभीर हो रहे थे, वह भी दूसरी के लिए।
इधर कुछ दिनों से आलोक धन्वा मुझसे नाराज थे। व्यथित जी की पुस्तिका कविता का तीसरा संसार की समीक्षा को लेकर। यह जबलपुर से निकलनेवाली अनियतकालीन पत्रिका विकल्प में छपी थी। दरअसल मैंने जो लिखा था उसका सार यह था कि आलोक धन्वा के यहां मुक्तिबोध के उलट कविता और जीवन दो अलग-अलग चीज हैं। समीक्षा को पढ़कर अथवा सुनकर आलोक धन्वा ने कुमार मुकुल से कहा था ‘राजू बदतमीज और चूतिया है।’ मुझे सहज ही विश्वास हो गया, क्योंकि कुमार मुकुल के बारे में मुझसे ठीक-ठीक यही वाक्य कहा था और यह भी कि ‘उसने मेरे घर में कागज-कलम पकड़ना सीखा है। आलोक धन्वा को ‘साहित्य के जनतंत्र’ में ‘असहमति’ मुश्किल से बरदाश्त होती थी। समीक्षा की आग मंद भी न पड़ी थी कि व्यथित जी पटना आ धमके। उन्हें उसी विकल्प पत्रिका का नक्सलबाड़ी अंक संपादित करने का दायित्त्व दिया गया था। वे चाहते थे कि आलोक धन्वा का एक लंबा (ऐतिहासिक) इंटरव्यू हो पत्रिका के लिए। इस उद्येश्य से वे अपने नायक कवि के पास पहुंचे ही थे कि वे बमक उठे। कहने लगे-‘शर्मा जी, मुझे समझ में नहीं आता कि राजू जैसा पाजी लड़का आपका मित्र कैसे हो गया।’ शर्मा जी के ज्ञान पर चोट थी यह, अतएव प्रतिवाद करने से अपने को रोक न पाये-‘क्या मुझमें यह विवेक भी नहीं कि अपने मित्र का चुनाव मैं स्वतंत्र होकर कर सकूं ?’ आलोक धन्वा को अपना दांव बेअसर होता लगा तो कहने लगे-‘जहां से पहल जैसी पत्रिका निकल रही हो वहां से विकल्प निकालने की क्या जरूरत है ?’ महाकवि का इंटरव्यू करने की शर्मा जी की ख्वाहिश पूरी न हो सकी। व्यथित जी अब भी पटना आते हैं, लेकिन आलोक धन्वा का नाम उन्हें उत्तेजित नहीं कर पाता।
एक दिन मैं स्वरूप विद्या निकेतन स्कूल में अपनी कक्षा से ज्योंही निकला तो पाया कि आलोक धन्वा निदेशक जनार्दन सिंह से बातचीत में उलझे हुए हैं। बहस का विषय था कि बच्चों को पीटा जाये अथवा नहीं। जनार्दन सिंह जहां बच्चों को पीटने के लाभ बता रहे थे वहीं आलोक उसे ‘सामंती समाज की देन’ बता रहे थे। दरअसल वे अपने वकील भाई के बेटे को छात्रावास में दाखिला दिलाना चाहते थे। जनार्दन सिंह, अर्थात् बच्चों के स्वघोषित ‘चाचाजी’ को आलोक धन्वा ‘सामंतों का लठैत’ घोषित कर चल निकले। मुझे भी साथ ले लिया। रास्ते में नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहा-‘चलिए राजू भाई, आज पैसों की दिक्कत नहीं है।’ बेली रोड स्थित बेलट्रॉन भवन में कोई कार्यशाला चली थी, उसके पैसे थे उनके पास। मैं ‘न’ नहीं कह पाया और चल दिया। डाकबंगला के पास पहुंचकर एक साफ-सुथरी (महंगी भी) दुकान से ब्रेड तथा नाश्ते का अन्य सामान लिया। अपने घर के पास हरा चना भी खरीदा। हमदोनों घर में दाखिल हुए। मुझे ड्राईंग रूम में बिठाकर खुद एप्रन में बंधे किचेन में जा घुंसे। हमलोगों ने साथ-साथ नाश्ता लिया। अपनी मशहूर काली चाय भी पिलायी। थोड़ा निश्चिंत होने पर मैंने पूछा ‘घर में कहीं क्रांति नहीं दिख रही है ?’ थोड़ी देर मौन साधकर बोले, ‘वह ड्रामा करने गयी है।’
