Wednesday, September 8, 2010

और वक्ता ने अध्यक्ष को मंच पर चढ़ने न दिया

अलबत्ता आलोक धन्वा ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ ‘ऐतिहासिक’ तरीके से दी। वे इतिहास ‘लिखने’ की बजाय इतिहास ‘बनाने’ में यकीन रखते हैं। हुआ यह कि दिसंबर 2008 के पुस्तक मेले में मैं गया हुआ था। वहीं अरुण नारायण ने सूचना दी कि कल आलोक धन्वा का व्याख्यान रखा गया है। इसलिए अपने प्रिय कवि (कह दूं कि उनका गद्य भी मुझे ‘कविता की कोख’ से निकला मालूम पड़ता है।) को सुनने हाजिर हो गया। मैं इधर-उधर घूम ही रहा था कि अरुण नारायण से भेंट हो गई। उन्होंने कहा कि धन्वा जी वाली गोष्ठी की अध्यक्षता मुझे ही करनी है। मैंने इसे मजाक ही समझा। इसलिए मजाक ही में टाल भी दिया। मुझे मालूम था कि ‘साहित्य के जनतंत्र’ में यह असंभव है। व्यवस्थापक को शायद इसकी गंभीरता मालूम न थी। अतएव उद्घोषणा-कक्ष से इस बात की लगे हाथों घोषणा भी कर दी गई। इस पर मैने अरुण नारायण को मजाक ही सही लेकिन कहा था कि ऐसी कोई घोषणा न की जाये वरना सुन लेने पर आलोक जी अंदर आने की बजाय उल्टे पांव घर को हो लेंगे। अब मैं डरते-डरते ही सही, मानसिक रूप से अपने को तैयार करने लगा। यहां तक कि अध्यक्षीय भाषण के मजमून पर भी विचार करने लगा। अध्यक्ष के द्वारा काफी प्रतीक्षा कर चुकने के बाद अंततः आलोक जी आए। मुद्दत बाद उनको देख रहा था। लगा जिस बीमारी की अब तक बात करते रहे थे वह उनके चेहरे से अब वह झांकने लगी है। पहले वाला तेज नहीं रह गया था। उन्हें मंच पर बिठाया गया। अध्यक्षता के लिए मुझे भी मंच पर आमंत्रित किया गया किंतु मैं सहज ही अपनी जगह बैठा रह गया। हालांकि मुकुल जी ने, जो मेरी ही बगल में बैठे थे, मंच पर जाने के लिए प्रेरित भी किया। किंतु मैं इसे इतना सरल मामला नहीं समझ रहा था। मैं दरअसल आलोक जी की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहा था। मेरा नाम सुनना था कि वे असहज हो गये। उन्होंने कहा, ‘किसी ‘‘अतिरिक्त’’ तामझाम की जरूरत नहीं हैं। बगैर किसी औपचारिकता के मैं अपनी बात कहूंगा।’ कुछ तो आलोक धन्वा की बात सुनकर और कुछ उनके अप्रत्याशित नाटक से मंच-संचालक नर्वस हो गये और काफी कुछ आलोक धन्वा की तारीफ में कह गये। आलोक जी को यह ‘औपचारिकता’ रास आई। ‘मंगलाचरण’ के बाद आलोक जी ‘जनतांत्रिक मूल्य’ एवं ‘फासीवाद’ पर दो किस्तों में बोले। वे जब भी किसी तानाशाह का जिक्र करते तो मैं दो मिनट पहले का ‘हादसा’ याद करता और मुस्कुरा देता। मैं मन ही मन सोच रहा था कि आलोक जी ने अपने साथ मेरा भी इतिहास ‘रच’ डाला। इतिहास की शायद पहली ही घटना हो जब अध्यक्ष को वक्ता ने मंच पर चढ़ने ही न दिया हो।    

1 comment:

  1. That day I was also in the book fair , I had gone with my wife and she is hardly interested in poems but she went to listen to his poems only to accompany me . Alokdhanwa and myself had talked for a few minutes and then he was called on the stage .Hearing the name of Raju he made it clear that he didn't want anyone else on the stage . However, he praised Raju Ranjan by calling him a scholar of history . Among his poems , there was one 'Saphed Raat'.

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