प्रकाशन: जन विकल्प, पटना, संपादक-प्रेमकुमार मणि एवं प्रमोद रंजन, अगस्त, 2007।
Thursday, August 5, 2010
व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है
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सुलभ जी |
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विनोद मिश्र |
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चंद्रभूषण |
वे सब प्रतिबद्धता की फसल काट रहे हैं
शायद बी. ए. का ही छात्र था, जब आरक्षण को लेकर देशव्यापी हंगामा हुआ था। पूरे देश के छात्र समर्थन और विरोध में बंटे हुए थे। इस मुद्दे को लेकर मैं भी अपने मित्रों के बीच बहस छेड़ दिया करता था। एक दिन जोर-जोर से कॉलेज कैंपस में बोल ही रहा था कि दो अपरिचित सज्जनों ने मुझसे थोड़ा एकांत में चलने का आग्रह किया। भीड़ से अलग हुआ और एक औपचारिक परिचय के बाद फिर नये सिरे से बातचीत में भिड़ गया। सज्जनों में इरफान और विष्णु राजगढ़िया थे। विष्णु तो देखने में साधारण ही लगते, लेकिन इरफान काफी ‘बौद्धिक छटा’ बिखेरते थे। उनकी बातचीत का अंदाज काफी गंभीर और बौद्धिकतापूर्ण था, हालांकि उन्होंने सिगरेट भी सुलगायी थी। मुझे भी शरीक किया। बातचीत के क्रम में पता चला कि वे लोग समकालीन जनमत पत्रिका की तरफ से थे। स्टोरी के लिए मैटर का जुगाड़ बिठाने और कॉलेज में आंदोलन की तासीर जानने आये थे। दोनों ने मुझे रामजी राय और प्रदीप झा से मिलने की सलाह दी। मिला भी। इस परिचय के बाद हमलोगों ने नियमित मिलना-जुलना जारी रखा। विष्णु तो प्रायः कम बोलते थे, लेकिन इरफान मुझे अक्सर इस बात के लिए कोचते कि ‘मैं पार्टी में नहीं हूं, इसलिए प्रतिबद्ध नहीं हूं।’ उनका अत्यंत प्रिय सूत्रवाक्य था कि ‘जो पार्टी का कैडर नहीं है, उसकी क्रांतिकारिता पर भरोसा नहीं किया जा सकता।’ वैसे मैं सी. पी. आई. माले का सिम्पैथाइजर अवश्य था, लेकिन पार्टी का बंधन मानने को मन तैयार न था। प्रेमचंद का यह वाक्य कहीं पढ़ रखा था कि ‘मेरी पार्टी अभी बनी बनी नहीं है।’ उसी तर्ज पर मैं भविष्य की पार्टी का इंतजार कर रहा था।
कहना होगा कि इस मेलजोल के साथ ही मन में दुराव का भाव भी पैदा हो रहा था। लोगों के रहने तरीके को लेकर कभी-कभी मैं काफी हैरान और चिंतित हो उठता। इरफान सदैव मोटरसाइकिल से ही चलते और हर आध घंटे पर विल्स सिगरेट फूंकते। मुझे लगता यह पार्टी के पैसे का दुरुपयोग है। एक दिन थोड़ी खीझ होने पर मैंने कह भी दिया था-‘इरफान, अगर प्रतिबद्धता का यही मतलब है तो इस कीमत पर मैं प्रतिबद्ध नहीं हो सकता।’ माले के लड़कों में सिगरेट की बड़ी भारी लत थी। अपने ‘गॉडफादर’ विनोद मिश्र की नकल हो शायद! रंजीत अभिज्ञान भी तब पटने में बहुत सिगरेट पीता था और हमेशा चंदा के नाम पर लोगों से पैसे लेता और भागा फिरता। नये लड़कों में नवीन और अभ्युदय बहुत सिगरेट पीते हैं। संगठन का पीते हैं, यह नहीं कह सकता।
समकालीन जनमत का विष्णु, इरफान और चंद्रभूषण वाला ग्रुप ‘श्रेष्ठताबोध’ की भावना से भरा हुआ था। एक शाम मैं टहलते हुए महेंद्र सिंह के शास्त्रीनगर वाले फ्लैट पर पहुंचा, जहां वे लोग स्थायी तौर पर रहा करते थे, तो पाया कि सभी किसी गंभीर विमर्श में फंसे हैं। मैंने भी कुछ कहने की हिम्मत (जुर्रत!) की तो तीनों मुझे कुछ इस कदर घूरने लगे मानों आंखों-ही-आंखों में मुझे बता रहे हों-‘यह आपके बूते की चीज नहीं है।’ वे लोग द सेकेंड सेक्स पर बातें कर रहे थे। माले का यह ‘हिरावल’ दस्ता ‘सेक्स’ को भरपूर जीता था। पार्टी के अंदर ‘सेक्स स्कैंडल’ और यौन-शोषण की कम किंवदंतियां नहीं हैं।
इसी क्रम में फरवरी, 1990 में मेरी शादी होनी तय हुई। जनमत के इस ग्रुप से मैंने शादी में शरीक होने के लिए आग्रह किया। कार्ड दिया ही था कि इरफान ने कहा, ‘चलो एक और जीवन नष्ट हुआ।’ खैर, वे लोग वहां पहुंचे। कमलेश शर्मा भी उनलेगों के साथ थे। लड़कीवाले की तरफ से निवेदिता थीं। मेरे बड़े भाई के साले अमरेन्द्र कुमार भी थे। अमरेन्द्र का मैंने जनमत के लोगों से परिचय कराया। इरफान ने अमरेन्द्र से दार्शनिक अंदाज में पूछा-‘आपको सबसे ज्यादा कौन-सी चीज आतंकित करती है ?’ अमरेन्द्र ने बिल्कुल अपने स्वभाव के अनुकूल जवाब दिया-‘पेड़ से पत्तों का गिरना।’ अमरेन्द्र कुमार को आज भी मैं इसी बिंब के साथ याद करता हूं। यह जवाब इरफान के लायक भी था।
Tuesday, August 3, 2010
जी, मैं ही वो नाचीज हूं
अखिलेश कुमार |
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अपूर्वानन्द |
हंसकुमार पांडेय और मेरे बड़े भाई अखिलेश कुमार सैदपुर छात्रावास के एक ही कमरे में रहते। हंसकुमार जी कहानी लिखने में ही नहीं, सुनाने में भी विश्वास रखते थे। आदतवश वे अक्सर ही कथा-वाचन की सीमा-मर्यादा लांघ जाते। उनकी इस आदत पर मेरे भाई तनिक क्षुब्ध होते और कहते, ‘पांडेय जी, आप कहानियां लिखते हैं। अतएव पढ़ना-लिखना आपके लिए अनिवार्य शर्त की तरह नहीं है। अनुभूति और संवेदना के औजार से ही आपका काम चल जायेगा। मै ठहरा इतिहास का विद्यार्थी। (वैसे पांडेय जी भी इतिहास ही के छात्र थे और फिलहाल केंद्रीय विद्यालय में इतिहास के शिक्षक हैं।) सो मेरे लिए पढ़ना आवश्यक है। इसलिए आप अपनी ‘वाचिक परंपरा’ के विस्तार के लोभ का तनिक संवरण करेंगे तो बेहतर होगा।’ उस क्षण तो वे चुप लगा जाते लेकिन इधर से थोड़ी भी नरमी देखते तो फिर से शुरू होने की जुगत में लग जाते।
पांडेय जी की कहानियों में नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, तरुण कुमार, अपूर्वानंद एवं कवि शील होते। कभी-कभी वे मघड़ा (नालंदा) अयोध्यानाथ सांडिल्य (धरातल पत्रिकावाले) का भी नाम लेते। वे कमरे में आते और कहानी शुरू हो जाती। एक शाम वे अपने कमरे में दाखिल होते ही चहकते हुए बोले, ‘अखिलेश, आज की चांदनी बड़ी प्यारी लग रही है।’ यह कहानी की शुरुआत नहीं थी बल्कि कहानी प्रारंभ करने के लिए भूमिका तैयार की जा रही थी। यह एक तरह से श्रोता की ‘हेलो, माइक टेस्टिंग’ थी। मेरे भाई साहब शायद कहानी के लिए तैयार न थे। इसलिए बोले, ‘हां, आज मेरी भी मुलाकात नवल जी से हुई। वे भी बोले कि ‘आज की चांदनी बड़ी प्यारी लग रही है।’ और हां, ‘अपूर्वानन्द भी कुछ-कुछ ऐसा ही कह रहे थे।’ इतना सुनना था कि पांडेय जी पके बैगन की भांति गरम हो उठे। बोले, ‘अखिलेश, तुम्हें क्या लगता है कि मैं जो कुछ भी बोलता-कहता हूं नवल जी का प्रचार करता हूं ?’ ‘मैंने ऐसा कब कहा?’ भाई साहब ने हस्तक्षेप किया। पांडेय जी बोलते रहे, ‘अरे, मैंने क्या समझा था कि इतिहास का नीरस और उबाऊ तथ्य पढ़ते-पढ़ते सौंदर्य-चेतना से तुम इतने शून्य हो गये हो कि चांद-तारों की बात भी बर्दाश्त नहीं कर सकते ?’ आदि...आदि।
पांडेय जी अपने बचपन की एक कहानी सुनाते। कहानी थी कि बचपन में उन्हें दुनिया के बाकी सभी बच्चों की तरह ही पढ़ते-पढ़ते सो जाने की बीमारी थी। उनके पिता गांधीवादी मूल्यों को ढोनेवाले शिक्षकों की अंतिम पीढ़ी के थे। वे जब विद्यालय से वापस घर आते तो पाते कि हंसकुमार सोया पड़ा है। त्योरी चढ़ जाती। हल्की डांट भरी एक आवाज लगाते-‘हंसकुमार सुतल बानी का ?’ ‘ना तऽ ’, पांडेय जी कहते और पिता से नजरें बचाते हुए आंख मलने लगते। दूर नेपथ्य से मां की आवाज आती-‘सुतल ना बानी। देखत नइखीं लड़िका के, पढ़त-पढ़त आंख लाल हो गइल बा।’ पिताजी तब तक थोड़ा सुस्ता रहे होते। फिर अपना कोट उतारते और बोलते, ‘सूतीं सूतीं, रउआ ना सूतब राउर तकदीर सूती। ’ तब तक मां का कथन भी जारी रहता। पिता जब अपने हिस्से का सारा इतमीनान और साहस बटोरकर कुर्सी पर बैठ चुके होते तो कुछ-कुछ अंतिम फैसले की शक्ल में बोलते-‘भीखो ना मिली।’ मां को यह तनिक गंवारा न होता और जोर-जोर से बोलने-चिल्लाने लगतीं-‘मिली ना त का ,ना मिली, मिली। भीख जरूर मिली।’ पिता कुर्सी में धंस चुके होते।
पांडेय जी कहानियां लिखते और स्थानीय अखबार जनशक्ति में प्रकाशित होतीं। उन दिनों इस अखबार में रचनाकारों की तस्वीरें भी छपती। एक लेखक के लिए इससे बड़ा सुख क्या होता। जिस दिन उनकी कहानी छपती, अखबार खरीदते और किसी भी दिशा की बस पकड़ लेते। बस में थोड़ी भी जगह मिलती कि अखबार फैला देते। अगर वे ऐसा करने में अक्षम होते तो सीट पर बैठे सज्जन उनके हाथ से अखबार झटक लेते। पाठक की नजर अगर अखबार में छपी तस्वीर पर जाती तो थोड़े विस्मय के साथ पांडेय जी के मुखड़े से उसका मिलान करता। भ्रम दूर होने पर वह पांडेय जी से पूछता-‘ये छपी हुई तस्वीर आपकी है क्या?’ ‘जी, मैं ही वो नाचीज हूं’, पांडेय जी का छोटा और अति विनम्र जवाब होता। यह प्रश्नोत्तरी लगभग भर दिन चलती।
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